पुनर्मिलन भाग ३७
पुनर्मिलन भाग ३७
कक्ष के भीतर श्री कृष्ण और राधा तत्वों पर माता रोहिणी बता रहीं थीं। रानियाँ अति श्रद्धा से प्रेम की देवी की गाथाओं को सुन रहीं थीं। बाहर श्री कृष्ण, भाई बलराम और बहन सुभद्रा तीनों उन प्रेम गाथाओं को सुन जड़ रूप हो गये। हाथ, पैर और ग्रीवा धड़ में समा गये। बड़ा अद्भुत रूप था। कोई ईश्वर को निराकार होता है, कोई उन्हें साकार कहता है, पर हस्त, पाद, और ग्रीवा रहित वह रूप साकार और निराकार दोनों का संगम था। कभी जिस निराकार की महिमा ज्ञानी उद्धव समझाने ब्रज में गये थे, जिस साकार रूप का पक्ष गोप बालाओं ने लिया था, उन्हीं गोपियों की कथा सुनकर श्री कृष्ण ने वह रूप रख लिया जो निराकार और साकार के भेद को मिटा रहा था। युग बीता। दूसरे और भी कथानक बने। उड़ीसा के नरेश को श्री कृष्ण ने उसी रूप में दर्शन दिये। और आज भी श्री कृष्ण, अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ पुरी धाम में उसी जगन्नाथ रूप में विराजित होकर अपने भक्तों को दर्शन देते हैं जो कभी उन्होंने द्वारिका पुरी में राधा जी की गाथाओं को सुनकर रखा था।
श्री कृष्ण की रानियों में केवल माता कालिंदी राधा जी के पवित्र प्रेम से परिचित थीं, केवल वही राधा जी के प्रत्यक्ष स्वरूप से परिचित थीं, पर इस घटना के बाद से अन्य सभी रानियों के मन में उन प्रेम की देवी के दर्शनों की इच्छा बलबती होती गयी। वे जानतीं थीं कि कर्तव्य पथ पर आगे बढते उनके पति के लिये प्रत्यक्ष रूप में वृंदावन जाना संभव नहीं होगा। फिर अपने पति के बिना वह भी किस तरह राधा जी के दर्शन कर पाने में सक्षम हो पायेंगी।
जब तक ज्ञान न था तब तक उत्सुकता न थी। अब ज्ञान के बाद जब और उत्सुकता बढी तब उस उत्सुकता के निवारण का कोई साधन न था। श्री राधा जी के प्रत्यक्ष दर्शनों के लिये मात्र प्रार्थना की जा सकती है। रानियों की प्रार्थना चलती रही। श्री कृष्ण अवतार लीला भी आगे बढती गयी। धर्म युद्ध महाभारत में धर्म के पक्षधर पांडवों की विजय हुई। दूसरी तरफ खुद श्री कृष्ण ने शिशुपाल, दंतवक्र, शाल्व जैसे आतताइयों का अंत कर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना की। इन सबके अतिरिक्त उसी गोलोकवासी सुदामा गोप का श्री कृष्ण ने उद्धार किया जिसके श्राप से राधा जी को शत वर्षों का वियोग मिला था। भगवान के सारूप्य रूपी मुक्ति का पक्षधर वह सुदामा गोप जब राधा जी के श्राप से पृथ्वी पर जन्मा, तब बचपन से ही श्री कृष्ण के समान रूप बनाने लगा। बड़ा होने पर पूरी तरह श्री कृष्ण की ही भांति रहने लगा। उसने अपने आयुधों का नाम भी सांग, नंदन, कौमुदी और सुदर्शन रख लिया था। अपने रथ को वह गरुड़ध्वज कहकर बुलाता था। उसके सारथी का नाम भी दारुक था। पृथ्वी लोक पर श्री कृष्ण के परम विरोधी का रूप रखे वह पौंडक श्री कृष्ण के हाथों ही वीरगति को प्राप्त हो, सारूप्य मुक्ति का आश्रय लेकर सुदामा गोप के रूप में गोलोक में उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
यह रानियों की नित्य आराधना का प्रभाव था, अथवा सुदामा गोप के श्राप की पूर्णता का प्रभाव था अथवा लीला संवरण से पूर्व पृथ्वी लोक की अवतार लीला के समापन की पृष्ठभूमि तैयार करना मुख्य उद्देश्य था, श्री कृष्ण और राधा जी के पुनर्मिलन की भूमिका तैयार होने लगी। जिस अवतार का आरंभ ही माधुर्य और प्रेम से आरंभ किया, उस अवतार का समापन भी उसी माधुर्य और प्रेम से ही करना था। पूरे जीवन की ऐश्वर्य लीला को माधुर्य के कुछ काल के मध्य सीमित करना था। अथवा और भी कारण रहे हों जो लेखक की अल्प बुद्धि में समा नहीं रहे हों। जैसे श्री कृष्ण और राधा जी की प्रेम लीला, उनकी विरह लीला को पूरी समझ पाना संभव नहीं, उनकी पुनर्मिलन लीला को सही तरह समझ पाने में भला कौन समर्थ है।
क्रमशः अगले भाग में

