Tulsi Tiwari

Crime

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Tulsi Tiwari

Crime

sja

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भइया ! ये क्या किया आपने ? अब मैं अपने चार-चार बच्चों को लेकर कहाँ जाऊँ? कैसे इनका पेट भरुँ ? दूसरी तरह से भी तो उसे सजा दी जा सकती थी, मार- लेते पीट लेते बात अपने तक रखते।जार- जार रो रही थी बड़ी माँ।

’’ क्या करते हमारे भी तो बच्चे हैं कल उनके साथ ऐसा हो तो .......?वह डर से थर- थर काँप रही थी, साल भर से यह सब चल रहा था तुम कहती हो तुम्हें कुछ पता ही नहीं,वह उसकी बगल वाली खाट पर सोता था,एक कमरे के घर में तुमने नहीं जान कि वह रात भर बच्ची को सोने नहीं देता, सुबह भी उसके पीछे लगा रहता है, यहाँ तक कि काम पर भी कभी कभार ही जाता है,इतनी ना समझ हो तो क्या कहते तुमसे ? हमें तुमसे हमदर्दी है गंगा, डॉ केशरवानी ने अपना पल्ला झाड़ा।

’’ अरे साहब! सुबह से काम पर निकल जाती हूँ दस घर का काम निबटा कर शाम को घर आती हूँ मेरे आदमी के पेट में साल भर से दर्द रहता है सबका पेट भरने के लिए न करूँ तो मेरे बच्चे क्या खायें आप ही बताओ।’’उसकी पतली काया हिल रही थी।

’’ हमारे सामने और कोई चारा नहीं था तुम घर में रहती नहीं उसने बच्ची के साथ और कुछ कर दया तब कौन जिम्मेदार होगा? फिर सोचो जरा क्या यह मामला दबाने लायक था? उसके लिए रोना किसी तरह उचित नहीं है उसे उसके कर्म की सजा मिलने दो।’’

’’ आपने एक का देखा चार का नहीं देखा, अब उनका क्या होगा, बिना बाप के कैसे पलेंगे ये? मैं उसे अपने साथ काम पर ले जाती, ले आती, आप मेरी जिम्मेदारी पर इस बार शिकायत वापस ले लीजिए, मैं आप के पैर पड़ती माँ डॉ. केसरवानी के पै़रों में गिर पड़ी थी।

’’ ग़ंगा ! हम दूसरे ढंग से तुम्हारी मदद कर सकते हैं किंतु इस पापी को बचाने के लिए मत कहो, अब शिकायत हो चुकी है उसकी जमानत की कोशिश करो।’’

मोहल्ले के अधिकांश लोग सड़क पर जमा हो गये थे। विषय कुछ ऐसा था जिसने सबके मुँह पर ताला लगा दिया था। नौ बजे के करीब वह भागती हुई घुसी थी डॉ. साहब के बंगले में, उसकी दशा देख कर उनका कुत्ता अपनी जगह पर कूद- कूद कर भौंकने लगा था। वह उनकी टांगों से लिपट गई थी, ’’ मुझे बचा लो अंकल! बड़े पापा आग लगा कर जलाने जा रहे हैं, वह मुझे बहुत परेशान कर रहे हैं, यह देखो दाँत से काट खाये हैं, कहते हैं वे मुझसे बहुत प्यार करते हैं।--इससे आगे वह कुछ और न कह सकी थी, उसकी चेतना ने उसका साथ छोड़ दिया था।

