Tulsi Tiwari

Drama

3.3  

Tulsi Tiwari

Drama

तुम नहीं बदली

तुम नहीं बदली

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‘‘अरे कहाँ मर रहा था, कितनी देर हो गई कुछ पता है तुझे ? तीन से अधिक हो गये हैं, अभी तक कुछ खाया-पिया तू ने ? या गुटखा ही चबा कर जी रहा है ? आ तुझे आज सुधारती हूँ।’’ गुस्से से फनफनाती आई थी सुमित्रा और पीठ पर कई मुक्के जड़ दिये थे।

‘‘कैसे लाल हुईं आँखें ? नदी नहीं गया था न .ऽ...ऽ.? सच बताना नहीं तो मार-मारकर कचूमर निकाल दूँगी !’’

‘‘नहीं दादी, नदी नहीं गया था, वो कल गया था न, जब तुमने मुझे बहुत मारा था, उसी समय से लाल हैं।’’ मंगलू ने सुमित्रा के हाथ से अपने बाल छुड़ाने का प्रयास नहीं किया।

उसकी लाल-लाल मासूमियत भरी आँखों की अदाकारी देख वह रोज की तरह पुनः भ्रम में पड़ गई, पीड़ा उतर आई उसकी आँखों में - ‘‘अरे मेरा बच्चा ! तू ही तो मुझे सताता है, नहीं तो मैं तुझे क्यों मारती ? बता भला ? तेरी माँ सिर पर सब्जी की टोकरी धरे गली गली भटकती है पूरे दिन, तब कहीं जाकर दो जून की रोटी का इन्तजाम हो पाता है, तू बेटा ! तेरह का हुआ स्कूल में तेरे पाँव नहीं ठहरते, आवारा डोलता रहता है। घर से पैसे चुरा कर गुटखा खा जाता है। उसी पैसे से कोई फल खा लेता तो तेरे अंग में लगता, तेरा भाई भी तुझे देख कर बिगड़ता जा रहा है। ऊपर से यह नदी अगोरने का शौक ! लगता है किसी दिन तू हमें जी भर कर रुलायेगा। अभी बाप का दिया घाव रीस ही रहा है, बेटा लगा उसे खुरचने।’’ और न जाने क्या-क्या बड़बड़ाती रही वह।

’’अच्छा चल ! जा मुँह हाथ धोकर आ ! मैं खाना गरम कर रही हूँ। उसे अपने आप पर क्षोभ हुआ। वह रसोई की ओर बढ़ी।

मंगलू मुंँह-हाथ धोकर आया दादी ने बैठा कर पेट भर चांवल सब्जी खिलाया। ऊँच नीच समझतीं रहीं।

‘‘ अब कहीं मत जाना ! तुम्हारी माँ खाना खाने आयेगी तो घर में ही मिलना, नहीं तो बेचैन हो जायेगी। और वह कहाँ है मिन्टू ? लगता है आज भी स्कूल नहीं गया। गया रे दोनों का साल बरबाद हुआ ! क्या लिखा के लाई हूँ करम में जो ऐसी औलाद मिली, जब तक जिया एक पल चैन नहीं लेने दिया, बाद के लिए दो नालायक औलादें छोड़ गया।’’

‘‘दादी आज वह स्कूल गया है, मुझे पता है चिन्ता मत करो ! आज यदि स्कूल न जाकर कहीं कोई बदमाशी करता मिला तो उसकी हड्डी पसली तोड़ कर फेंक दूंगा।’’ उसे अपनी शरारतें भूल कर बड़ों की तरह बातंे करता देख कर सुमित्रा मन ही मन मुस्कुराई।

‘‘तू अपना तो देख पहले; तू ही ठीक हो जाय तो वह भी सुधर जायेगा।’’ उसने कहा था।

‘‘बस, दादी बस ! तुम सब को तो मैं ही सबसे बुरा लगता हूँ।’’ वह दुःखी हो गया था, भोजन करके कुछ देर तक आँगन में बैठा रहा, बिही के पेड़ की छाया मे, दादी काम में लग गई, बरसात का मौसम था, सुबह तेज वर्षा हो चुकी थी, घर की छतें, दीवारें, आँगन, मैदान, सड़कें सब गीली थीं। गड्ढों में पानी भरा था।

