न मैं हिन्दू....न मुसलमान !!
न मैं हिन्दू....न मुसलमान !!
जायरा खान ...अपनी खिड़की पर खड़ी बाहर देख रही थी ...उसे अब अहसास हुआ कि जिंदगी नितांत व्यक्तिगत ही नहीं होती ....मुट्ठी में बंद रेत की तरह।
जिंदगी कतरा कतरा सरकती जाती है और अंत में मुट्ठी खाली ही रह जाती है ......
जवानी की दहलीज पर पहुंचते ही उसे सुहैल खान से प्यार हो गया ...जो उसके भाई का दोस्त था ....
उसे पता था कि ये सम्बन्ध कम से कम उसके कट्टर ब्राह्मण परिवार को तो कतई स्वीकार नहीं होगा...
और मोहब्बत से मजबूर हो कर वो सुहैल के साथ एक दिन उसके घर आ गई .....
दो दिन बाद मस्तक पर रक्त चन्दन का तिलक लगाये उसके पिता ...उसे लेने आये ..तो उसने ..उनके साथ
जाने से साफ इंकार कर दिया ...भरी महफ़िल में रुसवा हो कर ...उसके प्यारे पापा ! उसे उदास आँखों से देखते वापस चले गए ...उनकी आँखों में दिखती सारे संसार की उदासी और शिकायत का भाव उसे अब तक नहीं भूला था।
उसके बड़े भइया ...जिन्होंने अपनी लाडली बहन को कंधे पर बैठा कर घुमाया ...उसकी हर इच्छा पूरी की ...उसके लिये सब से लड़ बैठे ....उन्होंने बाप के खाली हाथ रुसवा होकर लौटने पर ...ग्लानि के वशीभूत हो ...ज़हर खा कर जान दे दी और अपने पीछे अपने दो छोटे बच्चों और पत्नी को अकेला छोड़ गए।
बुढ़ापे में लगे इस आघात को ..उसके पिता झेल नहीं सके और वे भी कुछ समयांतराल पर इस फानी दुनिया से रुखसत हो गए .....उन्होंने न ज़हर खाया, न फाँसी लगाई ...वे तो अपने भगवान से शिकायत करते हुए ..अपने पूजा घर में बंद हो गए और उपवास करके मर गए।
उस रात सुहैल ने उसे बताया ...पापा भी चले गए। वो रो रो कर बेहाल हो गई ...उसे अपने कृत्य पर अफ़सोस क्या होता ...वो जानती थी कि उसके कृत्य की प्रतिक्रिया का परिणाम भीषण होगा लेकिन पूरा परिवार बिखर जायेगा ...ये उसने नहीं सोचा था।
दिन बीतते गए ...समय तो अपनी चाल चलता रहेगा चाहे जो होता रहे। जायरा अपने पति के साथ मुम्बई आ गई और अपनी जिंदगी में रम गई। उसे सुहैल के साथ रहते हुए दस साल बीत गए मगर कोई औलाद पैदा न हुई ...सुहैल अपनी बीवी से प्यार तो बहुत करता था लेकिन उसे चिंता होती बेऔलाद रहने की।
इसी बीच जायरा एक दिन अपने शहर आयी ...मन नहीं माना तो एक दिन बुरका ओढ़ कर अपने पिता के घर के सामने पहुँच कर ...खड़ी हो गई। वर्षों से घर की पेंटिंग नहीं हुई थी ...बाहरी दीवारों का प्लास्टर उधड़ रहा था ...लॉन में बेतरतीब घास और झाड़ियाँ उग आयी थीं।
उसे अपना बचपन याद आने लगा ...जब वो तरह तरह के फूलों से लदे लॉन में ...मखमली घास पर लेटी ...पढ़ती ..लिखती ..खेलती रहती थी और घर की चमक दूर से दिखाई देती थी।
वो यही सब सोच रही थी कि उसने दो किशोरों को घर से निकलते देखा ...उसकी आँखें चमक उठीं ...
उसने साफ पहचाना ..ये तो रिंकू और टिंकू थे ...उसके प्यारे भतीजे....जो कितने बड़े हो गए थे।
उसका मन किया ..वो दौड़ कर उन्हें अपनी बांहों में भर ले ...लेकिन मन मसोस कर रह गई।
भीगी आँखों से वो अपने घर आयी और बिस्तर पर गिर कर सिसकने लगी ...
