Tulsi Tiwari

Inspirational

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Tulsi Tiwari

Inspirational

साधना

साधना

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कभी - कभी सब कुछ उम्मीद के विपरीत ही होता है ,अच्छा हो या बुरा। कई दिनों तक मन मानने को तैयार ही नहीं होता कि वह सब कुछ अब नहीं रहा जो कल तक था। कहाँ वे दिन जब सुधाकर उसके आगे पीछे घूमता हुआ दिन रात बिता देता था कहाँ आज का दिन उसके मुँह से साधना शब्द निकलता ही नहीं । वह उसका नाम पुकारती रह जाती है और वह चाबी भरे खिलौने की तरह चला जाता है, जिधर उसे जाना होता है । जैसे उसके जीवन का एक मकसद पूरा हो गया हो और उसने दूसरा मकसद तय कर लिया हो, मालिनी! हाँ मालिनी है वह लक्ष्य जिस तक वह पहुँचना चाहता है शायद। कुछ महीने ही हुए स्कूल में आये। पड़ोस में ही रहने लगी है किराये का मकान लेकर , देखने सुनने में एकदम साधारण, कपड़े लत्ते का भी कोई ख्याल नहीं, बस आँखों पर चश्मा चढ़ाये दिन रात किताबों में सर दिये रहती है। सुना है गला बहुत अच्छा है, अपनी लिखी कविताएं ही गाती है , पिछले गणतंत्र दिवस पर एक कविता लिखा था उसने, बच्चों को सिखाते- सिखाते खुद ही गाने लगी थी , उसी समय से तो बौरा गया सुधांशु, सुना है इसके लढ्ढरपन के कारण ही ससुराल में गुजर नहीं हुई, वह तो अंधे के हाथ बटेर की भाँति शिक्षा विभाग में शिक्षिका बन गई । चल पड़ी इस फूहड़ के जीवन की गाड़ी, कौन है जो इसका मजाक नहीं उड़ाता? एक इस अक्ल के अंधे के सिवा? उम्र में तो दसो साल बड़ी होगी, कोई चिंता फिक्र नहीं है इसलिये कम उम्र की लगती है।

 यह तो हर समय गाड़ी लिए खड़ा रहता है दरवाजे पर , कहाँ जा रहीं हैं मैडम? मैं भी तो उधर ही जा रहा हूँ, आइये छोड़ देता हूँ ’’ बैठ जाती हैं मैडम क्लीयोपेक्ट्रा, अपने घर की जरूरतों का कोई ध्यान ही नहीं रह गया जैसे इसे।

 ’’ठीक है जी, आप के स्टाफ की हैं, परिवार जैसा होता है स्टाफ , लेकिन परिवार तो परिवार ही होता है, उसकी कुछ जरूरतें होतीं हैं, दस साल से आप घर परिवार वाले हैं, कभी ऐसी लापरवाही नहीं देखी मैंने , अब ऐसा क्या हो गया, बेटे को स्कूल छोड़ने मैं जाऊँ, किराने का सामान मैं लाऊँ, नाई - धोबी, गैस, बिजली बिल सब मैं पटाऊँ, आप स्कूल के बाद ओवरटाइम में लगे रहते हैं, ऐसा कब तक चलेगा?’’ कुढ़ती रहती थी वह मन ही मन, अच्छी खासी नौकरी थी उसकी, रेडीमेड कपड़े की कंपनी में ,उसी से तो चलाती थी वह अपना जीवन ,सुधांशु ने उसे पसंद किया सब कुछ जानकर भी, उसके माँ- बाप का तलाक हुए वर्षों हो गये, हास्टल में रहकर उसने अपनी पढ़ाई पूरी की। मैट्रिक पास होते न होते इधर वह अठारह की हुई उधर पापा व्यापारिक मंदी के चलते नौकरी से निकाल दिये गये। उसे नौकरी करनी पड़ी, जीवन चलाने के लिए। सुधांशु पुरानी जान पहचान में था, साधना ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। कभी पछताने का मौका नहीं दिया दोनों ने एक दूसरे को। जब से अंशु उनकी जिन्दगी में आया दोनों का जीवन और खुशगवार हो उठा। लेकिन अब ? ’’ हे ईश्वर कहीं माँ- बाप की कहानी दोहराई न जाय उनकी जिन्दगी में। मन में शंका का नाग फन फैला कर जहरीली हवा छोड़ने लगा था ।