थोड़ी दूर पर ही अरपा नदी का परिपथ है, जिस पर एक विशाल पुल बना कर तोरवा से राजकिशोर नगर को जोड़ा गया है। साथ ही यह पुल अरपा के इस पार को उस पार से जोड़ने का काम भी करता है। पुल के इस पार पुराना श्मशान है जहाँ छायादार चबुतरे हैं, श्मशान के पहले ही वह लाल ईंटों का कुँआ है, कहते हैं अंग्रेजों के जमाने में यहाँ सजायाफ्ता को फांसी लगाई जाती थी, उसके पहले सड़क से बहुत नीचे, एक तालाब है, जहाँ हरा जल भरा रहता है, तोरवा भर की गंदगी यहीं डाली जाती है, कभी सिंघाड़े की लताएँ पानी को पूरा छापे रहतीं हैं कभी हरी काई। अब तो इससे सटकर सांई कंस्ट्रक्शन काॅलोनी बन गई है। पहले इधर कोई आता-जाता नहीं था। पुल से थोड़ा सा आगे एक मकान है, बड़ा सा, पुराना किन्तु सही सलामत। कहते हैं इसमें भूत रहते हैं, कहते रहें भाई, मंगलू के लिए तो माँ के आँचल जैसा है, जब भी दादा जी उसे किसी गलती पर मारने के लिए खोजते हैं इसी में छिप जाता है जाकर। आदमियों से अच्छे तो चमगादड़, चूहे, तिलचट्टे है, उससे डरते रहते हैं, न कि मुँह से जहर उगलते हैं। मुँह से निकले जहर का स्वाद बहुत अच्छी तरह जानता है वह, उसी हलाहल की आँच से तो पापा जीते-जागते इंसान से राख बन गये थे, यही तो है वह आँगन, समय भी यही रहा होगा, जब वह स्कूल से आया, दादा जी, जी जान से चीख-चिल्ला रहे थे।

’’नहीं लिखता घर तेरे नाम, जा कमाकर बना ले। पाल अपने परिवार को, पेन्शन के रूपये भी चुरा ले जाता है दारू पीने के लिए। छः आदमी का खर्च है, कहाँ से पूरा करुँगा ? एक घर हैं जहाँ भूखे भी हम इज्जत से सो तो सकते हैं, नाम से कर दूँ ? जिससे बेच-बांचकर खाली हो जा ! बैठा देना औरत को किसी कोठे पर चल जायेगा पेट, बेच देना बच्चों को।’’उनके होंठों के कोनों से फेन निकल रहा था। बूढ़ी काया काँप रही थी।

‘‘हाँ...हाँ... सब कर लूँगा, पहले मेरे नाम तो करो ! हाथ से एक पैसा छूटता नहीं बूढ़े के, मरे भी जल्दी, जगह खाली हो, आज तो मैं फैसला करके ही मानूंगा, घर लिख दो ! नहीं तो मैं अपनी जान दे दँूगा ! यहीं सबके सामने !’’ पापा के हाथ में मिट्टी तेल का डिब्बा था, नशे में थे शायद, जबान लड़खड़ा रही थी, पैर डगमगा रहे थे, मोहल्ले के लोग तमाशा देख रहे थे। वह अपनी माँ के पीछे छिप गया था।

‘‘तेरा जीना मरना बराबर है रे कुपात्र! तेरे जैसी संतान भगवान् किसी को न दे, तेरे तो सारे रिश्तों का एक ही नाम है दारू ! दारू और दारू..! रोज-रोज क्या धमकाता है ? जा जहन्नुम में !’’ बाप बेटे में हाथा-पाई भी हुई थी, जब दादाजी जमीन पर गिर पड़े तब जाकर दादी ने सबसे गोहार लगाई - ‘‘अरे भइया, मुँह क्या देख रहे हो, बचाओ् इन्हें, आज तो यह अनर्थ करके रहेगा, वे स्वयं भिड़ गईं थी बेटे से, किन्तु दूसरे ही पल धक्का खाकर दूर गिर पड़ी।

