उखड़ी बिंदिया
उखड़ी बिंदिया
बहुत दिन ... मेरा मतलब पंद्रह दिन हो गये ... मैंने कुछ लिखा ही नहीं जबकि मौका भी था ... दस्तूर भी था और आइडिया भी ।
खैर , एक दिन यूँ ही कलम उठाई तो जो लिखा वो खुद को ही पसंद नहीं आया । वे लिखें शब्द आपस में ही उलझें रहे बिल्क़ुल मेरे मन की तरह । उस लिखें पर ही मैं यूँ ही ड्राइंग बनाने लगा .... कुछ ही समय में ड्राइंग पूरी हुई तो एक शब्द मेरे मन से निकल कर कागज पर फैल गया ....कैन्सिलड
ये शब्द मेरे दिमाग में हथौडे की तरह बजने लगा । मेरा सिर उठा और मैं शून्य् में देखने लगा । मेरी नजर स्विच बोर्ड पर पड़ी ... जिस पर एक बिंदी चिपकी थी । मैंने बिंदी देखी और मुझे रचना की याद आने लगी । वो अपनी बिंदी ऐसे ही जहां तहां चिपका देती थी । ड्रेसिंग टेबल पर .... बाथरूम की दीवारों और सीसे पर अनेक रंग बिरंगी बिंदिया अभी एक दिन पहले तक चिपकी थीं ।
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जब तक रचना यहाँ थी .... मुझे ये बिंदियां स्वाभाविक लगती थी । लेकिन जब से वो गई मुझे ये बिंदियां उसकी याद दिलाने लगीं । दो दिन पहले मैंने स प्रयास एक एक बिंदी उखाड़ कर एक डिब्बी में बंद किया और विरह व्यथा से व्यथित होकर बिंदी की डिब्बी सामने रख कर सुबकने लगा । मन करता इसी कमरे में पंखे से झूल जाऊं । मन हाहाकार करने लगा । मैं बिंदी की डिब्बी देखता हुआ दारू में खुद को डुबोने लगा । बिन्दियो की डिबिया यादों की डिबिया बन गई ।
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बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला था मैंने और आज ये स्विच बोर्ड पर चिपकी बिंदी मुझे मुँह चिढ़ाते हुए हंस रही थी ... "मानो कह रही हो भागो कहाँ तक भाग सकते हो ।
अरे ! ये कैसे छूट गई ? "
उगते सूरज के रंग की बिंदी देख मेरी सोच ठिठक गई । कागज और मेरे मन पर उभरा CANCELLED..सहम गया ।मैं बिंदी की डिब्बी खोजने लगा ।राइटिंग टेबल की ऊपर की दराज में मुझे डिब्बी मिली । एक और बिंदी को दफ़न कर मैं गजल सुनने लगा
गुलाम अली गा रहे थे ....
"चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है ...
मन में एक चिढ़ पैदा हुई ....
आँसू बहाना याद है ... चुपके चुपके ..."
मैंने बाजा बंद कर दिया ।सन्नाटे में डूबे ड्राइंग रूम में ... अकेले बैठा मैं पीता रहा । मुझे अहसास हुआ कि मुझे घर बंद कर देना चाहिए । खिड़की दरवाजे बंद कर मैं निश्चिंत हुआ कि मेरी जानकारी के बिना अब कोई मेरे घर में नहीं घुस सकता । घर को तो मैंने अंदर से लॉक कर दिया ... कोई मेरे अंदर न घुस जाए इसके लिए मैं अपने जेहन पर शराब का ताला लगाने लगा ।
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अब कुछ नहीं हो सकता .... हो ही नहीं सकता । उसके साथ रहने पर लगता था जिन्दगी बोझ बन गई लेकिन उसके जाने के बाद तो जीना ही मुश्किल हो गया । घर के हर कोने में वो मौजूद थी
बिन्दियो को तो मैंने डिब्बी में बंद कर दिया पर जो दिख नहीं रहा उसे कहाँ बंद करूँ ? अब कुछ नहीं हो सकता । मेरी बेचैनी बढ़ने लगी ।
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तीन दिन बाद तो मैं नहाया और कपड़े पहन बाहर घूमने चल दिया । निरुद्देश्य् घूमता मैं सड़क नापने लगा । कोई मुझे देख नहीं रहा था लेकिन मुझे लगता हर कोई मुझे ही देख रहा है । यकायक मेरी नजर एक बोर्ड पर पड़ी ....
