विदेह की वैदेही
विदेह की वैदेही
जैसे ही जनक की धिया...सीता ने राम के गले में जयमाल पहनाई, अंबर से पुष्पवर्षा होने लगी ।दिग-दिगंत में जयजयकार हो उठा।मिथिला रीति-रिवाज के अनुसार सीता-राम का वैवाहिक विधि-विधान (परीक्षण,ओठंगर, कन्यादान,सिंदूरदान, चुमावन,दूर्वाक्षत ) हर्सोल्लास से संपन्न हुआ ।
बाहर पंडाल में बैठे गणमान्यों के बीच मिथिला नरेश ‘जनक’... और अयोध्या नरेश ‘दशरथ’... दोनों समधी काफी प्रसन्न दिख रहे थे।एक को धनुर्धर दामाद मिला तो दूसरे को सुयोग्य,कुल-शील वाली सुंदर पुत्रवधू ।
लेकिन,महल में हवा का रुख बदलते देर न लगी।कल से बज रही रशनचौकी की सरस, मोहक धुन आज भोर होते ही उदासी में बदल गई।राजमहल के परिसर में चल रहे विवाह के धूम-धड़ाके ठंढे पड़ गये।सभी प्रान्तों से आमंत्रित गणमान्य और राजा-महाराजा वापस प्रस्थान करने की तैयारियां करने लगे । दरवाजे पर प्रतीक्षारत आगंतुक के वाहन चालक अपने-अपने वाहनों को लेकर चौकन्ने हो गये ।
इधर महिलायें, जो अभी तक विवाह के मोहक गीत गा रहीं थीं, सभी सीता के ससुराल जाने की तैयारियों में जुट गईं। प्रांगण में सुसज्जित,दमक रहा विवाह-मंडप, अब मुँह लटकाए खड़ा दिख रहा था ।
कुछ महिलायें कोहबर( वह कक्ष जहाँ वर-वधू का विश्रामकक्ष होता है) से सीता-राम को लेकर अब भगवती घर की ओर चल पड़ीं ।
दशरथनंदन श्रीराम, सीता की कनिष्ठिका पकड़कर महिलाओं के साथ शनैः शनैः आगे बढ़ने लगे । उनके पीछे-पीछे महिलायें,सखी-सहेलियाँ ‘बटगवनी’( वर-वधू को एकसाथ ले जाने का गीत ) गाते हुए साथ में चलने लगी।सामने भगवती घर के देहरी पर खड़ी सुनयना, विष्णु तुल्य जमाता को बेटी संग आते देख भाव-विभोर हो रहीं थीं।इतने में श्रीराम की नजर सासू माँ पर पड़ी...तो जमाता ने लजाकर अपनी नजरें झुका ली ।इस अलौकिक पल का साक्षी बना अंबर मदमस्त हो उठा।पक्षी चह-चहाने लगे, चहुँ ओर शीतल बयार बहने लगा।वातावरण सुरम्य, सुवासित हो उठा ।
सभी महिलायें वर-वधु को लेकर भगवती घर पहुँच गईं।अड़हुल, गुलाब, अपराजित, कनेर आदि फूलों से किया गया कुलदेवी का श्रृंगार, आज अद्भुत, अप्रतिम दिख रहा था।धुप-दीप के सुगंध से घर का वातावरण भक्तिमय था । माता सुनयना, बेटी-दामाद के निकट जाकर उन्हें कुलदेवी को प्रणाम करने का इशारा करती हैं।माता का आदेश पाते ही सीता-राम कुलदेवी के आगे हाथ जोड़कर घुटने के बल बैठ गये ।
‘चम्पई रंग की पीताम्बरी, काँधे पर दुपट्टा , कानों में कुंडल, गले में पुष्पहार , आँखों में काजल, भाल पर तिलक और स्वर्ण मुकुट धारण किये श्रीराम तथा उनके संग ,उनकी भार्या सुर्ख लाल रंग की जड़ीदार पटोर साड़ी में लिपटी ,माथे पर मोती माणिक्य जड़ित मंगटीका, ओठों को स्पर्श करता हुआ बड़ा सा नथ , वक्षस्थल को छूता हुआ हीरा-मोती का कंठहार, बड़ा सा झुमका, बाहों पर रत्न जड़ित बाजूबंद, हाथों में मेहंदी, कलाई पर लाख की चूड़ियाँ, रत्न जड़ित हथसंकर , नक्काशीदार चांदी की करधनी, पैरों में महावर, चांदी के पाजेब, मीनाकारी बिछुए , चोटी में गुंथे हुए बेली फूल के गजरे ,मांग में भरा सिंदूर , ललाट पर सिंदूरी लाल बिंदी , बालों और चोली को ढकता हुआ हरे रंग का पारदर्शक जड़ीदार चुन्नी ओढ़कर बैठी सीता ...साक्षात भगवती लग रही थी ।’
------------------- जुगल जोड़ी का यह रूप -लावण्य ,वहाँ उपस्थित सभी महिलाओं को अचंभित और आकर्षित कर रहा था।सभी मंत्रमुग्ध एकटक देख रहे थे।सचमुच ऐसे नयनाभिराम जोड़े पृथ्वी पर कभी-कभार ही अवतरित होते हैं ! इसी बीच एक सेविका हाथ में लोटा और आम का पल्लव लेकर उनके निकट पहुँची।वर-वधू के पास आकर सेविका ने आम के पल्लव को लोटा में डुबाकर निकाला और दोनों के ऊपर छींटने लगी।हींग का तेज गंध एकाएक वातावरण में फ़ैल गया । महिलाओं को समझते देर न लगी कि यह नजर उतारने का टोटका है ।
तभी बाहर से पंडित जी की ऊँची आवाज ,“विदाई का मुहूर्त शरू हो गया...वर-वधू को .....”