‘‘कई लोगों ने मिल कर दादा जी को छुड़ाया और पापा को घसीट कर दूर ले गये। ये तो उनकी क्षमाशीलता थी जो अपनी माँ-बहनों से उन्हें रिश्तेदारी करने दे रहे थे।

झगड़ा जरा शांत हुआ। सब अपने-अपने घर गये, अलबत्ता किस्से यहीं के चल रहे थे हर घर में। पापा का गुस्सा शांत नहीं हुआ था, कोई देख नहीं पाया उनको मिट्टी तेल से नहाते, वह तो जब शोले भड़क उठे तब शोर उठा,‘‘दौड़ो...! दौड़ो,! आग बुझाओ, दिलेसर ने आग लगा लीं देह में, कोई कम्बल कोई कथड़ी लेकर दौड़ा, किसी ने दो बाल्टी पानी डाल दिया। आग तो बुझी पर साथ ही दिलेसर को भी बुझाती गई।

‘‘बूढ़े को धन दौलत की माया ने घेर रखा है, बेटा चला गया, परन्तु घर उसे नहीं दिया, अब रहे पसर कर।’’ कोई कहता।

‘‘गुन तो जानते ही हो दिलेसर के, कितने दिन घर अपने पास रखता, कहाँ जाता बूढ़ा सबको लेकर।’’ कोई दूसरा समझाता।

दादा-दादी दिन रात खुद को कोसते, आँसू बहाते, माँ पागल की तरह रोती -चीखती, पहले भी रोती चीखती थी, तब पापा की मार खाकर और अब अपने रंडापे को लेकर, वह भी दादा दादी को दोषी समझ रही थी।

‘‘घर उनके नाम कर देते तो क्या वे खा जाते ? इतने भी मूर्ख नहीं थे, घर को गिरवी रख कर काम धंधे के लिए कुछ रूपया जुटाते, ये तो ऐसा चाहते हैं कि दूसरे इनके आगे हाथ पसारे रहें।’’

बुरी नहीं लगती थी माँ, बिना श्रृंगार के, आज के जमाने की गरीब बेवा, उसके लिए कपड़ा शरीर ढँकने के लिए है रंग चाहे जो हो, सफेद पहनना आवश्यक है तो क्या बिना पैसे के कोई दे देगा ? जो है उसे ही पहनना है। दादा-दादी के प्रति चिढ़ के कारण ही उसने कुछ रूपये खर्च किये जो उसके लिए दिलेसर के काम के समय किसी किसी ने व्यवहार में दिये थे और सिर पर सब्जी की टोकरी उठाये गली-मुहल्ले में घूमने लगी।

‘‘देखो पापी बुढ़वा बुढ़िया को ! जवान बेवा बहू को छोड़ दिया गली-गली भटकने के लिए। इसी गुण के कारण तो दिलेसर गया, इन्हें लात मार कर।’’ चैक-चैराहे पर बातें चलती।

मंगलू को ये सब कुछ अच्छा नहीं लगता, न तो घर न ही स्कूल, दोनों जगह भत्र्सना मिलती। पढ़ाई में शुरू से ही उसका मन नहीं लगा। धर बाँधकर भेज भी दिये दादा दादी तो जब तक स्कूल में रहता कक्षा में किसी प्रकार का काम न होने देता। अच्छा करते भी बुरा होता है उसके साथ।

‘‘आ गये ? आज हो गई पढ़ाई ! कहाँ थे इतने दिन ? दाँतों को क्या हो गया ? तंबाखू गुटखा खाते हो ? कापी पूरी की ? गणित हल किया ? कविता याद है ? चलो पढ़कर सुनाओ ! उसके हर मौन का फल दो चार बेंत, लानत-मलानत !

‘‘मैडम ! मंगलू ने मुझे चिकोटी काटी !’’

‘‘मैडम, मंगलू ने मेरी कॅापी ले ली !’’

‘‘मैडम, मंगलू ने मुझे धक्का दिया !’’

