भाग्योदय
भाग्योदय
प्रस्तुत रचना काल्पनिक है । किसी भी व्यक्ति विशेष ...घटना और स्थान से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है )
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ज्ञानप्रकाश ....यथा नामे तथा गुणे ...अथाह ज्ञानी .संसार में चल रहे हर विषय पर वे धाराप्रवाह बोलते थे ...लेकिन उनका यह ज्ञान ..न तो उनके मन को भर सका और न ही उनके परिवार की जरूरतों की पूर्ति ही कर सका ... वे खिड़की से सिर टिका कर लगभग खाली कम्पार्टमेंट में बैठे थे और ट्रेन ...भागी जा रही थी .
ज्ञानप्रकाश जी ...अपनी पत्नी से झगड़ा करके .... मरने के इरादे के साथ सीधे रेलवे स्टेशन पहुंचे . उनके सामने से दर्जनों ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुजर गईं लेकिन वे किसी के आगे कूदे ही नहीं ....जबकि एक फुलस्केप कागज पर उन्होंने वहीं प्लेटफार्म पर बैठ कर एक मार्मिक सुसाइड नोट लिखा था , जो अभी भी उनकी जेब में था ..... वे खड़े खड़े पटरियां देख रहे थे लेकिन वे वास्तव में कुछ भी नहीं देख रहे थे . उन्हें अनुभव हुआ कि उनके पैर थकने लगे हैं और खड़े रहने से मना कर रहे हैं .......
उसी समय एक नामालूम कौन सी ट्रेन आकर सामने खड़ी हो गई ...शायद ट्रेन वहीं से बन कर चलती थी इसीलिये उसकी खिड़कियां और दरवाजे बंद थे ....
और ज्ञानप्रकाश जी एक डिब्बे में जा कर खिड़की खोल कर बैठ गए .... रात के दो बज गये थे और उनकी पलकें नींद से बोझिल हो रही थीं ...और वे सो गए . उनकी जब आंख खुली तो सुबह के पांच बज गए थे और ट्रेन पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी ...उन्हें तम्बाकू की जोरदार तलब लगी ..उन्होंने जेब से पुड़िया निकाली और बनाने लगे ...तम्बाकू होठों में दबा वे उठे और टायलेट चले गए ....
टायलेट सीट पर बैठे ज्ञानप्रकाश जी फिर अपने में गुम हो गए ......उन्होंने नौकरी की ...दुकान की ...खेती की और भी जाने क्या क्या किया लेकिन हाय री किस्मत ...वे कहीं भी सफल न हुए और अंततः बिलकुल बेरोजगार हो गए ....
ये तो भगवान की कृपा थी कि वे तनहा कई करोड़ की कृषि योग्य भूमि के मालिक थे ...लेकिन खेती कर नहीं पाते थे . जब भी वे स्वयं कृषि कार्य करते तो कुछ न कुछ ऐसा हो जाता था कि उनकी पूँजी भी डूब जाती ...लेकिन जमीन लीज़ पर लेने वाले उन्हें इतना तो दे देते कि परिवार का पेट भर जाता और जरूरी खर्चे न रुकते ...उन्होंने बहुत कष्ट सहे लेकिन जमीन को पैसे में बदलने का उन्हें ख्याल भी नहीं आया . बार बार की असफलता से उनका आत्मविश्वास डगमगा गया था ...वे डरते थे कि सुरक्षित अचल सम्पत्ति को नोटों में बदल कर कहीं वे उसे भी न गवां दें ...
पैसे की कमी हुई और परिवार में चादर के अनुरूप पैर फैलाने की स्थिति बनी तो कलह बढ़ने लगी ....
परिजनों में असंतोष फलने फूलने लगा .....और पत्नी ...तनी तनी रहने लगी ...उनसे झगड़ने के बहाने तलाशने लगी ....
ट्रेन को ब्रेक लगे और टायलेट सीट पर बैठे ज्ञानप्रकाश जी सामने मुँह के बल गिर पड़े .किसी तरह स्वयं को संभालते वे उठ कर खड़े हुए और वापस लौट ..खिड़की के किनारे की एक सीट पर बैठ गए ...
किसी बड़े स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी शायद . भीड़ की रेलमपेल मची थी और ज्ञानप्रकाश जी के डिब्बे में ...कुछ देर बाद खड़े होने की जगह भी न बची ...