जनवरी से ही समाचार आने लगे थे एक नये वाइरस के, जो चीन के वुहान शहर में जन्म लेकर सारी दुनिया में फैलता जा रहा था, मार्च तक देश में भी इसके मरीज मिलने लगे थे। बड़ी सावधानी बरती जाने लगी, आधी अधूरी परीक्षाएं हो पाईं थी कि सब कुछ बंद! बस घुसे रहो घर में, न किसी के घर आओ न जाओ! जब देखो तब लाॅकडाउन प्रधान मंत्री से लेकर आम जन तक कोरोना की माला जपने लगा था। कुछ समय के लिए दुकानें खुलतीं लोग मास्क लगाये दौड़ पड़ते आवश्यकता की वस्तुएं लेने। साधना को लगा था बीमारी उसके घर की खुशियाँ लौटाने आई है, अब कैसे जायेगा सुधांशु मालिनी के घर , क्या उसे जीवन का मोह नहीं है?

उसकी उम्मीद गलत साबित हुई ,अब वह घर के काम में मदद करने की बात तो दूर जब तक घर में रहता उसकी लानत मलानत ही करता रहता, अंशु को मार बैठता ।

 ’’ कहता हूँ न घर से बाहर बिल्कुल मत निकलो! बच्चे को संभाल नहीं सकती? जरा सा मैं बाहर निकला नहीं कि पापा-पापा करता पीछे दौड़ जाता है, कहीं कुछ हो गया तो कितनी दुर्गति होगी कुछ सोचा है तुमने ? जाकर देखो अस्पताल में? क्या गति हो रही है मरीजों की , मरने के बाद लाश भी नहीं मिलती घर वालों को, बड़े- बड़े लोग मर रहे हैं फिर हम क्या हैं ? चल रे ऽ हेंडवाश से हाथ धो ! तेरी माँ तो बस पढ़ी- लिखी गंवार है, रोज सुन रही है , बच्चा- बच्चा जान गया है लेकिन इसे कौन समझाये ?’’

 ’’ बहुत समझदार हो गये हो, जब से समझदार के साथ रहने लगे, घर से न निकलूँ तो भोग कहाँ से लगाओगे , गरम- गरम! बैठाने और ही- ही बक- बक के लिए सब हैं, पका कर देने वाला कोई हो तो जानूँ।’’ वह भी बिफर गई थी। गले तक भरी हुई तो पहले से ही थी।

’’ कौन कहता है कि पकाकर दो ? बैठो न चुपचाप देखो तुम से अच्छा ही बनाकर खिला दूंगा।’’ वह लज्जित हो गया था, शायद अंशु के सामने इस ताने को सुन कर। वह चुपचाप अपना काम करती रही थीं । वह चुपचाप सोया रहा , उसने बड़ी मुश्किल से खाने के लिए उठाया था--’’तुम्हें किसी से मेल मुलाकात पर इतना एतराज है तो ताले में बंद करके रखो मुझे और मैं तुम्हें, देखो, कितने दिन चलता है जीवन।’’ उसने उदासी भरे स्वर में कहा था । साधना को अपनी ज्यादती पर पश्चाताप हुआ। ’’ स्टाफ में सब एक दूसरे से घुल- मिल कर रहते हैं, वह स्वयं भी तो नौकरी के समय स्टाफ वालों से खुलकर हँसती बोलती थी, उसे अपना घर बचाने के लिए मालिनी नाम की बाधा से समझौता करना ही होगा अपने लिए नहीं तो अपने अंशु के लिए।

दो दिन तक वह घर पर ही बना रहा सामान्य सा , उसके मन से शक के अक्षर कुछ धुंधले हुए थे। लेकिन तीसरे दिन वह स्वयं ही आ धमकी, साधना तो उससे लड़ने का मन बनाये बैठी थी, लेकिन उसे अवसर नहीं मिला दरवाजा सुधांशु ने खोला , उसे देखकर एक बार तो अकबका गया,‘- ’’ आप ने क्यों कष्ट किया मैडम ? मुझे बुलवा लिया होता ! दरवाजे पर ही वह पूछने लगा।