‘‘मैडम, मंगलू ने मुझे गाली दी माँ बहन की !’’

इन शिकायतकर्ताओं में उसका छोटा भाई मिन्टू सबसे आगे रहता।

‘‘मुसीबत में आदमी भाई का ही सहारा लेता है, अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए चिकोटी से अच्छा क्या है ? भाई है जरा सरकाने के लिए छू लिया तो धक्का हो गया। पुस्तक-कापी क्या गैरों की लेता मंगलू ? समझता नहीं है मिन्टू, अधिक बहस का अंत होता है कक्षा में पटका-पटकी, और अंत में मिन्टू का रोते सिसकते मैडम से शिकायत करना और मंगलू का बस्ता छोड़़ कर आधी छुट्टी में भाग जाना। बस्ता मिन्टू ले ही आता।

वह पुल के पास पहुँच कर ऊपर से नदी को अपलक निहारा करता, ऊँची-नीची लहरें, एक दूसरे के पीछे न जाने कहाँ पहुंचने की जल्दी में रहती हैं। आपस में गले मिल-मिल कर न जाने क्या कहती हैं, कभी हर-हर की आवाज तो कभी छल-छल, कल-कल। बरसात में जब मोटी-मोटी बून्दे पानी पर गिरती तो विष्णु जी के चक्र के समान छोटी से बड़ी और बड़ी होती जातीं, बरसात के कुछ दिन ही ऐसे होते हैं जब अरपा पाटो-पाट होती हैे, वर्ष के ज्यादा दिन वह सूखी रहती, अपने रेत के आँचल के नीचे जल छिपाये जैसे दादी पेंशन के कुछ पैसे पेटी में छिपा कर रखतीं हंै, आपद-विपत के लिए। पुल के पास कम से कम इतना पानी तो रहता है कि मवेशी पी लें या तोरवा के शरारती बच्चे कूद-कूद कर नहा सकें, हवा चलती तब शरीर में ठंडी झुरझुरी होने लगती। नदी का पानी हवा की दिशा में लहरों के साथ डोलता दिखाई देता।

श्मशान में आये दिन कोई न कोई चिता जलती जिसका धुंआ आस-पास फैलता, इस धुंए की आदत सी पड़ गई है उसे। खास करके तब से जब से भटे जैसे भ्ंाुजाए पापा को यहाँ फिर से जला कर राख किया गया। वह लाया गया था मुखाग्नि के लिए। तूफान में पेड़ों की डालियाँ ऐसे हिलती जैसे होली में नगाड़ा बजाते समय पापा के बाल ऊपर नीचे होते लहराते और फिर अपनी जगह पर आ जाते। वह भींगता हुआ या तो पुल पर टहलता या, पुल की दीवार पर बैठ जाता। फिर घाट पर जाकर घंटों नहाता, तैरता। नदी हर खेल में उसका साथ देती, उसका हर स्पर्श प्यारा लगता उसे। कभी सांसे रोक कर अन्दर ही अन्दर दूर निकल जाता, कभी किनारे से दौड़कर कूदता नदी में, फुहार सा उठाता तेजी से हाथ पैर चलाता।

उसके कुछ और भी साथी बन गये, उस दिन नहाने के बाद मंगलू पुल की दीवार पर बैठा सोच रहा था कि शाम हो गई है, आँखें एकदम लाल और बरौनियाँ सीधी तन गई हैं, दादी दादा समझ जायेंगे कि वह नदी गया था, डरते है न, उसके डूब जाने की आशंका से। आने-जाने वाले दादा जी को बता आये कि मंगलू पुल पर अकेला बैठा भींग रहा है।

वे तत्काल छाता लिए पुल की तरफ निकले, उनके एक हाथ में छड़ी थी, वे चिल्ला-चिल्लाकर गालियाँ दे रहे थे - ’’हराम खोर, लुच्चा......मरेगा, बीमार पड़ेगा तो इसका बाप आयेगा नरक से इलाज कराने, अपना पिण्ड छुड़ा गया, मुझे इन कमीनों के चक्कर में डाल गया। आज तो इसे सुधार कर ही दम लूंगा, जीये चाहे मरे।’’ उनकी तेज चाल बता रही थी कि आज मंगलू की खैर नहीं।