अगले तीन स्टेशनों तक पहुँचते पहुँचते गाड़ी फिर खाली हुई और उस एस - 4 कम्पार्टमेंट में केवल वही लोग बचे जिनकी सीट रिजर्व थी ...अभी तक उनकी सीट का तत्कालीन मालिक शायद आया नहीं था . कुछ देर बाद एक नवयुवक आया और साइड लोवर की उस सीट पर सामने बैठ गया और अपना सामान ठीक करने लगा ...फिर वहाँ मौन छा गया और वो नवयुवक अपने स्मार्टफोन में व्यस्त हो गया .
चाय ...गरम चाय ...खिड़की से आवाज आयी .
उस नवयुवक नें मोबाइल से सिर उठाया ....उसका भाव समझ ...चाय वाले ने उन दोनों को आमने सामने बैठा देख ..दो चाय खिड़की पर रखीं और पैसे लेकर चलता बना ...
सुबह के सात बज रहे थे ...बसंत का मौसम था .... न ठंडा न गरम . ज्ञान प्रकाश जी के पड़ोसी नवयुवक नें उन्हें चाय पीने का इशारा किया और स्वयं चाय पीते हुए पुनः मोबाइल में व्यस्त हो गया .
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चलती ट्रेन में अचानक अफरातफरी मच गई और कुछ ही देर में सबको पता चल गया कि मजिस्ट्रेट चेकिंग हो रही है .....
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लखनऊ चारबाग रेलवे स्टेशन के बाहर जी आर पी थाने के अपने कक्ष में बैठा मजिस्ट्रेट ...सामने लाइन में खड़े दर्जनों बिना टिकट यात्रियों को .....उनके अपराध के अनुरूप ...दंड सुना रहा था .
ज्ञानप्रकाश जी ...सूनी आँखों से जमीन देख रहे थे उनके होठों पर पपड़ी जमी थी ...बाल बिखरे थे .... दो दिन से शेव नहीं हुई थी सो छोटे छोटे सफेद बाल दिखने लगे थे .... धाराप्रवाह बोलने वाले ज्ञानप्रकाश जी ..चौबीस घंटे से एकदम चुप थे . उनके दिमाग में एक पर एक घटनायें फिल्म की तरह गुजर रही थीं ...
कल लगभग इसी समय ...शाम चार बजे वे शब्जी लेने बाजार गए ...तकादेदारों नें उन्हें रास्ते में घेर लिया था ...इस बात से वे टेंशन में थे और रात में नौ बजे एक छोटी सी बात हुई .....
ज्ञानप्रकाश जी अपने आप में ही इतने गुम थे कि कि उन्होंने घर में घुसते समय इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि घर का फर्श शीशे की तरह चमक रहा है ...वे खटपट करते अभी किचेन तक पहुंचे भी नहीं थे कि अपनी पत्नी को क्रोधित आँखों से घूरते पाया
और फिर ....... इतना ध्वनि प्रदूषण फैलाया उनकी श्रीमती जी नें कि उन्होंने कान मे उंगली डाल ली . उनकी इस हरकत पर पत्नी को और गुस्सा आ गया ...बड़बड़ करती बीवी नें खाना सिर्फ इसलिए नहीं बनाया कि वे..... शब्जी देर से क्यों लाये ?
बात बढ़ती गई और फिर चप्पल पहन घर में क्यों घुसे? ....की चप्पल ...जाने कहाँ छूट गई और कई ऐतिहासिक घटनायें ...वाकयुद्ध के दौरान दोहराई गईं और तमाम गड़े मुर्दे उखाड़े गए .....
और महाज्ञानी श्री ज्ञानप्रकाश जी के धीरज का बांध टूट गया और उन्होंने अपनी पत्नी के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया ...पांचो उंगलियां उभर आयीं ......एक मिनट के लिये सन्नाटा छा गया और सामान्यतः न सुनाई देने वाली दीवाल घड़ी की टिकटिक स्पष्ट सुनाई पड़ने लगी ....और फिर धमाका हुआ ...