’’ रास्ता तो छोड़िये सर! मुझे आप की चिंता होने लगी थी, महामारी का दौर है कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई?’’ उसे हटना ही पड़ा दरवाजे से। शायद साधना से डर रहा था, वह कहीं कुछ कह बैठी तो बना बनाया संबंध बिगड़ जायेगा। वह सहज ढंग से अंदर आई कुर्सी पर बैठ कर उससे बातें करने लगी। साधना ने हाथ जोड़ कर उससे नमस्ते कहा और एक नजर ऊपर से नीचे तक डाली। वह सूती साड़ी शायद सुबह नहाकर उसने पहना होगा,साड़ी का आंचल कंधे से घूम कर सामने आया हुआ था, कहीं कोई बनाव सिंगार नहीं, कलाइयों में एक- एक चूड़ी, बस हो गया मेकअप। कोई कहेगा कि यह पगली सी दिखने वाली औरत कहीं पढ़ाती है? और सुधांशु क्या उसके जैसी फैशनेबल बीवी को छोड़कर इसका पल्लू पकड़ लेगा? उसे तरस आया अपनी बुद्धि पर।

’’मुझे साधना मैडम से मिलना था, आप ने तो कभी कहा नहीं कि चलो मिला देता हूँ । मैं अक्सर सोचा करती थी, कि आप स्कूल का काम, बाहर का काम, मुझ जैसों की सहायता आदि कैसे इतनी अच्छी तरह कर लेते है? अब समझ में आया यह सब साधना की साधना है, जिसके घर में इतनी अच्छी बीवी हो वह सब जगह सफल होगा ही होगा , वह मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा कर रही थी, और साधना पानी- पानी हुई जा रही थी ’’ यदि इसे पता चल गया कि मैं इसे अपनी सौत समझती हूँ तो!....

’’ आप लोग बैठो! मैं आप लोगों के लिए चाय बनाकर लाती हूँ !’’ वह अपने को संभालने की गरज से कीचन में आ गई थी।

 तब से वह अक्सर घर आने लगी थी, अब वे तीनों एक साथ बैठने लगे थे वह उसके कपड़ों का ध्यान रखने लगी थी और वह उसे अपनी नई कविताएं सुनाने लगी थी। महामारी ने कहर बरपाकर दिया, एक- एक दिन में पचास’ पचास हजार लोग संक्रमित होने लगे, जुलाई में तो और हालत बिगड़ने लगी, इधर जब नहीं तब बरसता पानी और उधर रोज- रोज बढ़ते मरीज! सारे अस्पताल भर गये, कहीं- कहीं तो ट्रेन के डिब्बो को अस्पताल के रूप में विकसित किया गया है । जो लोग घर से बाहर थे वे घर नहीं पहुँच पा रहे हैं, मर जाने पर शव भी नहीं मिलता घर वालों को । उसने सावधानी बढ़ा दी थी। एक मालिनी ही थी जिसके घर सुधांशु आता जाता था , और वह कभी- कभी साधना से मिलने आती थी। वह तो इससे भी डरती रहती थी। क्या करे सुधांशु की भावना उसकी समझ से परे है, वह तो संकोच में ही मर गई, वह जानती है कि उसका अपना भी कोई सहारा नहीं है पति के सिवा। हर हाल में उसका पति उसका रहे यह उसका प्रयास था।