’’ अरे! क्या हो गया इसे,उठो! उठो बताओं तो सही क्या हुआ है?’’ उसने जैसे दूर से आती आवाज सुनी थी। उसके चेहरे पर पानी के छीटे देकर उसे जगाया गया था, साल भर से झेलती परेशानी की कहानी सुनकर केसरवानी हिल कर रह गये। उन्होंने मोबाइल पर स्थानीय थाने का नंबर मिलाया और घटना की सूचना देकर शीघ्र बुला लिया।पीछे के दरवाजे से उसे अपनी नौकरानी के घर में छिपा दिया। उस दिन का मौसम सुबह से ही बदरहा था अगहन का अंतिम दिन, पूर्णिमा के चाँद को बादलों ने ढाँक रखा था। मुँहा-मुँही बात फैलने लगी थी, ’’ छोड़ना ठीक नहीं है ऐसे गिरे हुए इंसान को, बताओ आठ साल की मासूम जो उसकी सगी साली की बेटी है। इसकी शरणागत है उसके साथ ऐसी बदनियती,जब तक बुढ़िया जी रही थी बेचारी मेहनत मजदूरी करके इसे पढ़ा रही थी, किसी ने नहीं कहा कि हम अपनाते हैं इस बिन माँ की बच्ची को,उसकी आँखे बंद होते ही दोनो बहने चढ़ आईं,अभिभावक बन कर ’’ मैं पालूंगी इसे मेरी बेटी है नैना,दोनो में जो घमासान हुआ कि थाने में ही सुलह हो पाई। आनन- फानन में अपना घर बेच कर गौरी अपने चार बच्चों और निकम्मे पति लतेल के साथ आ बसी मोहल्ले को तारने, लतेल ने अपने राजमिस्त्री होने का गजब लाभ उठाया। पुराने घर की खपरैेेल उतार कर टीन की चद्दरों वाली छत डाल लिया, ईंट झाँकती दीवारों पर प्लास्टर कर दिया अद्धे टुकड़े सकेल कर आंगन घेर लिया। ’’ लोग आपस में बातें कर रहे थे।

 । घर, घर जैसा दिखने लगा। गंगा के चारों बच्चे दिन भर मोहल्ले में घूमते रहते, बड़ी लड़की भावना पन्द्रहवें में लगी है, रूप- रंग तो बाप के जैसा ही पाया है उसन,े लेकिन कहते हैं जवानी में गधी भी सुंदर लगती है लिहाजा उसके ऊपर भी यौवन का रंग चढ़ रहा था स्कूल जाना छोड़ कर मोहल्ले के आवारा लड़कों के साथ दिन भर घूमा करती थी। लतेल की छोटी बहन गिरजा भी उसके साथ ही रहती थी, वह हर शैतानी में भावना का साथ देती थी। इन दोनों को लतेल की हरकतें ज्ञात थीं लेकिन वे चुप ही रहतीं थीं उन्हें भी तो मनमानी करने की छूट मिल रही थी। दोनों ओर से मौन समझौते की स्वीकृति थी। पिछले महीने जब नाई के लड़के ने भावना को मोबाइल गिफ्ट किया तब आगे बढ़ कर बाप ने कह दिया कि मैंने दिया है। बीड़ी सिगरेट के टुकड़े तो हमेशा ही उसके होते थे। नैना ने उस दिन भी इन दोनेां से कहा था कि अब सहन नहीं होता आज बड़ी माँ से सब कुछ बता दो तुम लोग, वे उसे चिढ़ाकर भाग गईं थीं -’’ तुझे प्यार करता है भइया। समझती क्यों नहीं?

’’सुन न नैना, मैं तेरा बड़ा पापा हूँ अपनी बड़ी माँ से कुछ मत कहना,कल तुझे चाकलेट दिलाउंगा। अगर कुछ भी कही न तो आग लगा दूंगा तेरे फराक के नीचे, सोच! कितना दर्द होगा,उसने उसे असह्य पीड़ा सहने पर मजबूर किया। वह बाहर भागी तो उसने दौड़ा लिया। वह फिर पकड़ में आ गई। उसने इतनी तकलीफ सहने के बजाय एक बार मर जाने का फैसला करके बड़ी माँ को सब कुछ बता दिया।