इतना सुनते ही अंदर का माहौल गमगीन हो गया।कुलदेवी के आगे रखे सूप (अनाज फटकने का पात्र) में खोइंछा (धान, दूब, हल्दी का पांच गाँठ ,पांच साबुत सुपारी, सिंदूर और कुछ अशर्फियाँ) को उठाने के लिए माता सुनयना जैसे ही आगे कदम बढ़ाई कि वह फफक पड़ी।नेत्रों से अधीरता का सैलाब रुकने का नाम नहीं ले रहा था।सुनयना को इस तरह अधीर होते देख सभी महिलायें की आँखें नम हो गईं ।’ समदौन’ (विदाई गीत ) शुरू हो गया।गीत के करुण लय के साथ महिलाओं के सिसकने की आवाज सुनाई देने लगी ।
बेटी के समीप पहुँच माता उसके आँचल को खोल उसमें लाल रेशमी का एक टुकड़ा फैलाया और सूप में रखे खोइंछा को विधिवत मुठ्ठियों में भर-भरकर उसमें रखने लगी।सीता एकटक खोइंछा को देख रही थी। बाल्यावस्था से ही इस रस्म को वह देखते आ रही थी।जब भी कोई महिला नैहर वा ससुराल जाती थी तो माता सुनयना उसे इसीतरह खोइंछा देकर विदा करती थीं।सीता के आँखों से आँसू टप-टप कर गिरने लगे।आ....ज, पहली बार सीता को इस रस्म की पीड़ा महसूस हुई । ऐसा लगा जैसे उसे किसी ने जड़ से अलग कर अन्य बगीचे में लगाने जा रहा हो ! सीता का मन विचलित हो रहा था, आँसुओं की टघार उसके कपोल पर साफ़ साफ़ दिख रहे थे ।
सुनयना ने लाल रेशमी कपड़े में रखे खोइंछा को ठीक से गाँठ लगाकर सीता के कमर में खोंस दिया।बेटी, माता के सीने से चिपककर सुबकने लगी।सुनयना के धैर्य का बाँध ध्वस्त होते देर न
लगी।वह जोर से विलाप करने लगी।उसके कलेजे का टुकड़ा आज उससे अलग होने जा रहा था ! रोती-बिलखती माता बेटी के माथे को बारबार चूमती रही ।
“वर-वधू को जल्दी से बाहर ले आइये ...।” पंडित जी की ऊँची आवाज... फिर से सुनाई पड़ी ।
सभी महिलायें तुरंत वर-वधू को साथ लेकर भगवती घर से बाहर आ गयीं ।वहीँ बाहर कुछ दूरी पर जनक खड़े थे।जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों ।आखिर , हों... भी क्यों नहीं ! महाप्रतापी अयोध्या नरेश दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र, धनुर्धारी श्रीराम के संग बेटी को विदा जो कर रहे हैं।एक पिता अपनी पुत्री का हाथ किसी सुयोग्य के हाथों में देकर कितना भार मुक्त और प्रसन्नचित्त हो जाता है, यह जनक के चेहरे से स्पष्ट झलक रहा था ।
अरे...ये क्या ! जैसे ही वैदेही (सीता) बिलखते हुए उनके नजदीक पहुँची, पिता... विदेह (जनक) अधीर हो उठे।जनक ने सीता को एक अबोध शिशु की भाँती हृदय से वैसे ही लगा लिया , जैसे वो आज से लगभग दो दशक पहले .........................