’’ साधना! ओ साधना! ये लो नाश्ता आ गया तुम्हारा, ।’’ कमरे के बाहर से आवाज दे रहा था सुधांशु। उसका मन हुआ दौड़ कर जाये और उसके सीने से लग जाय, किंतु दूसरे ही पल जैसे उसके पैरों में जंजीर पड़ गई हो-’’ नहीं ! वह अपने पति से दूर ही रहेगी , वह अपने सुहाग की हत्यारिन नहीं बन सकती।’’ उसने अपने कानों पर हाथ लगाया चेहरे पर मास्क सरकाया और उस प्लास्टिक की टेबल को दरवाजे पर सरकाया जिस पर डंडे में बंधा टिफिन रख देता है सुधांशु और वह उसे अंदर खींच लेती है , दरवाजा बंद हो जाता है, आँसू भरी आँखों से डिब्बा खोल कर वह अपना नाश्ता खाना खाती है ,फिर बर्तन अच्छी तरह मांज कर सेनेटाइज करके रख देती है, दरवाजे के बाहर एक हीटर रखा हुआ है, वह हाथ बढ़ा कर अपने बर्तन उसी पर रख देती है, कुछ घंटे बाद सुधांशु आकर कुछ मिनट के लिए हीटर चला देता है हीटर बंद करने के बाद जब बर्तन ठंडा हो जाता हैे तब वह उसे उठा कर ले जाता है ताकि फिर से खाना ला सके। उसने आज भी इसी विधि से अपना नाश्ता लिया। अपने बच्चे को देखे आज पूरे चैदह दिन हो गये, पता नहीं कहाँ छिपा दिया, सुधांशु ने उसके बच्चे को, उसे क्या पता था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा जब वह अपने पति- पुत्र की काल बन जायेगी? वह जिस घर की मालकिन थी जिसे बचाने के लिए उसने सब कुछ सहना स्वीकार किया, वही घर उसके लिए कैदखाना बन जायेगा। दिल्ली के द्वारिका मोड़ के पास ही तो है यह अपार्टमेंट जिसकी दूसरी मंजिल पर यह एक कमरे का घर है उनका । इसी एक कमरे में उनका जीवन चल रहा था अब तक। इसी में प्रसाधन और एक ओर छोटा सा कीचन,दो लोगों के लिए कोई कम भी नहीं था दिल्ली जैसे शहर में , दरवाजे के सामने ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं, थोडी सी जगह है सीढ़ियों के नीचे, वहीं तो रह रहा है आज-कल सुधांशु, मालिनी के यहाँ से उसके लिए नाश्ता खाना लाता है, सुलभ कांप्लेक्स में नहाता है, सब कुछ सोच- सोच कर उसका दिल घबराता रहता है, कभी जब बहुत चिंता होती है तो उससे फोन पर बातें करती है, उसने देखा आज टिफिन में गाजर का हलवा और प्याज के पराठे थे, उसकी पसंद वाली करोंदे की चटनी भी थी , उसने मन लगा कर खाया। रोज की तरह बर्तन बाहर रख कर सुधांशु को फोन करने लगी।

’’ कहाँ हो?’’

 ’’ बस वहीं जहाँ रोज रहता हूँ , बताओ नाश्ता कैसा रहा तुम्हारा?’’ उधर से सुधांशु बोल रहा था,।

’’ बहुत अच्छा था तुमने कुछ खाया या नहीं?’’

 ’’ मेरी चिंता मत करो ! मैं तो खाता ही रहता हूँ।’’

’’ कब इस जेल से मुक्ति मिलेगी, मेरा जी बहुत ऊब गया है, मन होता है खिड़की से कूद कर कहीं भाग जाऊँ।’’ उसका गला रुंध गया।

’’ अब क्या है ,कल सेंपल ले गये हैं अस्पताल वाले, आज शाम तक रिर्पोट आ जायेगी और पक्का है कि तुम्हारी रिर्पोट निगेटिव ही आयेगी, मुझे पूरा विश्वास है इस बात का। ’’ वह विश्वास से भरा हुआ था।

’’ भगवान करे ऐसा ही हो , वैसे मेरी तबीयत तो दवाई शुरू करने के दो दिन बाद से ही ठीक लगने लगी थी, अब तो एकदम ठीक हूँ।’’ वह भी इसी उम्मीद थी कि वह स्वस्थ हो चुकी है।

अपने से अधिक उसे अंशु और सुधांशु की फिक्र थी, आज से चैदह दिन पहले अपार्टमेंट में कोरोना टेस्ट करने वाले स्वास्थ्य अधिकारियों की टीम आई थी , कुछ लोगों ने उनसे झगड़ा कर लिया और वे लौट गये , जिनका टेस्ट नहीं हो पाया था उन्हें अस्पताल जाकर टेस्ट कराने की हिदायत देकर। उस दिन सुधांशु को बुखार हो गया था अंशु भी जुखाम से परेशान था उसे लगा उसे भी जुखाम की शिकायत होने वाली है, इसीलिए खाने में कोई स्वाद नहीं आ रहा है। और तो और मालिनी मैडम को भी हरारत हो गई थी। उन्होंने एहतिहातन लोकनायक जयप्रकाश हाॅस्पिटल जाकर जाँच करा लेना उचित समझा। अस्पताल घर कोई बहुत दूर नहीं है, सबेरे ही पहुँच गये थे वे लोग। उनकी सोच थी कि वहाँ भीड़ भाड़ नहीं होगी, जल्दी ही वापस आ जायेंगे, लेकिन वहाँ तो लंबी लाइन लग चुकी थी । दूर -दूर सब के लिए गोले बने हुए थे। वे भी खड़े हो गये । दिन चढ़ने के साथ ही धूप तेज हुई, खड़े होना सजा से कम नहीं था , अस्पताल में भर्ती मरीजों के परिजन उनका समाचार लेने पहुँचे हुए थे, अंदर जाने की किसी को अनुमति नहीं थी। कोई जोर- जोर से रो रहा था तो कोई समझा रहा था। सबके चेहरे फक्क! अगले पल न जाने क्या सुनने को मिल जाय? कुछ लोग अच्छे होकर हास्पीटल से डिस्चार्ज होकर बाहर निकल रहे थे, उनसे अंदर का समाचार जानने के लिए कई लोग उनकी ओर दौड़े पड़ रहे थे।

