पुनर्मिलन भाग ३०
पुनर्मिलन भाग ३०
वृंदावन में यमुना किनारे भ्रमण करते, देवी राधा के पुनः दर्शन की कामना लिये देवर्षि नारद उस क्षण को स्मरण कर रोमांचित हो रहे थे जबकि उन्होंने प्रथम बार देवी राधा का दर्शन किया था। उस दिन सुबह के समय ही आसमान में कुछ बदली सी छायी हुई थी। गोचारण से पूर्व गायों को स्नान आदि करा स्वच्छ किया जा रहा था। कुछ गायों का दूध दुहा जा रहा था। कुछ घरों में से दही मथने की ध्वनि आ रही थी। नारायण नारायण का जाप करते हुए नारद के स्वर अचानक श्री कृष्ण, श्री कृष्ण के स्वर में बदल गये। देवर्षि खुद इस बदलाव पर चकित हुए। अचानक मर्म समझ रोमांचित हो गये। इसी गांव में श्री हरि ने श्री कृष्ण के नाम से अवतार गृहण किया है। फिर मनुष्य लोक में उनके रूप दर्शन की इच्छा मन में बलबती हो गयी। श्री हरि ने कितने ही बार मनुष्य रूप में अवतार लिया है। प्रत्येक बार अलग अलग रूप और रंग गृहण किया है। उनकी जानकारी के अनुसार वैवस्वत मन्वंतर की अठ्ठाइसवीं चतुर्युगी के द्वापर के अंत में श्री हरि, कृष्ण वर्ण रूप रख अवतरित होंगें। फिर श्री नारायण के अवतार उन श्री कृष्ण की लीला भूमि यहीं है।
गांव में एक साधु को आया देख गोप हाथ जोड़कर उनके पास आये और उन्हें अपने मुखिया नंद गोप के घर ले गये। नंद गोप ने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। एक उत्तम आसन बैठने को दिया। शीतल जल के स्थान पर मक्खन युक्त मठ्ठे का पान कराया। फिर आतिथ्य स्वीकार करने का अनुरोध किया। नारद दो घड़ी से अधिक कहीं रुकते न थे। अतः मात्र दो घड़ी के समय तक रुकना स्वीकार कर लिया।
" आपकी श्रद्धा देख मैं अति प्रसन्न हुआ हूँ। अब साधु सन्यासियों के प्रति लोगों के मन में श्रद्धा नहीं रही। ऐसे में आप सभी का आचरण अति हर्ष का विषय है। वैसे सत्य है कि साधु संत केवल भिक्षा नहीं लेते अपितु प्रतिउत्तर में ज्ञान भी देते हैं।"
नंदराज शांत थे। पर लगा कि वह कुछ कहना चाहते हैं।
" आप कुछ कहना चाहते हैं नंदराज। "
" हाॅ स्वामी। साधु संत ईश्वर की भांति अहैतुक दयालु होते हैं। ज्ञान के विषय में हम गांव के अज्ञानी क्या जानें। सच है कि हम निपूते थे। मैं ही नहीं अपितु मेरे बड़े भाई महानंद और छोटे भाई उपनंद भी संतान की कामना से दुखी थे। जीवन का उत्तरार्द्ध आ गया। आश्चर्य की बात है कि हम भाइयों की पत्नियों के मासिक धर्म ही बंद हो गये। साधु संतों की लगातार सेवा से एक दिन बड़ी आश्चर्य की घटना घटित हुई। भाभी, मेरी पत्नी और छोटे भाई की पत्नी को पुनः संतान जन्म देने में सक्षम स्त्रियों के अनुसार मासिक धर्म आरंभ हो गये। गांव के वैद्य जी के अनुसार यह असंभव था। मेरा मानना है कि साधुओं की सेवा के प्रभाव से ही असंभव संभव हुआ। जब कोई आशा न थी, हम सभी भाई पुत्रवान बने। यह संतों के आशीर्वाद का ही तो परिणाम है। "
उसी समय यशोदा रानी छह माह के श्री कृष्ण को लेकर आयीं और श्री कृष्ण को आशीर्वाद दिलाने की इच्छा से देवर्षि के चरणों में लिटा दिया। वह नटखट भूमि पर भी शांत बैठना नहीं जानता था। कृष्ण नाम का अर्थ काले वर्ण का के अतिरिक्त, ' कर्षयति यः सः कृष्णः' अधिक उचित लगा। उन महोहारी की छवि देवर्षि के चित्त को इस तरह आकर्षित करने लगी कि प्रजापति दक्ष के श्राप की गति ही रुक गयी। मात्र दो घड़ी एक स्थान पर रुक पाने में सक्षम देवर्षि नारद न जाने कितने पल बालकृष्ण को अपलक निहारते रहे। यदि प्रजापति दक्ष के श्राप को मान न देना होता तो संभवतः वह वहीं गोकुल में ही एक कुटी बनाकर रुक जाते। श्री हरि की बाल लीलाओं को अपने नैंत्रों से देखते। खुद भी उन माधुर्य लीलाओं का हिस्सा बनते। पर यह संभव न था। श्री हरि की इच्छा से मिले आशीष या श्राप दोनों का ही कुछ विशेष अर्थ होता है। अक्सर वह विशेष अर्थ आसानी से समझ में नही आता। उस समय देवर्षि को भी इस विषय में कुछ भ्रम होने लगा। पर शीघ्र ही यथार्थ का स्मरण आते ही उस श्राप में श्री हरि की कृपा का अनुभव होने लगा।
नित्य भ्रमण में तल्लीन देवर्षि गोकुल से आगे बढे तो न जाने कितने ही गांवों में जाने लगे। जब श्री हरि धरा पर आये हैं तो उनकी माधुर्य शक्ति, उनकी नित्य सहचरी भी धरा पर अवतीर्ण हुई हैं, उनके दर्शन की कामना लिये ब्रज क्षेत्र के कितने ही गांवों में भटकते हुए देवी राधा का अन्वेषण करने लगे। जानते थे कि श्री कृष्ण की तरह देवी राधा भी छिप नहीं सकतीं। प्रकृति खुद संकेतों से उनकी जन्म भूमि को संकेत से बता देगी। प्रकृति के उन सूक्ष्म अंतरों का अन्वेषण करते वह देवी राधा को ढूंढ रहे थे। सत्य ही है कि ईश्वर को प्राप्त करना आसान है। पर भक्ति और प्रेम को ढूंढना ईश्वर को ढूंढने से भी अधिक कठिन है। अथवा सत्य यही है कि ईश्वर की कृपा से ही भक्ति का अन्वेषण संभव है।
क्रमशः अगले भाग में