गंगा ने पति की इतनी लानत- मलानत की कि वह फाँसी लगाने का नाटक करने लगा,

’’ यह पूरा झूठ बोल रही है, मुझे तेरी कसम, अपने बच्चे की कसम, यदि कुछ भी गलत किया होऊँ तो अभी के अभी मर जाऊँ, तू तो राण होना ही चाहती है, अपनी कुतिया रंड़ी बहन की पिल्ली को मुझसे अधिक समझ रही है। साल भर से खिला रहा हूँ अपने बच्चों का पेट मार कर। मुझ पर इल्जाम लगा रही है और तूने मान लिया। अभी लटकता हूँ फाँसी पर।’’ वह उसकी साड़ी पंखे से बांधने लगा। सब बच्चे तो इधर- उधर थे भावना सहमी सी सारा नाटक देख रही थी। नैना ने डर से अपनी आँखे बंद कर लिया था।

’’ अरे जा ना रे टुरी किसी को बुला कर ला ! तेरा बाप मर रहा है हम कैसे संभाल पायेंगे।’’ घबराई हुई गंगा छाती पीटने लगी। उसका ध्यान नैना की ओर से हट गया। लतेल एक झटके में उसके पास पहुँच गया- ’’ मरूंगा लेकिन इस आफत की पुतली को मार कर, उसने कसकर उसका गला पकड़ा और कपोलों पर दाँत गड़ा दिये।

’’ छोड़! छोड़ टुरी ला! उसकी मजबूत पकड़ छुडा़ने के लिए गंगा ने उसकी कलाइयों में अपने दाँत गाड़ दिये, वह बिलबिला कर पीछे हट गया था

’’ भाग टुरी ! भाग जा! पारा’-परोस म कखरो घर म लुका जा !’’ उसने उसे बाहर धकेल दिया और अपनी पूरी ताकत लगा कर लतेल को उसके पीछे जाने से रोक लिया। हल्ला सुनकर कई लोग अपने घरों से झांकने लगे थे। बोलें क्या किसकी हिम्मत है एक लड़की को अपने घर में पनाह देकर एक दरिंदे से दुश्मनी मोल लेने की। सबके घर में बच्चे हैं कही कुछ कर बैठा तो ? कब तक कोई बच्चों को घर में बंद करके रख सकता है ?

थोड़ी ही देर में पुलिस की गाड़ी आई और लतेल को लेकर चली गई। उसकी वह रात डॉक्टर साहब की बूढ़ी नौकरानी के साथ गुजरी। दूसरे दिन उसे थाने बुलाया गया। अकेले में महिला पुलिस अधिकारी ने उससे उसकी आपबीती सुनी। लतेल के ऊपर पाक्सो एक्ट के साथ और भी कई धाराएं लगाई गईं।

उसे बाल संरक्षण गृह भेज दिया गया। बड़ी- बड़ी लड़कियाँ जो घाट- घाट का पानी पीकर यहाँ आई ं थीं उसे एक जीवित खिलौना समझकर खेलनंे लगीं। वहाँ रहना उसके लिए बहुत मुश्किल होने लगा। उसने बहुत सोचा तब उसे याद आया कि उसकी सगी दादी अभी जिन्दा है, वह पेड़ से तो टपकी नहीं माँ- बाप के बिना कैसे कोई आ सकता है इस दुनिया में। माँ का चेहरा तो याद नहीं है उसे, लेकिन सुना अवश्य है कि वह हर हाल में गरीबी की कैद से बाहर आने की कोशिश में लगी रहने वाली युवती थी। अपने माँ- बाप की रोज कमाने खाने वाली स्थिति उसे स्वीकार नहीं थी। बारह - तेरह वर्ष की उम्र से ही उसने अपना हाथ खर्च निकालने के लिए कमसिन किशोरों से लेकर बड़ी उम्र के विधुरों से दोस्ती गाँठी,अपने शरीर को सजाने के फेर में उसकी छीजन की ओर से आँखें मँूदे रखा,वह चाहे जैसी भी हो सती साध्वी कहलाना चाहती थी, काम के अनुरूप जो नई -नई उपाधियाँ मिलने लगीं उन्हे वह स्वीकार न कर सकी, और एक दिन जब उसके पति ने देर रात तक घूमने को लेकर उसे मार दिया तब मारे माख के एक साल की नैना का मोह त्याग कर जल मरी। चाहे जैसी थी उसे उसकी जरूरत है उसे नहीं जाना था अपनी बच्ची को छोड़ कर वह रो पड़ी थी अपनी माँ के लिए। वह हर उस औरत में अपनी माँ को खोजती है जो उउसे प्यार से बात करती है। बड़ी माँ ने उसी घर में जनम लेकर मेहनत मजदूरी करके जीवन यापन करना उचित समझा, लोग आज भी उसकी इज्जत करते है,ं बड़े सबेरे उठती है घर का सारा काम करके दो वक्त का भात रांध कर साइकिल से अपने काम पर निकल जाती है। उसका कहना है कि काम छोटा हो या बडा़ जिम्मेदारी से करना आदमी का काम है। उसने उसकी जिम्मेदारी ली, बस्ता, ड्रेस सब कुछ जुटा दिया, सरस्वती विद्या मंदिर में वह नानी के समय से ही पढा़ करती थी, शायद गरीब बालिकाओं की निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान है। उसे लाभ मिल गया था। नानी एक मेहनकश महिला थी, उसने नैना को अपने जीवन का आधार बना लिया था।़ चार घर पकड़ लिए, निःशुल्क चावल और निराश्रित पेंशन से नून भात चल ही जाता था। उम्र भी तो बहुत हो गई थी न उसकी, कमर झुक गई थी। सिर के बाल लंबी जटाओं में बदल गये थे। जिनका जूड़ा बनाये वह औघड़ बाबा जैसी दिखती थी। जब से वह मरी नैना ने उतनी सुंदर छवि आज तक नहीं देखी।