पत्नी नें बच्चों के सामने एक सांस में हजार गालियाँ देते हुए जिंदगी में पहली बार ...अपने पति को बुरी तरह पीटा ....उस पर तो जैसे कोई भूत प्रेत सवार हो गया ...और वो अपने पति श्री ज्ञानप्रकाश जी को कालर पकड़ कर घसीटती हुई दरवाजे तक लाई और धकेल कर बाहर निकाल ...दरवाजा बंद कर दिया ......
ज्ञानप्रकाश जी के दिमाग में फुलझड़ियाँ छूट रही थीं ...वे सुन्न शांत बैठे रहे ...उठ कर स्टेशन आये और ट्रेन में बैठ गए .....
उस समय से चुप ज्ञानप्रकाश जी ...चौबीस घंटे बीत चले थे ...अभी तक चुप थे ....
चलो आगे बढ़ो ...साहब बुला रहे हैं ...कहते हुए एक सिपाही नें उन्हें धकियाया .
साहब नें उन्हें सिर से पाँव तक देखा और उनकी आँखें देख एक पल के लिए डर जैसा गया ...फिर बोला ....नाम ?
चुप ....!
अरे ! मैंने कहा नाम बताओ भाई ....
चुप ....!
क्यों भई ये तो कुछ बताते नहीं ...क्या आरोप है इन पर ?....साहब नें दरोगा से पूछा .
दरोगा बोला ...साहब ! ये बिना टिकट पकड़ाये हैं ...
जुर्माना भी न दे रहे ..
ठीक है ...और एक सरकारी कागज पर कलम घुमाते हुए ...साहब नें फिर पूछा ...हाँ भई ..नाम ?
चुप ....!
कई बार पूछने पर भी जब वे मौन ही रहे तो मजिस्ट्रेट नें दरोगा से तलाशी लेने को कहा और तलाशी में एक पेन ...पाँच सौ रुपए और वो सुसाइड नोट मिला जो उन्होंने अपनी पत्नी को लिखा था ... एक तरह से वो एक दुःख भरा प्रेम पत्र था ..........
उस पत्र को न्यायाधीश नें पढ़ा और फिर उन्हें किनारे बैठने को कहा ..... शाम के आठ बजने वाले थे ....दरोगा उनके सामने डायरी और पेन लिये खड़ा ..कम से कम सौ बार उनसे ..उनका नाम पूछ चुका था . उसे शंका होने लगी थी कि कहीं ये आदमी गूंगा तो नहीं ...
अंततः मजिस्ट्रेट नें उसे रोका और केस डायरी में उनका विवरण भरा ......
नाम ......................ज्ञानप्रकाश
पत्नी का नाम .........उमा
पता .....................अज्ञात
अपराध ................बिना टिकट यात्रा
और भी बहुत कुछ लिखा लेकिन ज्ञानप्रकाश जी के सम्बन्ध में कानून को जो जानकारी थी वो इतनी ही थी ...और इस जानकारी का श्रोत था वो पत्र जो उन्होंने अपनी पत्नी को लिखा था .....
प्रिय उमा ( प्रिय शब्द लिखा गया ..फिर काटा गया ) तुम्हारा दुर्भाग्य था कि मैं तुम्हें मिला . तुम जैसी गुणी सुन्दर और बुद्धिमान पत्नी ...किसी और के साथ होती तो उसके भाग्य खुल जाते लेकिन मेरा दुर्भाग्य था ...जो तुम्हारे दुर्भाग्य का कारण बना ....
मैं अब तक किये गए हर उस काम के लिये तुमसे माफी चाहता हूँ ...जो तुम्हारी दृष्टि में गलत थे . अब तुम्हारा दुर्भाग्य दुनिया से जा रहा है . खुश रहो .
तुम्हारा ( शब्द लिखा गया फिर काटा गया )
ज्ञानप्रकाश
इस पत्र में न पता लिखा था और न कोई फोन नंबर . इस पत्र और पाँच सौ रूपए को उनकी अमानत समझ जमा किया गया और उन्हें तीन महीने की जेल की सजा हुई ...सजा तो दो माह की थी लेकिन जुर्माना दस हजार था ....न भरने की सूरत में एक माह की अतिरिक्त सजा..
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जेल में आये श्री ज्ञानप्रकाश जी को तीन दिन बीते थे और अभी तक उनका मौन भंग न हुआ था ....
