विचारों का सागर
विचारों का सागर
वेदों में प्रकृति के विभिन्न रूपों की बढ चढकर आराधना की गयी है। प्रकृति के सभी रूपों भूमि, जल, सागर, नदियों, सूर्य, चंद्र, अग्नि, पवन आदि को देव या देवी कहा गया है। तथा इंद्र को देवराज कहा गया है। इंद्र की प्रशंसा में सबसे अधिक ऋचाएं लिखी गयी हैं। इंद्र प्रकृति को नियंत्रित रखते हैं। उचित बारिश कराकर मानव सभ्यता पर उपकार करते हैं।
पुराणों में प्रकृति का मानकीकरण कर इंद्र को एक पद के रूप में उल्लेख किया गया है। वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर के इंंद्र का नाम पुरंदर बताया गया है।प्रकृति का मानवीकरण कर लिखी कथाएं कुछ विशेष संदेश देती हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में ऐसी ही एक कथा है। विभिन्न गोप देवराज इंंद्र के पूजन की तैयारी कर रहे थे। देवराज इंद्र को वह अपना इष्ट देव मानते थे। तभी भगवान श्री कृष्ण ने इस पूजा के विषय में अनेकों प्रश्न किये। फिर उन्होंने कहा कि देवराज इंंद्र निश्चित ही नगर वासियों के इष्ट देव हो सकते हैं। हम वनवासियों के नहीं। हम तो गायों की सेवा में लगे रहते हैं। गायों से प्राप्त दूध, दधी, मक्खन आदि को नगर में बेचकर हमारी जीविका चलती है। इस तरह हमारी इष्ट देवी गोमाता हुईं। तथा जिस गोवर्धन पर्वत की पौष्टिक घास और जड़ी बूटियों को खाकर हमारी गायें पुष्ट होती हैं, वही गोवर्धन पर्वत हमारे इष्ट देव हुए।
इसी वार्तालाप में भगवान श्री कृष्ण यह भी कहते हैं कि गायों की देखभाल करने बाले हम गोप तो कहीं एक जगह गांव बसाकर भी नहीं रहते है। फिर हमारे देव तो अलग तरह के हुए।भगवान श्री कृष्ण की बातों का समर्थन विभिन्न ऋणि और मुनि भी करते हैं। फिर विभिन्न गोप इंद्र के स्थान पर गोवर्धन महाराज की पूजा करते हैं।
उल्लेख है कि गोवर्धन महाराज ने गोकुल वासियों को प्रत्यक्ष दर्शन दिया। तथा उनका रूप भगवान श्री कृष्ण के रूप जैसा गोकुल वासियों ने देखा। जो कि कण कण में उसी ईश्वर के अस्तित्व का द्योतक है।
गोपों द्वारा पूजन न किये जाने से नाराज देवराज इंंद्र ने प्रलय के मेघों को पूरा गोकुल जल में डुबा देने की आज्ञा थी। पर भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी छोटी अंगुली पर धारण कर मानवों व पशुओं की रक्षा की। हालांकि प्रलय कालीन मेघों का जल गोवर्धन पर्वत को भी नहीं छू पाया था। भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र द्वारा सारा जल अंतरिक्ष में ही सोख लिया था। फिर भी गोप यही समझते रहे कि उनकी रक्षा गोवर्धन महाराज ने की है। तथा श्री कृष्ण ने भी यही बात प्रचारित करायी।
माता कामधेनु ने गायों की रक्षा करने के कारण भगवान श्री कृष्ण को गोविंद (गायों के इंंद्र) कहकर सम्मानित किया।
प्रकृति के मानवीकरण की इस कथा में दो चरित्र प्रमुख हैं। देवराज इंद्र जो कि प्रकृति के ही देव हैं, उन्हें प्रकृति के रूपों को सम्मानित कराना पसंद नहीं है। वह उस अधिकारी या नेता का प्रतीक हैं जो कि विभिन्न सफलताओं का श्रेय अपने अधीनस्थों को देना पसंद नहीं करता है। जो कि हर सफलता का श्रेय केवल और केवल खुद चाहता है। जो कि यही चाहता है कि लोग केवल उसी का गुणगान करें। विभाग की तरक्की में उसके अतिरिक्त किसी अन्य का भी गुप्त योगदान रहा है, इस सत्य को वह स्वीकार नहीं कर पाते।
दूसरा चरित्र भगवान श्री कृष्ण का है। जो कि हर आपदा से निपटने में सक्षम हैं। प्रलय कालीन मेघों से भी उन्होंने ही गोकुल की रक्षा की। पर पूरा श्रेय गोवर्धन महाराज को दिया। उनकी पूजा भी की। सभी को गोवर्धन महाराज की पूजा करने के लिये प्रेरित किया। मैनेजमेंट की पुस्तकों में मैनेजर का सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। मैनेजर हमेशा अधिकारी से अलग होता है। मैनेजर पूरी टीम को साथ लेकर चलता है। तथा पूरी टीम को श्रेय देता है। जीवन में सफलता वही प्राप्त करते हैं जिनका चरित्र भगवान श्री कृष्ण की तरह पूरे दल को श्रेय देने का रहा है। अपने सहकर्मियों के विश्वास पर खरा उतरा वह किसी भी आपदा से निपटने में सक्षम है।
आज देहाती क्षेत्रों में दीपावली के समान ही आयोजन किया जाता है। गाय और भैंस के गोबर से बहुत बड़े गोवर्धन महाराज की स्थापना की जाती है। उनकी बड़ी सी नाभी में दूध भरा जाता है। बच्चों का भी अच्छा मनोरंजन हो जाता है। वह भी अपने अपने तरीकों से विभिन्न कलाकृतियों का निर्माण करते हैं। कुत्ता, मनुष्य, पानी भरने जाती स्त्री, दावत के लिये बैठा मनुष्यों का समुदाय, यह मुख्य कलाकृति होती हैं। आज अन्नकूट का प्रसाद बनाया जाता है। जो कि अनेकों तरीकों की सब्जियों का मिश्रण होता है।