दांईं तरफ देखा तो ट्रकों की लाइन लगी थी, शायद एन.टी.पी.सी. के लिए मशीने आ रहीं थीं, विशालकाय अनगिनत चक्कों वाली, थोड़ी सी जगह बची थी, जिसमें राजकिशोर नगर से लोग आ रहे थे, तोरवा की ओर दादा जी। कुछ समझ में नहीं आया था मंगलू को। आव देखा न ताव, झप्प से कूद पड़ा भरी पूरी अरपा में। कूदते ही तैरने लगा। शिव मंदिर के आगे जाकर तैरता हुआ किनारे पानी से बाहर निकल आया। इतनी ऊँचाई से कूदने के बाद भी उसे कोई चोट नहीं आई थी। उसने कपड़ों से पानी निचोड़ते हुए सहमी दृष्टि पुल के ऊपर डाली। उसे लगा वहाँ बड़ी भीड़ जमा है। दादा जी की उपस्थिति का आभास नहीं हुआ उसे।

लगता है कोई दुर्घटना हुई, वह दादा जी का गुस्सा भूलकर दौड़ पड़ा पुल के ऊपर। जा कर देखता है तो दादा जी बेहोश पड़े हैं। लोग उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहे थे।

‘‘मैं तो हवन की राख ठण्डा करने आया था। कुछ गिरा नदी में, बस ये ‘‘हाय मेरा बच्चा।’’ कहकर गिर पड़े।’’ एक व्यक्ति बता रहा था।

‘‘हटो.!..हटो !..... सब लोग ! मेरे दादा जी हैं ये! ’’ सबको हटाता, मंगलू दादा जी के पास पहुंच गया।

‘‘दादा जी आँखें खोलिए, मुझे कुछ नहीं हुआ !, मैं ठीक हूँ।’’ वह उन्हें होश में लाने की कोशिश करने लगा। फिर रिक्शे में डाल कर पास ही स्थित जे.जे. हॅास्पिटल ले गया था।

होश में आने के बाद दादाजी का रोना मंगलू को अपराध - बोध से ग्रसित कर गया था।

‘‘मेरे बच्चे ! तुम्हीं लोगों को देख कर हम अपने बेटे का ग़म सह कर भी जिन्दा हैं, आज यदि तुझे कुछ हो जाता तो...? हम तुझे खतरे से बचाना चाहते हैं, और तूने.... तूने.... छलांग लगा दी ?’’

‘‘मैं नदी के बारे में जानता हूँ दादा जी, आपके गुस्से से डर गया न मैं !’’ मंगलू भी रोने लगा थां

उसे लगा था कितना प्यार करते हैं वे उससे, रोज-रोज की डाँट डपट के अन्दर आखिर इतनी कोमलता कैसे छिप जाती है ?’’

दादा जी अच्छे हो गये। किन्तु मंगलू को रोमांच का जो नया अनुभव उस दिन हुआ उस अनुभव से वह रोज गुजरना चाहता था। जब तक नदी में पानी रहता, सुबह से शाम तक वहीं डेरा रहता, अनगिनत बार पुल से छलांग लगाता, तैरता हुआ दूर तक निकल जाता, फिर पुल के पास से ऊपर चढ़ता फिर छलांग लगाता, उसकी देखा देखी उसका मित्र संजू भी पुल से छलांग लगाने का अभ्यास करने लगा। कई लोग पूजन सामग्री ठंडा करने आते ये दोनो ंउन्हें फिसलन, कीचड़ से बचाते हुए उनकी सामग्री बीच धार में ले जाकर ठंडा कर देते। कुछ फल मिठाई या कुछ रूपये उन्हें मिल जाते जिससे नाश्ता कर पुनः डट जाते मोर्चे पर। दादा जी अब तो उससे कुछ बोलते हुए भी डरने लगे थे।

‘‘बाप पर ही गया है साला, जाय जो करता है करे, नहीं पढ़ेगा तो मत पढ़े ,जीये दुनिया में, रिक्शा तो चला ही लेगा। वे हारे स्वर में बुदबुदाते।