 ’’अंदर का हाल बताओ भैया?’’

 ’’बड़ा बुरा हाल है, पलंग खाली नहीं है, लोग जमीन में पड़े है, इतने मरीज है कि डाॅक्टर सबके पास तक पहुँच भी नहीं पाते, कोई बगल में मरा पड़ा है, कोई पानी- पानी कर रहा है, कोई सांस नहीं ले पा रहा है, गंदगी भी बहुत है। कुछ कहो तो वे काम बंद कर देने की धमकी देने लगते हैं, भगवान् भरोसे है सब कुछ भैया।’’ आदमी भीड़ से निकलकर ऐसे भागता जैसे पीछे कोई पागल कुत्ता पड़ गया हो। लोग नये खबरची की प्रतीक्षा में निकास द्वार की ओर देखने लगते, कुछ बुखार से तड़पते, सांस न ले पाने वाले मरीज अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। वहाँ तो सब को अपनी ही पड़ी थी, दूसरों के बारे सोचने की फुरसत किसे थी। जीवित मनुष्यों का हा- हाकार साधना के मन में उतरता जा रहा था। मालिनी मैडम के चेहरे पर बारह बजने लगे थे, सुधाशु अंशु को बहलाने की कोशिश कर रहा था। सेंपल देते- देते बारह बज गये। सेंपल देने वालों को सीधे घर जाने की सलाह दी जा रही थी। सुधांशु ने ब्रेड का बड़ा वाला पैकेट ले लिया और ऑटो करके सीधे घर ले आया सब को। मैडम जाते- जाते एक उछ्वास के साथ कहती गईं ’’ हमारा क्या होगा सर! आगे नाथ न पीछे पगहा उसके नाम से रोये गदहा।’’

’’ हे भगवान भले ही इसी पल मौत दे दे! परंतु इस बीमारी से बचा ले ।’’ साधना मन ही मन प्रार्थना कर रही थी। अस्पताल में भर्ती तो वह होगी नहीं, चाहे और कुछ भी क्यों न करना पड़े। सोचते ही उसकी आँखों में अंशु का भोला चेहरा तैर गया। पापा से डर कर आँचल के नीचे छिप जाता है। कहीं से भी आये सामने ममा होनी चाहिए। उसे छोड़ कर कैसे कुछ भी कर लेगी वह? और सुधांशु! क्या वह संभाल पायेगा स्वयं को ? क्या कोई और ले लेगा उसका स्थान ? अपनी खरीदी एक- एक वस्तु को याद कर-कर के वह रोती रही थी रात भर। सुधांशु अपनी चिंता अपने मन में छिपाये उसे समझाता रहा ’’ जो होगा देखा जायेगा, इतने लोग बीमार हो रहे हैं, बहुत सारे अच्छे होकर भी जा रहे हैं, यह अटल सत्य है कि जीवन मृत्यु भगवान के हाथ में है। हम हैं नऽ एक दूसरे के लिए, मुझे हुआ तो तुम संभाल ही लोगी, दिल्ली शहर की बेटी हो, यहाँ की हर गली तुम्हारी जानी पहचानी है , शिक्षित हो, किससे कैसे बात करनी चाहिए जानती हो, भगवान मुझे ही आराम का मौका दे, तुम और अंशु सलामत रहो!’’ वह उसे हिम्मत देता रहा। आज वे दोनों साथ रहना चाहते थे किंतु महामारी के भय ने उनके बीच विभाजन रेखा खीच दी थी। अंशु तो टी. वी. देख- देख कर वैसे ही होशियार हो गया था, रात को खिचड़ी बनाई गई जिसे सबने टूटे और डरे मन से खाया। दूसरे दिन सुबह तैयार होकर तीनो अस्पताल गये। वहाँ की चीख पुकार के आगे तो अपनी समस्या छोटी लगने लगी। आज तो कल से भी अधिक भीड़ नजर आई। सुधांशु ने लाइन लगाकर रिर्पोट प्राप्त की, सबसे पहले मालिनी शर्मा, निगेटिव, ’अच्छा हुआ बेचारी की सेवा करने वाला भी कोई नहीं था।’’