 दादी ने कभी उस पर अपना हक नहीं जताया। बाप तो दूर- दूर तक कोई नाता रखना नही चाहता था। आज वह दादी के सिवा किसे पुकार सकती है? उसने वार्डन को अपनी दादी का पता लिखवा दिया था। आई थी रोते- गाते। औपचारिकताएं पूरी कर अपने साथ ले गई थी। कोटमीसोनार में दादी क्रोकोडायल पार्क के पास टोकरी में रख कर गाँव में मिलने वाली चीजें बेचा करती थी ं गाँव के स्कूल में उसका नाम लिखा दिया और हमेशा अपनी आँखों के सामने रखने लगी। बाप अपनी दूसरी पत्नि के साथ कुरूक्षेत्र कमाने - खाने गया तो लौटा ही नहीं वहाँ से। गाँव में आठवीं पास करने के बाद प्रधान पाठक की सलाह पर नानी ने उसे कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में डाल दिया थां इस बीच बड़ी माँ अनेक बार उसके पास आई बहुत चिरौरी की अपनी ममता का वास्ता दिया,कि वह केश वापस ले ले, जमानत के लिए उसे अपना पहले वाला घर बेचना पड़ा था। ’’ सच कहते हैं सयाने ’आमा सेबे, अमली सेबे सेबे पेड़ बबूल आन के लइका ला झन सेबे नहीं कनतर न मूल’(आम, इमली, की सेवा कर लो न हो तो बबूल के पेड़ की सेवा कर लो किंतु पराई औलाद को अपना मत समझना उससे न अपना मूल धन वापस मिलेगा न ब्याज ही मिलेगा। अपयश का ही पुरस्कार मिलेगा।)देख टुरी, तेरी बहन भावना, हम लोग हमेशा उसे दुत्कारते ही रहे आज हमारा सहारा बनी हुई , चाहे जो करके लाये घर चलाने में हाथ तो बंटा रही है। जमानत मिली है लेकिन बहुत जल्दी केश का फैसला होने वाला है। कहते हैं ऐसे मामले में जल्दी ही सुनवाई हो जाती है। ’’तोर पांव परत हंव बेटी, तोर सब गलती ला भूला के तोला फेर राखहूँ, अपन बड़े पापा ला बचा ले, वह आँसू बहाती अपने सुहाग के लिए, नैना को उस पर दया तो आती किंतु दूसरे ही पल याद आती अपनी दशा, उसके शरीर में रोमांच हो आता। वह सच पर अटल रही थी। लतेल को 10 वर्ष की सजा हो गई। गंगा जितनी मेहनत करती उतना ही डॉ केसरवानी और नैना को कोसती। जिनके कारण उसका घर उजड़ गया। लतेल के जेल जाने के साल भर बाद ही दोनो बड़ी मौसियों ने नानी वाला घर बेच कर आधा- आधा बांट लिया। नैना ने सुना किंतु कोई ध्यान नहीं दिया उस ओर।