उस दिन शाम ढले मिन्टू आया, परन्तु मंगलू को उसे मारने का अवसर न मिला। वह माँ के सिर की टोकरी उठाये आ रहा था। बिकने से बची सब्जियाँ थी, उसमंे खराब होने वाली सब्जी बनायेगी माँ, बची हुई सुबह बेचती हुई बाजार जायेगी। फिर नई सब्जी खरीद कर बेचती घर पहुंँचेगी। वह घर में ही बना रहा, बिना किसी लड़ाई झगडे़ के।

मिन्टू बीच-बीच में स्कूल चला जाता, पढ़ने में तो वह भी मंगलू जैसा ही था, किन्तु शरारतों में कुछ पीछे था। सरकार की फेल न करने वाली नीति के सहारे, मिन्टू सातवीं पास हो गया। मंगलू लटक गया, अपनी हेकड़ी के कारण-परीक्षा के दिन भी देर से पहंुचा था, शिकायतें आ रहीं थीं, शिक्षिका ने कुछ डाँट-फटकार लगाई, बस कापी पेन फेंक कर भाग खड़ा हुआ। बाकी दिन अनुपस्थित रहा, जिसके कारण वह कक्षा सात में ही रुक गया। दूसरे वर्ष उसने स्कूल जाने वाले रास्ते से गुजरना भी मुनासिब न समझा। पुल से कूदने के साथ और कई तरह के पाठ वह पढ़ रहा था, घूम-घूम कर । उसने शराब चख कर देख लिया ।

‘‘कैसा स्वाद होता है कि लोग जान दे देते हैं इसके पीछे ?’’ वह सोचा करता, अब तो माँ मिन्टू को भी उसके साथ न रहने की हिदायत देती रहती।

‘‘उसके साथ घूमेगा तो तू भी स्कूल छोड़कर बैठ जायेगा। कम से कम जीने खाने लायक तो कुछ पढ़ लिख ले। उसे आघात लगता, चुपचाप सहता, वह उखड़ता तब तो पूरा परिवार खामोश रह जाता।

गणेश विसर्जन का दिन था, लोग बाजे गाजे के साथ आ रहे थे, पूरा वातावरण गणपति बप्पा के जयकारे से गूंँज रहा था, छठ घाट बिजली की रोशनी से नहाया हुआ था। दोनों मित्र सुबह से ही डटे हुए थे। खाने को प्रसाद, नाचने को डी.जे. का कान फोडू संगीत, कोई .गम नहीं दुनिया में, जीवन, नृत्य, संगीत और खुशी है, बहुत सुन्दर है जीवन, फिर क्यों भाग जाते हैं लोग इससे दूर ? पापा क्यों भाग गये ? उसने इस प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ा था। नाचते-नाचते थक गया तो नदी की धार में तैरने लगा। उससे जी भर गया तो पुनः पुल पर आ गया। उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं था, और वह सारी खुशियों का अनुभव कर लेना चाहता था।

’’गणपति बप्पा मौरिया, अगले बरस तू जल्दी आ.!’’...

‘‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए।’’

‘‘कहन लगे मोसे बब्बा कहाँ गौ चिलम तम्बाखू को डब्बा।’’ गाने बज रहे थे, लोग सुध बुध भूले नाच रहे थे, भीड़ इतनी कि जे.जे. हास्पिटल के पास से लेकर पूरा पुल, छठ घाट, जैसे केवल जन सैलाब, एक-एक गणेश जी की मूर्ति धीरे-धीरे अपनी अपनी झाँकियों के साथ जल तक पहुँचती, और फिर कई लोग मिलकर गहरे जल में मूर्ति विसर्जित कर मूर्ति के अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र आदि ले कर जैकारे के साथ तट पर आते, गुलाल की तो जैसे वर्षा हो रही थी। कीचड़ में कोई फिसल कर गिरता, कोई सम्हालता, फिर कोई गिरता....। मंगलू बड़े ध्यान से देख रहा था सब कुछ।