उसी जेल की बैरक नंबर तेरह में ...खूंखार बदमाश टोनी ब्रिगेंजा बंद था ...उसका पेशा था ..रंगदारी . उस पर दर्जनों कत्ल और लूटपाट के मुकदमे दर्ज थे वो किसी केस में तीन साल की सजा भुगतने जेल आया था . जेल में उसका सिक्का चलता था . उसे हर वो सुविधा जेल में ही उपलब्ध थी ...जो बाहर मिलती ....
गर्मियां लगभग शुरू हो चुकी थीं . अपरान्ह के तीन बज रहे थे और टोनी अपनी बैरक के बाहर सिगरेट पीते हुए चहलकदमी कर रहा था . हटाथ उसकी नजर सामने खेत पर पड़ी ...जिससे सटी जेल की ऊँची सपाट दीवाल थी .....उसने देखा एक आधी उम्र गुजार चुका आदमी कुदाल लिये खेत गोड़ रहा था ...यकायक वो आदमी बैठ गया .उसके ठीक सामने वो आदमी अपनी दोनों मुट्ठियों से अपने बाल भींचे था ...दाढ़ी मूँछ की खिचड़ी सफेदी साफ दिख रही थी . उसे इस हालत में बैठा देख ...टोनी हँसा और अपनी बैरक में वापस चला गया .
जेल में आये एक सप्ताह बीत चुके थे और....... ज्ञानप्रकाश जी अब तक एक शब्द भी नहीं बोले थे
सुबह के नौ बज रहे थे और टोनी टहलता हुआ .... ज्ञानप्रकाश जी के सामने पहुँचा और बातें करने की कोशिश की लेकिन उसे अपने किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिला और तिलमिला कर उसने घुटनों में सिर दिये ...ज्ञानप्रकाश जी के बिखरे बाल पकड़ कर उनका सिर ऊपर उठाया और उनकी आँखों को देखते ही वो दो कदम पीछे हट गया और चुपचाप लौट गया ...
जेलर अपनी जेल में टहल रहा था ....तभी टोनी उससे बोला ...सर ! एक अर्ज करनी है .
हाँ ..बोलो ...जेलर बोले .
सर ! वो जो सामने सत्रह नम्बर का कैदी है ......
हाँ ...जेलर बोले .
सर ! उसकी जो भी बैठकी बनती हो ...वो हमसे ले लीजिये ...लेकिन उससे काम न करवाइये ...
ठीक है ...जेलर बोले और चले गए ...उनको पता था ...टोनी ब्रिगेंजा की इतनी विनम्रता से भरी अर्ज
....अर्ज नहीं आदेश था .
अब उन्हें जेल में आये एक महीना हो चुका था . अभी तक ज्ञानप्रकाश जी पूरी तरह मौन ही थे . साथी कैदी समझने लगे थे कि ये आदमी गूँगा है .भोजन का समय था ...कैदी लाइन में थालियां लिये भोजन पाने की प्रतीक्षा कर रहे थे और उस दिन जेलर पता नहीं क्यों ...कुर्सी डाल कर वहीं बैठा था .
ज्ञानप्रकाश जी नें थाली में भोजन लिया और दूर जा कर बैठ गए ...उन्होंने अपनी थाली से एक रोटी उठाई और एक मोटे कैदी की थाली में रख दी ...मोटे नें बड़ी कृतज्ञता से उन्हें देखा .
जेलर ..पता नहीं क्यों उन्हें बड़े ध्यान से देख रहा था और उसने अपने मन में एक फैसला किया . ......
रात आठ बजे ज्ञानप्रकाश जी ...जेलर के कक्ष में उसके सामने खड़े थे ...उनके लिये जेलर ने चाय मंगाई और पीने को कहा ....
जेलर नें कहा ...लोग आपको गूँगा समझते हैं लेकिन मुझे लगता है ...आप गूंगे नहीं हैं . क्या आप पढ़े लिखे हैं ? ज्ञानप्रकाश जी नें सहमति से सिर हिलाया और जेलर नें उनके सामने कागज और पेन रख दिया ....