”अनावृष्टि के निवारणार्थ, यज्ञ के क्रम में जनक जब खेत की कर्मकांड जुताई कर रहे थे, तो उनकी नजर धूल-मिटटी में लिपटी एक नवजात कन्या पर पड़ी । उसे झट से उठाकर उन्होंने अपने हृदय से लगा लिया ।”
पिता, पुत्री को हृदय से लगाकर ख्यालों में विचारने लगे, “सीता के वर चयन हेतु जो स्वयंवर रचा गया , उसमें मैंने शर्त रखा था कि जो कोई शिव के धनुष को भंग करेगा, उसीसे मेरी बेटी सीता का विवाह होगा और वैसा ही हुआ।शिव के प्रताप से ही आज यह मनोवांछित कार्य सफल हो पाया।मेरे ऊपर भगवान शिव की साक्षात कृपा थी, तभी तो शिव का धनुष मेरे राजभवन में पूजित और प्रतिष्ठित था ।”
तभी किसी के हाथ का स्पर्श होते ही जनक की तन्द्रा भंग हुई । श्रीराम उनके चरण छू रहे थे।जनक प्रसन्नचित ,आशीर्वाद देने की मुद्रा में झट अपने हाथों को श्रीराम के मुकुट पर रख दिये ।
परन्तु मुहूर्त का ध्यान आते ही , बेटी-जमाता को लेकर जनक तुरंत आगे बढ़ने लगे।सीता अभी भी बच्चों की तरह बिलख रही थी।वह कभी माता से लिपटती , कभी सहेलियों से तो कभी पिता से और कभी अपनी परिचारिका से !सुनयना सभी महिलायें संग सीता और राम को साथ लेकर फूलों से सजे सुनहरे पालकी में बिठाया ।
पालकी उठते ही पंडित जी जोर से सस्वर मंगलाचरण पाठ करने लगे,
“ॐ गणानान्त्वा गणपति........... वसो मम अहम्...”
सीता की हृदय विदारक चीख वातावरण में गूंज उठी।समीप खड़े सगे-संबंधी नौकर-चाकर सब के सब भावुक हो गये।अंबर भी सीता को विलखता देखकर रो पड़ा ! बूंदा-बांदी शुरू हो गई ! सभी यही कहने लगे कि स्वर्ग से देवता-पितर प्रसन्न होकर , नव दम्पति को आशीर्वाद दे रहे हैं । गाजे-बाजे के साथ पालकी नजरों से बहुत दूर होती चली गयी ! सुनयना और जनक, शून्य आँखों से पालकी को ओझल होने तक एकटक देखते रहे ।सीता के बचपन से लेकर अभी तक का एक-एक पल माता-पिता के दिल को छलनी कर रहा था।पथराई आँखों से वो सीता के पदचिन्हों को निहार रहे थे।मानो उसमें अपनी लाडली की छवि दिख रही हो ।
पर...समय, कभी किसी का इन्तजार नहीं करता ! वो अपनी गति से आगे बढ़ रहा था।भू-गर्भ से जन्मी इस अलभ्य कन्या के ऊपर समय ने इतिहास लिखना शुरू कर दिया...................................................................................................
“जब आधुनिकता की कोई परिकल्पना नहीं थी, उस कालखंड में वर्ण और गोत्र को आधार मानकर ही समाज का वर्गीकरण हुआ करता था।उस समय राजा जनक ने इस अनाथ कन्या को अपनी पुत्री के रूप में अंगीकार कर लिया।उन्होंने न केवल अंगीकार किया बल्कि यह कन्या (सीता.).....जनक और सुनयना की प्राणाधार बन गई।उस समय जनक ने तनिक भी विचार नहीं किया कि यह अनाथ कन्या किस कुल--गोत्र की है ? किस वर्ण की है ? किसका खून इसकी रगों में दौड़ रहा है ? जनक के मन में बेटा-बेटी में कोई भेद नहीं था। वो समदर्शी थे , उनकी नजरों में मिटटी और सोना एक समान था।क्योंकि, वो जानते थे कि शरीर छोड़ने के बाद सभी को इसी मिटटी में सोना पड़ता है ।सही मायने में जनक ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को जीना पसंद करते थे।उनके दरबार की हर जगह चर्चा थी।क्योंकि जनक के दरबार में भारतीय कर्मकांड शास्त्र के प्रणेता याज्ञवल्क्य और न्यायदर्शन के प्रणेता गौतम रहते थे।राजा होने के बावजूद...सांसारिक मोह-माया, राग-द्वेष, भोग-विलास सभी से जनक परे थे । इसलिए तो समाज ने उन्हें विदेह की उपाधि से नवाजा।इस पृथ्वी पर... जनक ही एक मात्र ‘विदेह’ के रूप में जगतविख्यात हुए ।
ऐसे युगांतरकारी विकास और वैयक्तिकरण के मूल में सिर्फ एक पिता की जिजीविषा थी।इस वर्तमान युग के मानवीय आदर्श और उदार विचारधारा से भी अधिक आदर्शवादिता विदेह ने दिखाई और उनकी पुत्री वैदेही ने... वर्तमान काल के नारी स्शक्तिकरण के उच्चतम मापदंड को स्थापित करके दिखला दिया ।”