’’चलो कोई बात नहीं,बड़ी माँ को कुछ सहारा मिल जायेगा। पति के ऊपर आँखे बंद कर विश्वास करने के सिवा क्या अपराध किया था उसने।

कोटमीसोनार की हवा बहुत रास आई थी नैना को,दिन भर भाग - दौड़ करना पेडों पर गिलहरी के सामान फुर्ती से चढ़ना उतरना,पेड से नदी में छलांग लगाना,लगातार कई घंटे तैरते रहना उसके शगल थे वह अपनी दादी का सारा काम करती थी साथ ही पढ़ाई में भी हमेशा सबसे आगे रही। तेरह की होते न होते स्त्रीत्व के सारे लक्षण उभर आये उसके शरीर में। आश्रम में भी उसने अपनी पहचान बनाई।उसी साल अठारह की हुई थी। महिला सेन्ट्रल रिजर्व पुलिस की भर्ती में उसने यूं ही फॉर्म भर दिया था। उसने खेल -खेल में सभी परीक्षाएं पास की और साल भर के कठिन प्रशिक्षण के बाद वह अपनी दादी से मिलने आई थी। उसने उसका सारा इंतजाम किया। उसके लिए एक कमरा बनवाया।और गाँव के एक आदमी को उसकी सेवा की जिम्मेदारी दे दी। मन के किसी कोने में नानी आज भी जिन्दा थी, उसका आर्शीवाद खूब फला था नैना को,उस दिन वह बिल्हा आई थी। बिना किसी से बताये शायद उस भय का सामना करना चाहती थी, आज तक उसे पुरूष नामक प्राणी भयभीत रखता आया है हर मुकाबले में वह अपने मन के भय को नफरत में बदल कर पूरी ताकत से लड़ी है।

’’ वहाँ ... था उसका खपरैल वाला घर जहाँ जाड़े की धूप में दो बजे नानी इकहरी धोती पहन कर धूप सेंकते हुए उसके स्कूल से आने का इंतजार किया करती थी। वह आती, बस्ता कमरे में फेंक कर नानी की गोद में समा जाती। वह उसके माथे को सहलातीे,कपोलों पर झूल आई अलकें संवारती,अपने हाथ से खाना खिलाती। अब कहाँ पहचान में आ रहा है अपना घर? दो मंजिला सुंदर सा घर,दीवारें फूलों के गमलां से सजी हुई,बस नानी का लगाया अमलतास और सहिजन खड़े है अपनी जगह पर उसने अपनी बाइक एक किनारे खड़ी की और अमलतास को बाहों में भर लिया। उसने मोबाइल निकाल कर उसके साथ सेल्फी ली।’’ तू तो मेरा भाई है, जिसने तुझे लगाया प्यार से पाला उसी ने मुझे भी जीवन दिया। ’’ उसकी आँखें भर आईं, कभी यहाँ उसका परिवार था। आज कोई पहचान का भी नहीं। उसकी खोजी निगाहें डॉ. केसरवानी के बंगले पर जाकर टिक गईं। कॉलवेल बजाने पर नौकरानी ने दरवाजा खोला। उसने अंदर जाकर देखा तो पलंग पर एक बूढ़ा व्यक्ति लेटा था, एक चौदह पन्द्रह साल का किशोर उसके पैरों की मालिश कर रहा था। उसने पीछे मुड़ कर नैना को देखा। उसकी आँखों में अपरिचय के भाव थे। वृद्ध आँखें सिकोड़ कर उसे पहचानने का प्रयास कर रहा था। कमरे में धीमी रोशनी का बल्ब जल रहा था। वह अचकचाई सी चारों ओर किसी परिचित को ढृढ़ रही थी।