कागज और कलम देख श्री ज्ञानप्रकाश जी की आँखे चमक उठीं ....उन्होंने बड़ी नफ़ासत से कलम उठाई और कागज पर लिखा ...ॐ . जेलर नें मुस्कुराते हुए कहा ...मैं आपसे बातें करना चाहता हूँ
जरूरी नहीं आप मेरी हर बात का जवाब दें ...आप स्वतंत्र हैं . हाँ ...तो ज्ञानप्रकाश जी ...यही नाम लिखा है आपका ....मैं आपकी जेल में क्या सेवा करूँ ?...मैं जानता हूँ ...आप परिस्थितिवश जेल में हैं और दो महीने बाद छूट जायेंगे . फिर भी मैं आपसे पूछता हूँ ...आपको कुछ चाहिये ?
ज्ञानप्रकाश जी नें मोती जैसे अक्षरों में लिखा ....
...एक नाई चाहिये ..जो मेरी दाढ़ी और बाल बना दे
जेलर नें पढ़ा और पूछा ....और क्या चाहिये ?
उन्होंने पुनः लिखा ....कागज ..कलम , साहित्यिक पत्रिकायें , उपन्यास और अखबार .
जी ठीक है ...मेरा प्रयास होगा ..आपनें जो लिखा है उसे अतिशीघ्र उपलब्ध करवाया जाय .
गंजे सिर और क्लीनशेव्ड चेहरे में ...ज्ञानप्रकाश जी का व्यक्तित्व निखर आया था . अब वे केवल भोजन के लिये ही बैरक से बाहर निकलते . बाकी समय वे बैरक में बैठे कुछ न कुछ लिखते पढ़ते रहते ...खूब खुश रहते लेकिन बोलते वे अभी भी नहीं थे .अब उनके जेल में दो महीने गुजर चुके थे ..... इस बीच दो घटनायें लगभग एक साथ घटीं .......
पहली घटना .....
जेल से छूटा एक कैदी ...रेलवे स्टेशन पहुँचा और वहाँ उसे दीवाल पर चिपकाये बहुत से पोस्टरों में से एक छोटे पोस्टर नें ...आकर्षित किया . वह एक विज्ञापन था ....लापता की तलाश.....उसका मजमून था ....ये आदमी इक्कीस फरवरी रात बारह बजे से ..अपने घर से लापता है . इन्होने नीले रंग की कमीज ...काला लोवर और चप्पल पहनी है ....पता बताने या पहुँचाने वाले को एक लाख रूपए नकद इनाम दिया जायेगा ....नीचे दो तीन फोन नंबर लिखे थे ....
इस पोस्टर में जिस व्यक्ति की फोटो छपी है ..उसकी शक्ल जेल में बंद ज्ञानप्रकाश नाम के उस आदमी से मिलती है ...जो सत्रह नंबर बैरक में है और अब भी वहीं होगा .....इतना सोचते ही ...उस जेल से छूटे आदमी के दिमाग में बिजली कौंधी ..... उसने फटाफट मोबाइल निकाला और कॉल लगाई .
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श्री ज्ञानप्रकाश जी ...काफी सारी कृषि योग्य भूमि के तनहा मालिक थे . उनके रहते जिन करीबी रिश्तेदारों नें उन्हें कुछ समझा ही नहीं ...उनके गायब होते ही ...वे सब सात दिनों के अंदर श्री ज्ञानप्रकाश
के घर एकत्र हुए .... रो रो कर उमा का बुरा हाल था ..वो पीली पड़ रही थी और बार बार बेहोश हो जाती थी ... सबसे पहले उमा के बड़े भाई पहुँचे थे और उन्हें..... ज्ञानप्रकाश जी के सात दिन पहले लापता होने की सूचना उनकी बड़ी भांजी नें दी थी ...
बच्चों के मामा से .... बच्चों की मम्मी नें ...बच्चो के पापा के घर से गायब होने की सुबह...फोन पर .... सिर्फ इतना ही पूछा था ....क्या गुड़िया के पापा वहाँ हैं ? मोबाइल भी नहीं ले गए ....
आज सात दिन बाद भांजी नें ...मामा को बताया कि पापा सात दिन से गायब हैं !
अपना सारा जरूरी और बेइंतहा जरूरी काम छोड़ मामा जी ....श्री ज्ञानप्रकाश जी के घर पहुंचे ....
धीरे धीरे और लोगों को भी सूचना मिली ...खोजबीन शुरू हुई लेकिन कुछ पता ही नहीं चला कि वे कहाँ लुप्त हो गए ?