अंशु बड़बोले, निगेटिव ,--’’ हाय राम! चलो मेरा बच्चा बच गया।’’ उसने लंबी सांस ली।

 सुधांशु बड़बोले- निगेटिव--’’ हे भगवान ! तेरा लाख-लाख शुक्र है, सच कहते , हैं दस पड़ जाये तो चलेगा, दस को पालने वाला सलामत रहे। ये बच गये बहुत अच्छा हो गया।

साधना बड़बोले पाॅजिटिव्ह -- बाप रे ऽ! बाप ऽ! अब मैं क्या करूँ? मैं क्या जानती थी कि मेरी ही शामत आई है , न कहीं आना न जाना, दूसरी मंजिल पर पड़ी रहती हूँ, यह नामुराद कहाँ से लग गया? साधना चक्कर खाकर गिरने को हुई कि एक वार्ड ब्वाय ने संभाल लिया।

’’ देख रहीं है भीड़? सब इसी बीमारी के मारे हुए हैं ? घबरा जायेंगी तो जीतना कठिन हो जायेगा , कुछ नहीं है, सर्दी जुखाम मान कर चलो!’’ वह अपने मास्क के अन्दर से बोल रहा था। सुधांशु ने आगे बढ़कर उसे संभाल लिया। ’’ ये क्या कर रही हो तुम? पाॅजिटिव्ह आया है, कोई मृत्युदंड का आदेश नहीं हो गया है, खुद को संभालो ! ’’ उसने एक बेंच पर उसे बैठा दिया। 

’’ आप जरा सरक जाइये सर , मैं देखती हूँ, आप यह देखिये कि आगे क्या करना है ।’’ मालिनी ने उसके पास आकर उसे अपनी बाँहों में घेर लिया।

’’ मैडम ! आप मुझसे दूर ही रहिये कहीं आप को भी.........?’’

’’ मेरी चिंता तुम न करो! मास्क है न मेरे चहरे पर ! बस्स कोई फिकर की बात नहीं हैं।’’

’’ मेरे बच्चे का क्या होगा मैडम?’’ वह रोने लगी थी । ,

 ’’ वह खूब पढ़ेगा लिखेगा, नाम कमायेगा, आप स्वयं उसकी शादी करेंगी, कुछ नहीं होगा आप को, मैंने रिपोर्ट देखा है, अभी एकदम शुरुआती दौर में है रोग । मुश्किल से चार-पाँच दिन मे आप चंगी हो जायेंगी।’’ उसकी बातें सुन कर साधना ने परिस्थिति को धीरे- धीरे स्वीकार करना शुरू किया।

 अस्पताल में बेड न होने के कारण उसे होम कोरेंटाइन की सलाह दी गई ।

’’ कैसे होगा? एक कमरे का तो हमारा घर है उसमें मैं रह जाऊंगी तो ये दोनों कहाँ रहेंगे ?’’ वह अपनी ही नजर में आफत बन गई थी अपने परिवार के लिए ।

दवाइयाँ मिल गईं, सारे नियम समझा दिये गये, उसका मोबाइल नंबर, घर का पता आदि नोट किया गया। कोई तकलीफ होने पर फोन करने की हिदायत देकर उसे घर भेज दिया गया। सुधांशु ने टेक्सी कर लिया घर तक के लिए। 

’’ कैसे होगा गुजर ?’’ प्रश्न सामने था।

’’ तुम थोड़ी देर यहाँ बैठो। हम सारा इंतजाम करते हैं।’’ मालिनी उठी थी अपनी कमर में साड़ी का पल्लू बांधकर

’’ सर जरा इधर आइये!’’

 ’’ हाँ मैडम बोलिये! मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि कैसे क्या करूँ?’’

