पुनर्मिलन भाग ३१
पुनर्मिलन भाग ३१
पुनर्मिलन भाग ३१
बालकृष्ण के दर्शनों के बाद देवर्षि ढूंढ रहे थे उनकी माधुर्य शक्ति को जो जगत को बरबस ही मुग्ध करने की क्षमता रखती थीं। ढूंढते ढूंढते कई दिन गुजर गये। कितने ही गांवों में उन्होंने मधुकरी कर ली। पर वह नहीं मिला जिसकी चाहत में वह दर दर भटक रहे थे। गोकुल से दूर बरसाना गांव में उन्हें फिर से वही अनोखी छटा दिखाई दी। प्रकृति अपने मनोरम रूप में थी। रवि प्रकाश तो कर रहे थे, पर उनका ताप धरा को दग्ध नहीं कर रहा था। पवन में एक आलौकिक सुगंध और पवित्रता थी। जीव अपने स्वाभाविक वैर को त्याग साथ साथ विचर रहे थे। बरबस देवर्षि के मुख से निकल गया - "हाॅ। यही है श्री राधा धाम । यही तो है उन परम शक्ति का निवास।" फिर उनके चरण स्वतः ही गांव के मुखिया वृषभानु जी के आवास की तरफ बढने लगे। मानों चरण अपने गंतव्य को पहचानते हैं।
नंदराय की भांति बृषभानु जी की भी साधु सन्यासियों के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे। नारद जी को देखते ही उनके चरणों में प्रणाम कर उन्हें अपने घर ले आये। माता कीर्ति ने देवर्षि के लिये स्वादिष्ट भोजन बनाया। नारद जी भोजन करते जाते और महल में ताकते जाते। किसी शिशु की उपस्थिति उन्हें प्रतीत नहीं हो रही थी। शिशुओं का जीवन तो कोलाहल युक्त होता है। शांति तो बुजुर्गों का स्वभाव है।
" घर में क्या कोई बच्चे नहीं हैं भक्तराज। इतनी शांति क्यों।" नारद जी ने प्रश्न कर दिया। उसी के साथ बृषभानु दंपति को अपनी पीड़ा का ध्यान आया। साधुओं के लिये कुछ भी असंभव नहीं। उनके आशीष से तो ईश्वर का विधान भी बदल जाता है। फिर एक साधु का खुद उस विषय में पूछने का अर्थ तो यही है कि महर्षि की कृपा उनपर होने बाली है। दोनों पति पत्नी देवर्षि के चरणों में झुक गये। देवर्षि आश्चर्य में। उनका प्रकृति अनुमान किस तरह मिथ्या हो गया।
काफी देर बाद दोनों पति पत्नी शांत हो पाये। अपने मन की पीड़ा को अपने मुख से व्यक्त कर पाये।
" महाराज। बहुत बार सब कुछ होने पर भी मनुष्य अकिंचन ही होता है। इतनी गायों के स्वामी हमारे जीवन में संतान सुख न था तो कोई बात नहीं। हम तो वैसे भी संतोष कर चुके थे। पर विधाता ने फिर एक के बाद एक तीन संतान हमें दीं। फिर भी हम दुखी हैं। बड़ा पुत्र श्री दामा जो लगभग दो वर्ष का है, एकदम शांत प्रवृत्ति का, चेष्टाहीन , पता नहीं किस बीमारी से पीड़ित है, जिसका ज्ञान किसी भी वैद्य को नहीं हो रहा है। विधि का विधान कि देवी कीर्ति फिर से गर्भवती हुईं। पर दूसरी संतान के जन्म से पूर्व ही हमारे जीवन में एक और संतान का आगमन हुआ। सरोवर में खिले सुनहरे कमल पुष्प पर शयन करती एक अति सुंदर कन्या कीर्ति की माता जी और मेरी सासू मां को प्राप्त हुईं। उस मनोहारी कन्या को मेरी सास ने मेरी पत्नी को दे दिया। वह कन्या राधा हमेशा ही अपने नैत्र बंद किये रखती है। जैसे बड़े से बड़े प्रयत्न से योगी का ध्यान भंग नहीं होता, उसी तरह राधा भी आज तक अपने ध्यान जगत से बाहर नहीं आयी है। उससे छोटा पुत्र सुबल जो राधा से मात्र कुछ माह ही छोटा है, केवल अपनी भगिनी को और ताकता रहता है। तीनों भाई बहनों का यह व्यवहार हमारी समझ से परे है। महात्मन। आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। हमारी तीनों संतानों को आप ही स्वस्थ कर सकते हैं। "
फिर दवर्षि के कहने पर कीर्ति रानी तीनों बच्चों को ले आयीं। राधा को देख देवर्षि खुद को ही भूल गये। जन्म से ही श्री कृष्ण के ध्यान में रत राधा जी की इहलोक लीला के आरंभ का हेतु देवर्षि बने। जैसे ही देवर्षि ने अपने मुख से श्री कृष्ण नाम का उच्चारण किया, उसी समय राधा ने अपनी आंखें खोल दीं। उनके मुख पर दिव्य मुस्कान आ गयी। बहन को हंसते मुस्कराते देख अभी तक जड़ की भांति आचरण करते आये श्री दामा अपने नन्हे नन्हे हाथों से ताली बजाकर तुतलाते हुए श्री कृष्ण, श्री कृष्ण पुकारने लगे। राधा जी के छोटे भाई सुबल भी अपने दोनों हाथ ऊपर उठाने लगे जैसे कि किसी ईश्वर भक्त के दोनों हाथ श्री हरि के कीर्तन की ध्वनि सुन खुद व खुद कीर्तन करने की मुद्रा में उठने लगते हैं।
यों देवर्षि श्री राधा की कितनी ही लीलाओं को दूर से देख उनके नाम का भजन करते रहे पर प्रत्यक्ष में आज वह दूसरी बार जगजननी राधा जी का दर्शन करने आये थे। शीघ्र ही वृंदावन धाम में यमुना तट पर अपनी सखियों के साथ भ्रमण करतीं श्री राधा उन्हें मिल गयीं। देवर्षि का आगमन सफल हुआ। दूर से ही राधा जी को प्रणाम कर देवर्षि उनके निकट पहुंच गये।
क्रमशः अगले भाग में