उनका पता लगाने के लिये हर संभव प्रयास किया गया और फिर इसी प्रयास में मामा जी नें अपनी पहुंच के स्थानों विशेषकर रेलवे और बस स्टेशनों पर हजारों इश्तेहार-ए-लापता ....छपवा कर चिपकवा दिये .... वे अपनी इकलौती बहिन को सीने से लगाये थे ....
बच्चों की मामी पास में ही बैठीं टेसुए बहा रहीं थीं और बच्चे ...वे सबसे ज्यादा दुःखी थे . दस साल के नितिन और सत्रह साल की वंदना नें आज इतने दिनों से ...जब से पापा गायब हुए थे ...अपनी माँ से बात तक नहीं की थी .....
रात बारह बजे जब श्री ज्ञानप्रकाश जी को उनकी पत्नी घसीटती हुई बाहर ले गई और बाहर फेंक कर भीतर से कुंडी लगा ली तो दस साल के नितिन नें दौड़ कर कुंडी खोलनी चाही थी ....तो माँ नें उसे पकड़ लिया और लाल लाल आँखों से घूरने लगी .
उसके क्रोध के आगे लगता था कि त्रिलोक नतमस्तक हो गया हो ...वो तो फिर भी बच्चा था .
लेकिन रात के दो बजे ...सत्रह साल की वंदना से न रहा गया और उसने दुनिया में माँ तो क्या किसी की भी परवाह न करते हुए ...कुंडी खोल दी ..... बाहर आयी लेकिन पिता को न पाया ......
वो घर के अंदर आयी ...जूते पहने और बाहर भागी
उसके पीछे सबसे बड़ी अर्चना भी भागी . एक घंटे के अंदर मोहल्ले का कोना कोना छान मारा लेकिन पापा नहीं मिले .....और फिर मामला संगीन होता गया .........आज दो महीने सात दिन हो गये थे और श्री ज्ञानप्रकाश जीका कोई पता न चला .और तभी फोन बजा ....अर्चना नें रिसीव किया और बोली ...हैलो !
उधर से आवाज आयी ...जी मैडम ! मैं एक लापता लिखे विज्ञापन के सामने खड़ा हूँ ...जो साहब...... लापता हैं ...उनको मैं जानता हूँ और उनका नाम ज्ञानप्रकाश है ....
जी ..जी ..वो मेरे पापा हैं ...प्लीज बताइये वो कहाँ हैं ?..... अर्चना अधीर हो कर बोली .
मैडम ! आप क्या समझती हैं ? मैंने आपको क्यों फोन किया ? आपने एक लाख नकद इनाम घोषित किया है ....ऐसे कैसे बता दूँ ?.....उधर से आवाज आयी .
जी ..जी ..ठीक है लीजिये मामा जी से बात कीजिये
मामा जी नें रिसीवर कान से लगाया और उधर से आती आवाज को ध्यान से सुनते रहे और बोले ....
मैं अभी आपको एक पता मैसेज करता हूँ ...आप हमसे मिलिये ...अगर आप की दी हुई जानकारी से हमें श्री ज्ञानप्रकाश मिल गए तो हम आपको तुरंत इनाम की रकम चुका देंगे ...
ठीक है ...और फोन कट गया .
वो जेलयाफ़्ता कैदी ...बताये गए पते पर पहुंचा ..वो एक होटल का लाउंज था ...वहाँ उमा...मामा जी और बच्चे उपस्थित थे ....
उसने बताया ...ये आदमी जिला जेल की सत्रह नंबर बैरक का कैदी है . बहुत पढ़ा लिखा जान पड़ता है .
तीन महीने की सजा हुई थी ...तीन हफ्ते बाद बाहर होगा .....सभी लोग जेल तो पहुंचे ...लेकिन श्री ज्ञानप्रकाश नें मिलने से ही इंकार कर दिया .
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दूसरी घटना......
इधर जेल में एक अंतर्राष्ट्रीय एन जी ओ का दल कैदियों की मनःस्थिति का अध्ययन करने के उद्देश्य से अपने तीन सदस्यीय पैनल के साथ आया था और उस पैनल में विख्यात साहित्यकार और समाजसेवी श्रीप्रकाश जी भी थे ....