डा. अनुराग , एम् बी बी एस , एम डी ( साइक्रियाटिक )
साइक्रियाटिक ?
हाँ ... मुझे डाक्टर की जरूरत है ।
मैंने डाक्टर के केबिन में कदम रखा ।
पंद्रह मिनट में मैंने अपनी पूरी कहानी डाक्टर को सुना कर कहा ... " डाक्टर साहब , मेरा मन करता है कि आत्महत्या कर लूं । मरने में दर्द होता है यही सोच कर नहीं कर सका । मुझे डर है कि कहीं मैं कुछ कर न बैठू । "
डाक्टर ने गंभीरता से सिर हिलाते हुए मेरी बात सुनी और पूछा ... " नींद कैसी आती है आपको ?"
"जब से रचना का साथ छूटा तब से लगभग रोज शराब पीता हूँ । सो तो जाता हूँ लेकिन बिना पिये सो सकूगा ... कह नहीं सकता ".... मैंने स्पष्ट किया
हूँ ... डाक्टर ने कहा ... " मैं दवा लिख रहा हूँ । लेकिन मेरी सलाह है कि आप स्वयं को व्यस्त रखिये । जो भी कामधाम करते हो उसमें मन लगाइये । आपको दवा से अधिक काउंसलिंग की जरूरत है । "
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दवा का पर्चा हाँथ में लिए मैं मेडिकल स्टोर पर पहुंचा ।
कितने दिन की दवा चाहिए ? .... केमिस्ट ने पूछा।
दस दिन ... मैंने कहा ।
दवा लेकर मैं दुकान से बाहर आया । मेरा सर दर्द कर रहा था ।
इसी बीच मेरा फोन बजा .... "अरे मौसा ! कहाँ हैं आप ? कब से मिला रहा हूँ ?" .... कुनाल की आवाज आयी ।
बोलो ... मैंने कहा ।
मौसी की तबियत बहुत खराब है ... आवाज आयी
मैं घबराया .... क्या हुआ रचना को ?
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सिटी हॉस्पिटल में रचना के पास खड़ा उसका मुरझाया चेहरा देख रहा था ।
नर्स आयी तो मैंने पुछा ..." इनको क्या हुआ है?"
मुझे नहीं पता ... डाक्टर से बात कीजिए ... वो रुखाई से बोली ।
डॉक्टर आयीं तो उनसे भी मैंने यही सवाल किया
पैड पर कुछ लिखते हुए वे बोलीं .... ऐसे हालात में कभी कभी ऐसा हो जाता है । कमजोरी है । लगता है इन्होने कई दिनों तक ठीक से खाना नहीं खाया या उपवास किया है ।
"आप कौन? "... उन्होंने पूछा।
"जी ... ये मेरी पत्नी हैं" .... मैंने कहा ।
" अरे! आप तो बहुत लापरवाह हैं । ख्याल रखिये अपनी बीवी का । छह महीने की प्रेग्नेन्सी है ...
..".डाक्टर ने लगभग डांटते हुए कहा ।
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मै बिजी हो गया और भूल गया कि उस दिन भयंकर लड़ाई करके पाँव पटकती और मेरी सात पुश्तो को गालियां देते हुए रचना घर से यह कह कर चली गई कि अब तुम्हारा मुँह भी नहीं देखना चाहती । ऐसी ऐसी नाकाबिले बर्दाश्त बातें कह गई वो कि उन्हें याद कर अपना सिर फोड़ लेने का मन करने लगता ।
लेकिन अब तो मैं पिता बनने जा रहा था .... सौ खून माफ़ थे अब तो प्रियतमा पत्नी के । मैं दिन रात पत्नी और गर्भस्थ शिशु की देखभाल में व्यस्त हो गया ।
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उस दिन रचना अस्पताल से घर आने वाली थी । उसे अपनी बहन की कार से घर आना था । मैं उसके स्वागत में अपना घर सजा रहा था । साफ सफाई के बाद मैं हाँँथ मुँह धोने के लिए बाथरूम में सीसे के सामने खड़ा था ।
उखड़ी बिन्दियो ने जो जगह छोड़ी थी वो मुझे मुँह चिढ़ाने लगीं ।
मुझे ये बिंदियां अब आवश्यक लगने लगीं ।
बिन्दियों की डिब्बी .... कहाँ रख दी मैंने ?
काफी खोज बीन करने पर मुझे वो मिली और मैं एक एक बिंदी यथा स्थान गोंद से चिपकाने लगा । दवा तो मैंने खाई ही नहीं ।
"