‘‘अरे ! ये क्या ? उस आदमी को देखो ! तेज धार में बहने लगा, डूब रहा है लगता है !’’ वह कूद पड़ा था पुल से नदी में, डूबने वाले को जा पकड़ा था उसने, संयोग से उस व्यक्ति के बाल आ गये थे मंगलू के हाथ में, उसे खींचता तट तक ला रहा था।

तट पर खलबली मच गई थी।

‘‘अरे ! वह डूब रहा है, एक बच्चा कूदा है बचाने, भगवान् उसकी रक्षा करे, और भी तैराक कुछ करने की सोच रहे थे, तब तक हाँफता-हाँफता मंगलू उस व्यक्ति को तट तक खींच लाया था। वह एक अधेड़ व्यक्ति था, लगता है तेज धार के कारण पैर उखड़ गये थे उसके, और वह डूबने लगा था, वह बहुत पानी पी चुका था। मीडिया वालों ने घेर लिया मंगलू को, धड़ा-धड़ उसकी तस्वीरें खींची जाने लगी। टी.वी. पर लाइव प्रसारण होने लगा।

‘‘देखिये कैसे इस बहादुर बच्चे ने एक व्यक्ति की जान बचाई, अपनी जान पर खेलकर, अभी अभी सी.सी.एन., आदि चैनलों के संवाददाताओं ने उससे कई तरह के प्रश्न पूछे थे, ‘‘आप कैसे यह सब कर सके।’’

‘‘बस एक डूबते हुए व्यक्ति को बचाया मैंने, और कोई बात नहीं है।

‘‘आपने, तैरना कैसे सीखा ? क्या नाम है ? कहाँ पढ़ते हैं ? कहाँ रहते हैं, तरह-तरह के प्रश्न थे, परन्तु प्रश्न वैसे नहीं थे जिनका उत्तर मंगलू के पास न हो, वह पल में हीरो बन गया था। पुरस्कारों की झड़ी लग गई,। टी.वी. देख कर घर एवं मोहल्ले के लोग भी उसे ढूढ़ते आ पहुँचे, उसे कंधे पर उठा लिया गया था। डूब रहे व्यक्ति की जान बच गई थी। प्रभारी मंत्री ने अपने हाथों उसे एक हजार रूपये का पुरस्कार दिया ।

स्कूल के शिक्षकों को गर्व हुआ था अपने स्कूल के विद्यार्थी पर। उस वर्ष गणतंत्र दिवस पर उसे राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। मिन्टू के साथ माँ भी गई थीं रायपुर, जब उससे पूछा गया कि तुम क्या चाहते हो, तो उसने कहा था ‘‘मैं अपनी माँ के साथ हेलीकाॅप्टर से आकाश की सैर करना चाहता हूँ।’’

उसने आकाश से धरती को देखा था, भवन, मैदान, पेड़, पौधे, बहती नदी, घरों की छत पर पतंग उड़ाते बच्चे, माँ के चेहरे पर छाई प्रसन्नता की लाली, मिन्टू का खिलंदड़ापन, उसे सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था, उसमें भी कुछ ऐसा है जिससे किसी का भला हो सकता है, वह अपनी माँ को खुशी दे सकता है, उसका जीवन धरती का बोझ नहीं और उसके मन से मैल की सारी परतंे उतर गईं। राज्यपाल महोदय ने कहा था ‘‘तुम्हें पढ़ाई पूरी करनी है, तुम्हें पुलिस में नौकरी देंगे हम। हमें बहादुरों की जरूरत है। जितना मन करे पढ़ो, स्कूल रोज जाओ, तुम्हें कोई फेल तो कर ही नहीं सकता, सबका आशीर्वाद है तुम्हारे साथ।’’

‘‘ये क्या हुआ ? एक अच्छे काम के बदले उसकी आजादी छीन गई। मिली हुई प्रतिष्ठा को वह खोना नहीं चाहता। किताबों से उसे कुछ नहीं मिल सका था अब तक, घेर घार कर फिर वहीं ले आये लोग, जब आता नहीं तो कैसे पढ़े ? बड़ी परेशानी में फंसा था मंगलू।’’ दादाजी ने उसे पढ़ाना शुरू किया था। वे गौरवान्वित हो उठे थे अपने पोते के कार्य से।

