विधवा अभागी क्यों!!!
विधवा अभागी क्यों!!!
आज शिवानी लाइब्रेरी से प्रेमचंद का उपन्यास प्रतिज्ञा इशू करवाकर लेकर आयी थी। किताबों की दीवानी शिवानी खाये-पिए बिना रह सकती है लेकिन किताबों के बिना एक दिन भी नहीं। जहाँ शिवानी की उम्र की लड़कियाँ अपनी जेबखर्ची चाट खाने लिपस्टिक आदि शृंगार प्रसाधन ख़रीदने में व्यय करती हैं वहीं शिवानी किताबें ख़रीदने में।
शिवानी का मानना है कि किताबें इंसान की सबसे अच्छी और सच्ची दोस्त होती हैं। उसने महात्मा गाँधी की जीवनी में पढ़ा भी था कि कैसे "Un to the last" किताब पढ़कर मोहनदास का नज़रिया बदला और वह गाँधी हो गए। किताबें पढ़-पढ़कर ही तो राजा राममोहन रॉय इतिहास के समंदर में गोते लगाकर सती प्रथा विरोधी दृष्टान्त ला पाए।
शिवानी अपने कमरे में जाकर प्रतिज्ञा उपन्यास खोलकर बैठ गयी थी। उपन्यास पढ़ते हुए पूर्णा जो कि एक विधवा थी उसकी दुर्दशा के प्रेमचंद द्वारा किये गए सटीक चित्रण ने शिवानी को अपनी एक बाल विधवा छोटी दादी याद दिला दी थी। हमारा समाज कितना दोगला है जो विधुर को तो विवाह की अनुमति दे देता था लेकिन एक विधवा को नहीं। ऐसी विधवा स्त्री अपने परिवार के शोषण का शिकार होती थी। परिवार के न जाने कितने पुरुष उनसे अपने बिस्तर गर्म करवाते थे। पूर्णा के आश्रयदाता परिवार का लम्पट पुत्र भी तो उस पर कुदृष्टि रखता था।
शिवानी की बाल विधवा छोटी दादी भी तो कितनी ही वर्जनाओं और प्रतिबंधों में जीती थी। शिवानी ने देखा था कि वह हमेशा जमीन पर ही सोती थीं। उन्हें मिट्टी के बर्तनों में खाना दिया जाता था उनका सिर भी मुड़ा हुआ था। शिवानी की दादी उन्हें किसी भी शुभ अवसर पर या तो घर के पीछे बने बाड़े में जहाँ पशुओं को रखा जाता था वहाँ भेज देती थी या किसी और रिश्तेदार के घर में। दादी को अमृतराय जैसा कोई प्रेरणा देने वाला नहीं मिला था न। छोटी दादी पूरी तरीके से अपने ससुराल पर निर्भर थी मायके से तो उन्हें दिलासा के अलावा कभी कुछ नहीं मिला था।
मायके वाले तो यही कहते "जैसी तेरी क़िस्मत। अब वही तेरा घर है। जहाँ तेरी डोली गयी है वहीं से अर्थी निकलेगी।"
और फिर एक दिन छोटी दादी की मृत्यु भी हो गयी थी और बेचारी के पास अंतिम समय में कोई भी नहीं था। शिवानी के पापा और उनके भाई गांव छोड़कर कब के ही अपनी नौकरियों और बच्चों की शिक्षा के कारण शहर में आ गए थे। शिवानी के दादा-दादी भी अक्सर उन्हीं के पास रहते थे। गांव के लोगों ने खबर की तब सब वहाँ पहुँचे। गांव के लोगों ने ही दादी का अंतिम संस्कार कर दिया था।
"अभागन मुक्त हो गयी। बेचारी ने पूरी ज़िन्दगी ही दुःख भोगा।" वहाँ मौजूद औरतों के मुँह से शिवानी ने यह शब्द सुने थे।
प्रेमचंद जी ने अपने उपन्यास में विधवाओं को एक बेहतर जीवन जीने का रास्ता तो दिखा दिया था लेकिन वैधव्य को दुर्भाग्य मानने की सोच से मुक्ति नहीं दिला पाए थे। जब विधुर को अभागा नहीं मानते तो विधवा को अभागन क्यों माना जाए।
आज भी शिवानी को याद है उसके दादा-दादी का निधन लगभग एक महीने आगे-पीछे हुआ था। दादी दादा से १ महीने पहले स्वर्ग सिधार गयी थी। अपने ऊपर से दो बड़े-बुज़ुर्गों की छत्र-छाया एकसाथ जाने से परिवार के लोग दुखी थे लेकिन मन में विश्वास था कि अदृश्य रूप से दादा-दादी दोनों का आशीर्वाद अपने परिवार पर हमेशा ही बना रहेगा। खैर यहाँ पर मसला यह नहीं है। उनकी मृत्यु पर अफ़सोस जताने आने वाली औरतों के मुँह से शिवानी सुनती थी कि "दादी, बड़ी सौभाग्यवती थी जो कि सुहागन ही मर गयी।"