सुहैल की फैमिली में उसका सम्मान तो था लेकिन उसे सुहैल के अतिरिक्त और सब से एक बेगानेपन का अहसास रहता था। उसे होली ..दीवाली .....मकर संक्रान्ति ...दशहरा ...गणेश चतुर्थी और खास कर रक्षाबंधन बहुत याद आते ...वो अलका से जायरा बन गई थी।
वो किस मनःस्थिति में जी रही थी उसका अहसास तो उस समय केवल वो ही कर सकती थी। सुहैल की मोहब्बत के बल पर ही वो जिन्दा थी वर्ना तो उसे हमेशा अपने सीने पर एक अपराधबोध का भारी पत्थर लदा महसूस होता था ...
यदा कदा वो दूर से जाकर भतीजों को देख आती थी वे दोनों चौराहे पर सब्जियाँ और फलों का ठेला लगाते थे।
लगभग रोज ही सुहैल वहाँ जाता और सारी सब्जियाँ और फल खरीद लाता।
एक दिन रिंकू को शंका हो गई और उसने सुहैल का पीछा किया और एक सघन मुस्लिम बस्ती में पहुँचा।
सुहैल ने एक ऑटो पर लदी फल सब्जियाँ उतार दीं और घर के अंदर चला गया। कुछ देर बाद जालीदार टोपी लगाये दो नवयुवक वहाँ पहुंचे और फल सब्जियों के पैकेट बना कर उठा ले गए ...वो पास ही मस्ज़िद के मदरसे के लड़के थे ...सुहैल लगभग रोज ही रिंकू टिंकू से खरीदे फल और सब्जियाँ ..मदरसे भिजवा देता था ....
रिंकू खड़ा खड़ा ये सब देख रहा था और ....खिड़की पर खड़ी जायरा की नज़र उस पर पड़ी। उसके अंदर एक हूक सी उठी और उसने ज़मीला को आवाज़ दी। ज़मीला उसकी पंद्रह साल की ननद थी जब जायरा इस घर में आयी ...तब वो पाँच साल की थी और अपनी भाभीजान को बहुत प्यार करती थी।
वो फ़ौरन जायरा के पास पहुँची और उसने रिंकू की तरफ इशारा किया ...जा ..जाकर उस लड़के को बुला ला।
दस मिनट बाद रिंकू ....सुहैल खान के ड्राइंग रूम में बैठा था और चारों तरफ देख रहा था। उसे उस घर में अजीब सा अहसास हो रहा था .....
सुहैल उसके सामने बैठा था ...थोड़ी देर तो उन दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा ...तभी वहाँ जायरा
पहुँची। रिंकू की नज़र जायरा पर पड़ी .......उसे जायरा की आँखों में प्यार का समंदर लहराता दिखा वो बोला ...जी मुझे अंदर बुलाया गया है।
सुहैल नें उससे कहा ...हाँ ..आपको हमने बुलाया है वो यूँ ही इधर उधर की बातें करता रहा ....लेकिन न जाने क्यों उसकी नज़र बरबस जायरा की ओर उठ जाती थी ...अचानक वो उठ कर खड़ा हो गया ....उसके हाथ पैर कांपने लगे ...आँखे अचानक लाल हो गईं ...मुट्ठियाँ और दाँत भिंच गए और वो धीमी किंतु बरफ जैसी ठंडी आवाज में बोला ....बुआ ! तुमने एक हँसता खेलता परिवार उजाड़ दिया और हमें अनाथ कर दिया .... तुम इतना बड़ा बोझ लेकर कैसे जिन्दा हो ? अब मुझसे कभी मत मिलियेगा और आप भाई साहब ..... फल और सब्जियों की दुकान पर आपका स्वागत रहेगा......ये कह कर रिंकू लड़खड़ाता हुआ ...जायरा के सामने से उठ कर चला गया ...जायरा मानों पथरा सी गई ...
जायरा को न जाने क्या हो गया ? वो चुप और उदास रहने लगी। धीरे धीरे सुन्दर गोरा रंग पीला पड़ने लगा और छह महीने बाद एक दिन वो मर गई ......
मरते समय उसने सुहैल खान से कहा ...मैं मुसलमान नहीं....मुझे दफ़नाना मत। मैं हिन्दू भी नहीं हूँ.... मुझे जलाना मत। मेरी लाश मेडिकल कॉलेज को दे देना .......