अपरान्ह के दो बजे थे और श्रीप्रकाश जी..... श्री ज्ञानप्रकाश जी के सामने बैठे थे ..... जैसे समान पदार्थ अपने समान पदार्थ की ओर आकर्षित होता है ...वैसे ही एक साहित्यकार नें एक मौनधारी चिंतक को पहचान लिया और उनका लिखा...... प्रकाशित करने का अनुरोध किया और एक प्रतिष्ठित
पुरस्कार के लिए भेजने की अनुमति मांगी .
जेल में उन्हें आये दो महीने उन्नीस दिन बीत चुके थे
उन्हें अब जेल में मात्र ग्यारह दिन और रहना था . एक दिन उन्हें जेलर नें अपने ऑफिस में बुलाया ....
वहाँ श्रीप्रकाश जी भी बैठे थे . उन्होंने बड़े प्रेम से श्री ज्ञानप्रकाश जी का अभिवादन किया और उनके सामने एक दैनिक पत्र रख दिया ...ऊपर ही मोटी हैडिंग में जो लिखा था ...उसका आशय था कि इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार हैं श्री ज्ञानप्रकाश उनकी कहानी भाग्योदय को वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित करते हुए प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रदान किया गया है ....31 मई को यह पुरस्कार महामहिम राज्यपाल के द्वारा राज भवन में प्रदान किया जायेगा .
30 मई ...श्री ज्ञानप्रकाश जी ...शाम छह बजे जेल से रिहा हुए ...दो बड़े साहित्यकार और पुरस्कार देने वाले पैनल के एक सदस्य के साथ श्रीप्रकाशजी
एक भव्य कार में बैठे .....उन्हें ससम्मान राज्यपाल महोदय के रात्रिभोज के अवसर पर राज भवन ले जाने के लिये उपस्थित हुए थे ...करीब पचास की संख्या में साहित्यप्रेमी ...लेखक और पत्रकार भी उपस्थित थे ....
इधर ज्ञानप्रकाश जी राज भवन गए . उधर एक स्कार्पियो से उतर कर उमा और उसके भाई ...जेल ऑफिस पहुंचे . ऑफिस से पता चला ...वे तो चले गये ....
अरे ! कहाँ चले गए ...उमा चिल्लाई ...मैं उनकी पत्नी हूँ ...ये उनके साले हैं ...हमसे मिले बिना कहाँ चले गए ...कौन ले गया ?
ऑन ड्यूटी अफसर बोला ...मैडम ! आपके पतिदेव को प्रतिष्ठित साहित्यकारों का सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त हुआ है . कल राज्यपाल महोदय उन्हें ये पुरस्कार प्रदान करेंगे और इस समय वे राज भवन गए हैं ....
आप उनकी पत्नी हैं ...आप से मिल कर बहुत खुशी हुई .हमें गर्व है ...जिस रचना पर उन्होंने ये पुरस्कार पाया ...उसे उन्होंने इसी जेल में लिखा था .
सुबह के दस बजे ...उमा...अर्चना..वंदना ..नितिन और बच्चों के मामा जी....विशेष अनुमति पत्र के माध्यम से राज भवन के हॉल में बैठे थे .... राज्यपाल महोदय नें श्री ज्ञानप्रकाश जी को शाल
प्रमाणपत्र ..शील्ड और पाँच लाख का चेक प्रदान किया और मीडिया के कैमरे चमक उठे ....
समारोह समाप्त हो चुका था ...ख्यातिलब्ध साहित्यकारों का समूह श्री ज्ञानप्रकाश जी को घेरे खड़ा था ...उनसे दस मीटर दूर उमा ..अर्चना और नितिन खड़े थे . अचानक दस साल का नितिन भागा और सामने विशिष्ट लोगों के बीच अपने पिता से जा लिपटा ..और जार जार रोना शुरू किया ...
श्री ज्ञानप्रकाश जी भी अपने पुत्र से लिपट कर रोने लगे ...सबने सोचा ये खुशी के आँसू हैं ....
सारी जिंदगी असफलता का टैग पहन कर घूमने
वाले और लूजर की गालियाँ खाने वाले अभागे श्री ज्ञानप्रकाश जी महाज्ञानी का..." भाग्योदय "
हुआ था......और हुआ भी तो कैसे ?