पुलिस में नौकरी मिली थी उसे, इन्टर पास होने के बाद। ट्रेनिंग के बाद नक्सली क्षेत्र बीजापुर में पद स्थापना हुई थी उसकी।

जीवन के भवन पर कई रद्दे चढ़े, नया बनता गया सब कुछ। मिन्टू पढ़ लिख कर नौकरी करने लगा, माँ नाती पोतों में अपने सारे दुःख भूल गई, उस दिन हेलीकाॅप्टर में घूमते हुए जो चमक थी उसके चेहरे पर वहीं तो मंगलू के दिल के अंधेरे में रोशनी बन कर उतर गई थी। वह चाहता था माँ हमेशा इसी प्रकार खुश रहे। दादा-दादी परम धाम के वासी हो गये। नये घर में रहती है माँ, दरवाजे पर सब्जी खरीदती है पकाने के लिए।

वन, पर्वत, नदी, नाले, भयानक मच्छर, बीमारियाँ, नक्सलियों द्वारा किया गया रक्तपात, संगी साथियों की शहादत, सब कुछ है यादों की पिटारी में।

एक दिन जैसे उसे तटस्थता के बाद भी पुलिस में लिया गया था, वैसे ही एक दिन विभाग से विदा कर दिया गया। फर्क है कुछ तो दोनों विषयों मे, पहले वह खाली हाथ आया था विभाग में, सब्जी बेचती, महतारी, पेंशन पर जीते दादा-दादी, एक बेरोजगार भाई, टूटा-फूटा घर,,जिसमें पापा के जलने की चिरायंध गंध बसी थी। एक दुबला पतला, लंबा सा नौजवान जिसके हौसले की परीक्षा हो चुकी थी।

बिदाई के समय, वह एक अधेड़ व्यक्ति था, जिसकी दाढ़ी मूंछों में सफेदी झलकने लगी थी। बहुत सारा रूपया, मान प्रतिष्ठा लेकर वापस आया था वह। आज फिर बैठा था तन्हा, उसी पुल पर जिसने उसकी जिन्दगी बदलने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, नदी का मटमैला जल लहरों के साथ उछल-उछल कर तरह तरह के रूप धर रहा था, जैसे अभिनेत्रियाँ हर पल अपना रूप बदल कर नये नये खेल दिखाती हैं।

‘‘सब कुछ बदला, तुम न बदली,

वैसी ही शांत, सब कुछ सहतीं,

जब तक रस है बहती जाती।

रीत जाती जब नीर की दौलत,

सफेद चादर ओढ़े सोयी रहती।

कोई खड़ोरे सीना,

कोई पटके गाड़ी भर मैला,

कोई डाले खाक, देह की,

फूल समझ सब सहती जाती,

हजारों पीढ़ियाँ आईं गईं,

खाक र्हुइं,

तुम जस की तस हो,

हर हाल में सुन्दर हो,

सौम्य, निष्पक्ष,

सब की साक्षी,

वेदना सोई है तुममें,

खुशियाँ पाई हैं यहीं।

मन होता है एक सुन्दर कविता

लिखूं तुम पर

पर शब्द कहाँ से लाऊँ ?

मैने तो सदा तुम्हें पढ़ा,

तुम्हें ही समझा

तुम्हें ही जिया,

नदी ! अपनी भाषा सिखला दो !

मैं कुछ गाना चाहता हूँ,

तुम्हारे साथ-साथ।

‘‘अरे मंगलू बेटा तू यहाँ आकर बैठा है ?’’ मिन्टू तुझे खाना खाने के लिये कब से ढूंढ़ रहा है। माँ चली आई थी पुल तक।

‘‘चल जल्दी !’’उसने मंगलू की ओर देखा।

माँ सहम गई, बिजली के प्रकाश में उसने माँ के चेहरे पर फैलता अंधेरा देखा। उसके हाथ अपनी बैसाखियों की ओर बढ़ गये।


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