पुनर्मिलन भाग ३४
पुनर्मिलन भाग ३४
जिसका भय था, वही हुआ। पर जिसका अनुमान भी किसी ने नहीं किया था, वह भी घटित हो गया। श्री राधा जी की माधुर्य और प्रेम की लीलाएं सुनते सुनाते कोई भी इहलोक में न था। शरीर जरूर द्वारिका के राजमहल के कक्ष में था पर मन से सभी रानियां पवित्र गोलोक में विचरण कर रहीं थीं। उस परम पवित्र प्रेम की सरिता में स्नान कर रहीं थीं।
देवी सुभद्रा द्वार पर रखबाली के लिये बैठी खुद अपनी सुध बुध भूल गयीं। जिन श्री कृष्ण और बलराम जी के आगमन की सूचना उन्हें देनी थीं, उन दोनों के आगमन पर भी वाह्य जगत में वापस न आ पायीं। भीतर माता रोहिणी श्री कृष्ण की पत्नियों को गोकुल की कथाएं सुना रहीं थीं, गोपियों के स्नेह की गाथाएं बता रहीं थीं, राधा जी के माधुर्य का बखान कर रहीं थीं। साथ ही साथ वह गुप्त लीला बता रहीं थीं जो उन्होंने कभी महर्षि शांडिल्य के मुख से सुनी थी, जिसके अनुसार पृथ्वी लोक में भी देवी राधा कुमारी न होकर श्री कृष्ण की विवाहिता प्रथम पत्नी हैं। बाहर श्री कृष्ण और बलराम जी खुद उन अनोखी गाथाओं को सुन हर्षित हो रहे थे। उनका मन भी वहीं गोलोक में विचरण करने लगा।
देवी सत्यभामा ने कहा।
" माता। हमारे स्वामी ने किसी के प्रेम को कभी अस्वीकार नहीं किया। उनके प्रेम निवेदन स्वीकार करने का ही प्रभाव है कि हम हजारों रानियों को वह पति रूप में प्राप्त हुए हैं। फिर श्री कृष्ण का देवी राधा से मात्र प्रेम करना, उनसे विवाह न करना, यह हमारी समझ में नहीं आया। जब हम इतनी रानियाँ बहनों की भांति साथ साथ रह सकती हैं तो देवी राधा को तो हम अपने पति की जीवन संगिनी के रूप में अवश्य ही स्वीकार करतीं। "
" किसने कहा आपसे कि श्री राधा, श्री कृष्ण की पत्नी नहीं हैं। सत्य तो यही है कि श्री कृष्ण ने श्री राधा से विधिवत विवाह किया था। उससे भी बड़ा सत्य यह भी है कि इस सत्य को बहुत कम लोग जानते हैं। यदि महर्षि शांडिल्य हमें यह सत्य न बताते तो संभवतः मुझे भी यह सत्य ज्ञात न होता। " माता रोहिणी ने बताना आरंभ किया।
" बेटियों। यह उस समय की बात है जबकि श्री कृष्ण ने मथुरा जाकर मथुरा वासियों को कंस के आतंक से मुक्त कर दिया था। नाना उग्रसेन सहित पिता वसुदेव और माता देवकी को कारागार से मुक्त कर दिया था। मथुरा नरेश के रूप में पुनः महाराज उग्रसेन का राज्याभिषेक कर दिया था। विपत्ति की घड़ियां बीत गयीं थीं। मुझे पुनः पति दर्शन का सौभाग्य मिलने बाला था।
वह बड़ा ही विचित्र समय था। एक मिलन के साथ एक वियोग भी सामने था। इतने समय जिन नंदराज और यशोदा के घर पर मुझे आश्रय मिला था, उनसे वियोग असह्य हो रहा था। उस वियोग के क्षण को बृषभानुनंदनी की उपस्थिति ने और भी अधिक भावुक कर दिया। यह विधि का कैसा विधान है कि स्नेह बंधन के अवसर पर विरह की प्राप्ति होती है। जिस किशोरी को उस महात्मा ने श्री कृष्ण की सहचरी बताया था, क्या उन महात्मा का वचन मिथ्या हो गया। नहीं। महात्मा का वचन मिथ्या तो नहीं होगा। मैं भले ही श्री कृष्ण की जन्मदात्री नहीं, फिर भी उनकी माॅ तो हूँ। बृषभानुलली को भी मैं अपने साथ मथुरा लेकर जाऊंगी। वहीं उन दोनों का विवाह रचाऊंगी। बचपन के दो प्रेमियों का मिलन करा दूंगीं।
पर मेरा वह निश्चय पूर्ण न हो पाया। किशोरी ने अस्वीकार कर दिया। संभवतः वह जानती थीं कि श्री कृष्ण के वियोग में केवल उनकी उपस्थिति ही नंदराज और यशोदा रानी को जीवन दे सकती है। यदि वह भी केवल अपने सुख की चिंता कर मथुरा चली गयीं तो फिर विरह पीड़ितों का आसरा कौन बनेगा।
ब्रज से विदा होकर मार्ग में महर्षि शांडिल्य के आश्रम में उन्हें प्रणाम करने मैं पहुंचीं। उस समय भी राधा के प्रेम की अपूर्णता मन को खिन्न कर रही थी। उसी समय महर्षि शांडिल्य ने वह रहस्य की बात बतायी जो मुझे भी ज्ञात न थी। आखिर दिव्य लोगों के दिव्य चरित्र आसानी से कब ज्ञात होते हैं। "
माता रोहिणी कुछ क्षण रुकीं। श्री कृष्ण और राधा जी के रहस्यमई चरित्रों में से एक और रहस्य को जानने के लिये रानियों का मन वैचैनी की अवस्था तक पहुंच गया।
क्रमशः अगले भाग में