’’ कौन है?’’ वृद्ध ने थर- थराती हुई आवाज में पूछा।

’’ मैं नैना यादव, मुझे डॉ. केसरवानी से मिलना है।’’

’’ अरे नैना! ! .....इतने दिन कहाँ खोई रही मेरी बच्ची?’’ वह उठने को हुए लेकिन पुन लेट गये। उनके चेहरे पर फैले विवशता के भाव देख कर उसने निहायत अपनेपन से उठाकर बैठाया उन्हें।

किशोर आँखे फाड़े नवागन्तुक को निहार रहा था। उसे लग रहा था जैसे लड़की का नाम उसने बहुत बार सुना है।

नैना ने पहचान लिया डॉक्टर केसरवानी को, उसने प्रणाम किया और उन्हें इस हाल में देखकर उदास हो गई।

’’ दुखी मत हो बेटा सब समय का चक्र ह, दूसरों का इलाज करते- करते स्वयं ही रोगी हो गया। दोनो लड़के विदेश में बस गये। तेरी आंटी ने भी साथ छोड़ दिया। अब तो बस यह पवन है और मैं हूँ।’’ इतना बोलते- बोलते वे कराह उठे।

’’ सब का वही हाल है अंकल,लगता है हमारे परिवार से भी अब कोई यहाँ नहीं रहता।’’

 नैना की आवाज दर्द में डूब गई।

’’ एक छोटा लड़का था न गंगा का। घटना के समय वह बहुत छोटा था, कुपोषण और देख- रेख के अभाव में इसे कई बीमारियों ने घेर लिया था। मैंने गंगा से इसे मांग लिया था, यह तेरा भाई है नैना।’’

’’ वही जो नानी के जाने वाली रात पैदा हुआ था। अरे ! इसे तो मैं ही अपनी गोद में रखती थी, भाव-विभोर होकर उसने पवन का हाथ थाम लिया।

’’ तुम इतनी अच्छी हो दीदी मैं जानता नहीं था। ’’ पवन का गला भर आया।

’’ मेरी बड़ी माँ और उसके अन्य बच्चों के बारे में कुछ बताएं अंकल, अब मैं उनकी मदद करने लायक बन चुकी हूँ। उसने मेरे कारण बहुत कष्ट उठाया। ’’ नैना के नैन छलक पड़े।

लतेल को जेल में ही कैदियों ने मार डाला था किसी बात पर। गंगा कहाँ गई कुछ पता नहीं चला आज तक। जिन्दा होती तो बच्चे के लिए तो कभी फोन करती।’’

’’ कुछ स़़मय तक मेरे पास आई अंकल जी, वह मुकदमा वापस लेने की जिद्द करती थी किंतु मुझसे नहीं हो सका। पाप उसने किया लेकिन फल पूरे परिवार को भोगना पड़ा।

 ’’ यह तो होता ही बेटा। ’’

’’ अंकल जिसे आप ने बचाया, उसका समाचार नहीं पूछेंगे। ’’ कहते हुए नैना ने अपना आई कार्ड उनकी ओर बढ़ा दिया।

स्ूारज को कोई ऊगने से नही रोक सकता बेटी, तू बचपन से ही अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली थी, उस दिन भी तूने स्वयं को बचाया और अब तो देश की रक्षा में योगदान करेगी। मुझे बेहद गर्व है नैना तुझ पर। ’’ उनकी बूढ़ी आँखों में चमक आ गई।

’’अरे जा ना रे पवन, कुछ ले आ अपनी दीदी के लिए, देख तो समोसे निकल रहे हैं क्या बंगाली के होटल में।’’

’’ जा रहा हूँ अंकल, आप जरा यहाँ बैठो दीदी, मुझे विश्वास दिलाओ कि मैं अपने परिवार के नाम पर अकेला नहीं हूँ।’’ पवन ने नैना की गोद में अपना सिर छिपा लिया।


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