दादी अगर सौभाग्यवती थी तो दादाजी तो अभागे हुए, बेचारे विधुर होकर मरे थे लेकिन सब दादी को सौभाग्यवती तो बताते लेकिन दादा को कोई अभागा नहीं कहता। इन औरतों की बातों में शिवानी लैंगिक विषमता की बू सूंघ सकती थी। लेकिन बड़े दुख की बात है कि उन्हें खुद को यह नहीं पता था। जब विधुर होना अभागा होना नहीं है तो विधवा होना अभागन होना कैसे हो सकता है? अपने जीवनसाथी को खोना हर किसी के लिए दुखद होता है वह चाहे स्त्री हो या पुरुष। लेकिन वैधव्य स्त्री के लिए इतना दुष्कर क्यों? इस क्यों का प्रश्न शिवानी को अपनी बाल विधवा दादी की दशा देखकर मिल ही गया था।
सदियों से हमारे सारे रीति-रिवाज और परम्पराएं स्त्री-विरोधी रही हैं। सती प्रथा एक ऐसी ही कुप्रथा थी जो विधवा से जीने का अधिकार तक छीन लेती थी।
पति के साथ जीवित पत्नी को भी ज़िंदा जला दिया जाता था। वैधव्य अगर किसी को जीवन से ही वंचित कर दे तो उसके लिए तो अवश्य इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। अगर किसी विधवा स्त्री का जीवन बच भी जाता था तो नरक से भी बदतर होता था। वह स्त्री अपने परिजनों के मानसिक, शारीरिक, यौनिक और आर्थिक शोषण का शिकार होती थी जैसा शिवानी की बाल विधवा दादी हुई थी। उस पर आने-जाने, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के कई प्रतिबन्ध लगाए जाते थे। मांगलिक कार्यों में उसकी उपस्थिति अशुभ मानी जाती थी। विधवा स्त्री विभिन्न प्रताड़नाओं की शिकार होती थी। शायद ऐसे नारकीय जीवन के कारण विधवा होना दुर्भाग्य पूर्ण माना जाता था।
इसके विपरीत विधुर के जीवन में कोई बदलाव नहीं आता था। पुरुष के लिए स्त्री पैर की जूती थी, अगर एक टूट भी जाए अर्थात पत्नी की मृत्यु हो जाए तो दूसरी जूती पहन लो अर्थात दूसरी शादी कर लो। विधुर के जीवन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाए जाते थे। अपने प्रियजन को खोने के अलावा उसके जीवन में कोई बड़े परिवर्तन नहीं होते थे। इसलिए विधुर अभागा नहीं था। अब जब सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा समाप्त हो गयी है, विधवा पुनर्विवाह होने लगे हैं।
तब भी हम महिलायें पुरानी लकीरें क्यों पीटती जा रही हैं? किसी स्त्री के सौभाग्य को हमेशा उसके पति से ही क्यों जोड़ा जाता है जबकि पुरुष के सौभाग्य को उसकी पत्नी से नहीं जोड़ा जाता। शादी और पति स्त्री के जीवन का एक हिस्सा मात्र है पूरा जीवन नहीं। विधवा होने मात्र से स्त्री अभागी नहीं हो जाती है, वह अपना एक करीबी जरूर खोती है। वह स्त्री अभागी होनी चाहिए जिसे अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने का अधिकार नहीं है और साथ ही वह इस बात से अनजान है कि उसे ऐसा अधिकार नहीं दिया गया है जो अपने पिंजरे को अपने लिए उचित मानती है।
"उस समय प्रेमचंदजी ने प्रतिज्ञा लिखकर पूर्णा जैसी विधवा स्त्रियों को जीवन जीने का नया तरीका सिखाया था आज भी वैसा ही एक और उपन्यास लिखकर विधवा पर अभागन का स्टीकर चिपकाने से रोकना होगा।" शिवानी ने अपने आप से एक प्रण लिया।