 ’’ सब होगा सर, आप परेशान मत होइये, आप ही कहते हैं न कि स्टाफ परिवार होता है? एकदम जरूरी- जरूरी सामान एक सुटकेश में रखकर बाहर निकाल दीजिये, जैसे पहनने के कपड़े, ए.टी. एम कार्ड दो- चार बर्तन, पैसे आदि - आदि। कमरे को सेनेटाइज करके साधना को आराम करने देते हैं फिर सोचेंगे आगे की।’’ पलंग पर रखे सामान उठा- उठा कर दूसरी ओर जमाने लगी वह। सुधांशु ने सामान निकाल लिया। कमरे को सेनेटाइज कर दिया गया। टेबल पर दवाइयाँ जमा दी गईं, पानी प्रसाधन सब अंदर ही था। साधना पलंग पर लेट गई ।

’’अब सामान लेकर मेरे घर चलिये सर! अंशु को नहला- धुला कर वहीं छोड़ दीजियेगा , आप आकर जब यहाँ बैठेंगे तब मैं जाऊंगी घर। ’’ मालिनी ने आदेशात्मक स्वर में कहा और पर्स से निकाल कर घर की चाबियाँ उसके हाथ पर रख दी।

’’ इस तरह आप के घर में शिप्ट होना ....?’’ सुधांशु संकोच में पड़ा था।

’’ वक्त की मांग है सर! आप तुरंत क्या व्यवस्था कर सकते हैं? फिर अपना ही समझ कर तो कह रही हूँ न मैं भी, जाइये देर मत कीजिए! हमे साधना के लिए खाने का भी इंतजाम करना है। शाम तक डाॅक्टर आकर व्यवस्था देखेंगे , यदि उन्हें पता चला कि हमारे पास कमरे की कमी है तो वे साधना को अपने साथ ले जायेंगे, सरकारी क्वारेंटाइन सेंटर में रखने के लिए, कहाँ खोजते रहेंगे इसे । वहाँ कई प्रकार के मरीज होंगे उनके संसर्ग में तो यह और बीमार हो जायेगी। ’’

’’ इस वक्त तो चाय ब्रेड से ही चलाते है, शाम को देखेंगे जैसा बनेगा बनायेंगे।’’

 वह अंशु के साथ चला गया। वह तो आधे घंटे में आ गया लेकिन अपने बच्चे को वह एक बार भी नहीं देख सकी चैदह दिन में। क्या कभी ऐसी उम्मीद की थी कि वह अपने बच्चे के लिए काल जैसी हो जायेगी?

’’ हलो! साधना, तुम दवाइयाँ लेकर आराम करो, मैं जरा अंशु को खिला देता हूँ।’’

’’ ठीक है, आज तो एकदम अच्छा महसूस कर रही हूँ, देखो कब तक मोबाइल में मेसेज आता है?’’

 उसने मोबाइल बंद कर दिया। खाने का स्वाद तो उसे तीसरे दिन से ही मिलने लगा था किंतु पूरे चैदह दिन देखना आवश्यक होता है इस बीमारी में , उसने अपने जीवन को अव्यवथित न होने दिया , पाँच बजे उठकर नित्यक्रिया से निवृत हेाकर योगाभ्यास, कमरे की सफाई , आॅक्सीमीटर से आॅक्सीजन लेबल चेक करना, डाॅक्टर को बुखार आदि की रिर्पोट देना आदि करती रहती है । पहले ही दिन डाॅक्टर ने उसे सब कुछ समझा दिया था, उसके ,द्वारा दी गई क्लोरोक्वीन , बिटामीन सी. आदि वह समय से लेती थी। वाॅशवेशिन, टाॅयलेट आदि चमका डाला है उसने , नहा धोकर तैयार होती तब तक सुधांशु नाश्ता लेकर आ जाता, मालिनी मैडम एक अच्छी कुक लगीं उसे । आयुष्मान काढ़ा, गरम पानी , अदरख, तुलसी वाली चाय, नीबू पानी हर घंटे आता रहता है उनके यहाँ से। उसे मैडम के बारे में अपने विचार पर बड़ा मलाल होता था, इस विपत्ति में ढाल बन कर खड़ी होने वाली मालिनी मैडम सौभाग्य से ही उनके स्टाफ में आई थीं। सुधांशु को भी उसने कितना गलत समझा था। सीढ़ी के नीचे ठीक से पैर पसारने की भी जगह नहीं है , मच्छरों का डेरा है वहाँ, दिन - दोपहर, रात बिरात जब भी उसने आवाज दी, उसे जागते हुये ही पाया। उसकी दाढ़ी बढ़ गई है, चेहरे की चमक गायब है , जब आता है मास्क लगाये रहता है। चेहरा देखे भी तो चैदह दिन हो गये । उसने मोबाइल खोल कर देखा शायद मैसेज आ गया हो।

