पुनर्मिलन भाग ३२
पुनर्मिलन भाग ३२
चेहरे पर कुछ उदासी का भाव रख, आंखों को मलते हुए, मानों आंखों के अश्रु छिपाने का प्रयास कर रहे हों, देवर्षि गोपियों की तरफ बढे तो लगभग रोते हुए से साधु को देख सभी गोपांगनाएं उनके पास आ गयीं। जीव मात्र से स्वाभाविक स्नेह करतीं उन गोपियों के लिये एक सन्यासी का दुख उनके खुद के दुख से बढकर था। सन्यासी के दुख निवारण की इच्छा रखी वह गोप बालाएं जानती न थीं कि सन्यासी के दुख के निवारण का उपाय पूरे विश्व में केवल उन्हीं के पास है। अथवा संभावना यह भी है कि वे गोप बालाएं पहले से ही मधुसूदन की लीला से परिचित थीं। आखिर नित्य श्री कृष्ण से मानसिक मिलन करती उन प्रेमधनिकाओं के लिये श्री कृष्ण का कौन सा तथ्य अज्ञात था।
" महात्मन। आपका इस तरह शोक का क्या कारण। सन्यासी हमेशा संसार का शोक दूर करते हैं। निजी संबंधों की ममता वह पहले ही त्याग चुके होते हैं। फिर सन्यासियों का स्नेह और शोक दोनों ही विश्व कल्याण के लिये ही होते हैं। महात्मन। आपका यह दुखी मुख स्पष्ट कह रहा है कि विश्व में कोई विशेष आपत्ति आयी हुई है। वह आपदा क्या है, क्या आप मुझे अवगत कर सकते हैं। " राधा जी की परम सखी ललिता ने कहा तो देवर्षि फूट फूट कर रोने लगे। बहुत देर तक रोते रहे। अभिनय में दक्ष देवर्षि अभिनय का कोई भी मौका भला कैसे छोड़ते।
" देवियों। आपका अनुमान सत्य ही है। अभी धरती का भार कम हुआ नहीं, दुराचारियों का संहार हुआ नहीं, वन वन भटक रहे धर्म के राही पांडवों को अभी न्याय मिला नहीं, उससे पूर्व ही श्री कृष्ण के रूप में भगवान नारायण अपनी लीला संवरित करने का विचार कर रहे हैं। तभी तो ऐसी असाध्य व्याधि से ग्रसित हो गये हैं जिसका उपचार ही लगभग असंभव है। औषधि है पर उस औषधि का दाता कहीं भी नहीं है। द्वारिका का महल जो विप्रो के मुख से गाये जाते सामवेद के मंत्रों की ध्वनियों से गुंजायमान होता था, आज रानियों के रुदन से भरा हुआ है। इधर मैं अभागा, मन में शोक रखे, उस अमोघ औषधि का अन्वेषक करने निकला हूँ जो कि लगभग दुर्लभ ही है। "
" अरे। हमारे प्राणाधार श्री कृष्ण अस्वस्थ हैं। औषधि के अभाव में कष्ट पा रहे हैं। वही वेदना तो हम सभी अपने मनों में अनुभव कर रही हैं। मुनिवर। सत्य बतायें। श्री कृष्ण के उपचार की औषधि कहाँ मिलेगी। उस औषधि का क्या रूप है। उसे हम किस तरह पहचानेंगे। यदि अपने प्राणधन के लिये वह औषधि न ढूंढ पाये तो फिर हमारा जीवित रहना ही व्यर्थ है। अब या तो उस दुर्लभ औषधि का अन्वेषण कर अपने प्राणेश्वर के प्राणों की हम रक्षा करेंगें अथवा अपना जीवन ही त्याग देंगें। " एक साथ सभी गोपियों के समवेत स्वर उठने लगे।
" गोपियों। दुख की बात यह नहीं कि वह औषधि अप्राप्त है। दुख की बात है कि श्री कृष्ण को पति रूप में पूजने बाली कोई स्त्री उन्हें मस्तक पर लगाने के लिये अपने चरणों की धूल भला कैसे दे सकती है। "
" अरे महात्मन ।इतना सुगम उपाय। आप मेरे चरणों की धूल ले जाइये। यहाँ ब्रज में कोई भी गोप बाला श्री कृष्ण के कष्ट निवारण के लिये अपनी चरण धूल देने से मना नहीं करेगी। " श्री राधा ने अपने चरणों के नीचे की धूल एकत्रित कर ली। एक वस्त्र में उन्हें भरकर पोटली बना वह पोटली देवर्षि के हाथों में सौंप दी।
" देवी राधे। आपने हमेशा श्री कृष्ण को पति रूप में प्रेम किया है। शायद आपको सत्य ज्ञात नहीं है। अपने पति को चरण धूल देने बाली स्त्री को मृत्यु के उपरांत भयानक नरकों में अपार कष्ट उठाना होता है। पाप के प्रभाव से ऐसी स्त्रियां न तो इस जन्म में सुख प्राप्त करती हैं, न परलोक में और तो और अगले जन्मों में भी अपार कष्ट पाती हैं। पाप और पुण्य का विचार कर ही कार्य करना वास्तविक विवेक है। "
" महात्मन ।हम पाप और पुण्य नहीं जानतीं। पाप और पुण्य के विषय में हमें जानना भी नहीं है। हम प्रेम पथ की साधिकाएं, हम केवल प्रेम के अतिरिक्त भला क्या जानती हैं। और प्रेम है - प्रेमी के लिये खुद के सुखों का भी त्याग। पूर्ण समर्पण। यदि हमारी चरण रज से हमारे प्रिय का कष्ट दूर होता है तो हम उन्हें अपने चरणों की रज निवेदित करेंगें फिर चाहे हमें युगों तक नरकों की भीषण अग्नि में ही क्यों न जलना पड़े। नरक के कष्टों के भय कारण यदि हमने अपने प्रिय का कष्ट दूर नहीं किया तो फिर हमारे प्रेम का क्या अर्थ। महात्मन। हम इहलोक, परलोक और आगामी जन्मों के कष्टों को सहर्ष सहन कर लेंगीं। पर अब आप शीघ्र ही हमारे चरणों की धूल लेकर हमारे प्रियतम के निकट चले जायें। उन्हें शीघ्र ही उनके कष्टों से मुक्ति प्रदान करें। "
देवर्षि के मुख से श्री राधे की ध्वनि निकली। उन्होंने खुद श्री राधा जी की चरणों से धूल उठाकर अपने मस्तक पर लगायी और श्री राधा जी की चरण धूल की पोटली को लेकर द्वारिका की तरफ चल दिये।
क्रमशः अगले भाग में
