रिश्ता
रिश्ता
चारों सखियों ने तय किया कि क्यों न दीदी की उदासी का कारण दीदी से ही पूछ लिया जाए। इसके लिए शंमुखा दीदी के घर जाए और शेष तीनों सखियाँ बाहर इंतज़ार करें। चारों ने अपने कदम दीदी के घर की तरफ बढ़ा दिए।
"अरे शंमुखा, तुम ?", कालिन्दी दीदी ने दरवाज़ा खोलते ही पूछा।
"दीदी, आज सैर से थोड़ा जल्दी आ गयी थी तो सोचा आपसे ही बात करती चलूँ। २-3 दिन से आप काफी परेशान दिख रही थीं।", शंमुखा ने बिना लाग-लपेट के कहा।
कालिन्दी कुछ क्षण के लिए एकदम चुप हो गयी।
"दीदी, हो सकता है आपकी परेशानी का समाधान ही सुझा सकूँ।समाधान न भी मिले तो कम से कम मन तो हल्का हो ही जाएगा।", शंमुखा ने दीदी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा।
"शंमुखा, विवाह के 10 दिन बाद ही मेरे पति मुझे छोड़कर चले गए थे। पति के जाते ही ससुराल वालों ने मुझे मायके छोड़ दिया । मायके वालों ने सोचा कि मेरे पति कुछ समय में शायद लौट आयें। पति तो नहीं आये, लेकिन उनके सन्यास लेने की सूचना जरूर आयी। मायके बैठी विवाहित पुत्री के ससुराल लौटने की सारी संभावनाएँ क्षीण हो गयी थीं। लोगों के सवाल जवाब मेरे मायके वालों के लिए ही नहीं, मेरे लिए भी असहनीय थे। इन सबसे बचने के लिए नौकरी ढूंढनी शुरू की। नौकरी मिल भी गयी। नौकरी के साथ मायके का शहर भी छूट गया। नौकरी भी ऐसी मिली कि किसी भी शहर में स्थायी मुकाम नहीं बनाना पड़ा। लोग मेरे बारे में कुछ जानें, उससे पहले ही स्थानान्तरण हो जाता। पिछले हफ्ते मेरे सन्यासी पति का निधन हो गया। पति की अन्तिम क्रिया में न चाहते हुए भी मुझे शामिल होना पड़ा। तन-मन का न सही, नाम का तो रिश्ता था ही।", कालिन्दी दीदी की आँखों से अश्रुधारा बह चली।
दीदी का वर्षों पुराना घाव फिर से हरा हो गया था और यही उनकी उदासी का कारण था। दीदी ने अपना सिर शंमुखा के कंधे पर रख दिया था।