उसे निराश होना पड़ा ।

वह खिड़की के पास बैठ कर शहर का नजारा देखने लगी। सड़क पर पहले की तरह भीड़ नहीं थी, चैक पर पुलिस वाले बेकार घूमने वालों को उठक- बैठक करा रहे थे। सबके चेहरे मास्क के पीछे छिपे हुए थे , ये बीमारी भी तो ऐसी है कि कोई हाल-चाल पूछने भी नहीं आता, मैडम भी कहाँ आई एक भी बार , कहतीं है आकर क्या करूंगी? न तुम मुझे देख सकोगी न मैं तुम्हें, फोन पर ही बात कर लेते ह,ैं बहुत मौके आयेंगे साथ बैठने के । सब काम से छुट्टी पाकर जब आराम करने के लिए लेटती है तो साधना याद आ जाती है और तभी वह मोबाइल पर साधना का नंबर लगाती है।, सुधांशु इतने कष्ट से दिन बिता रहा है उसे बचाने के लिए, इसीलिये उसने दवा अथवा परहेज में कोई भी कोताही नहीं बरती। और तो और उसने टी.वी. भी आन नहीं किया। कुछ किताबे थीं कमरे में जिन्हें कभी कभार पढ़ लेती थी।

मोबाइल से मैसेज वाली आवाज आई, उसने लपक कर मोबाइल आॅन किया मैसेज आ गया था। ’’ साधना बड़बोले निगेटिव।’’ इसके आगे उसने कुछ नहीं पढ़ा, चिल्ला पड़ी, ’’ सुधांशु कहाँ हो तुम रिर्पोट निगेटिव आ गई । आओ अन्दर कमरे में आ जाओ ! मेरे अंशु को बुलाओ!, मैडम को बुलाओ! वह बावली की तरह कमरे में चक्कर लगा रही थी, सुधांशु और मालिनी मैडम कमरे के सामने आ गये थे। उनके चेहरे की चमक वह देख पा रही थी।

’’ नये जीवन की बधाई साधना!’’

’’ बधाई तो हमें मिलनी चाहिये मैडम, साधना ने तो फुल रेस्ट किया है इतने दिन!’’ सुधांशु हल्के से हँस पड़ा था ।

’’मैडम! मैं आप को प्रणाम करती हूँ ,आपके एहसान से मैं कभी उऋण नहीं हूँ, ये तो मुझे क्वारेंटाइन सेंटर भेज कर फुरसत पाने वाले थे।’’ उसने तिरछी नजरों से सुधांशु की ओर देखा। 

’’ कुछ नहीं, इसी बहाने मुझे परिवार का सुख मिल गया बाकी तो जो कुछ किया सर नेे ही किया साधना, हम तो बस सहयोगी कलाकार हैं,।’’ वह हौले से मुस्ककराई ।

’’अब तो यदि आप मेरे परिवार का हिस्सा बन कर आ जायं तो भी मुझे कोई एतराज न होगा। मैडम!’’

’’ बनने का क्या सवाल है जी! आप हमारे परिवार की ही हैं, आज खुलेआम ऐलान करता हूँ कि मैं मैडम से बहुत प्यार करता हूँ ।’’ उसका ऐलान सुनकर मालिनी और साधना के चेहरे का रंग उड़ गया, कोई नागवार सा भाव स्थान बनाने लगा वहाँ ।

’’ ये क्या कह रहे हैं सर! खुशी में बावले तो नहीं हो गये।’’ मैडम ने धीमे स्वर में कहा।

 ’’ हाँ ऽ! बावला न होता तो कभी यह बात कह न पाता, मैं आप से बहुत प्यार करता हूँ, क्योंकि आप मेरी माँ जैसी दिखती हैं। आप उसी की तरह साड़ी का पल्लू लेती हैं, वैसे ही किताबे पढ़ती रहतीं हैं वैसे ही कवितायें लिखती हैं।

 दस वर्ष की उम्र में ही मैंने उसे खो दिया था।


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