ठंडा पानी
ठंडा पानी
कार में बैठी मैं ताक रही हूँ, सड़क पार सब्जी की ठेली को। जो एक सीलन वाली दीवार से लगी हुई है। पाला सा गिरता लग रहा है।
ढिबरी की रोशनी में बासी सब्जियां और बासी दिख रहीं हैं। पुरानी हाफ स्वेटर में लड़कियां और पुराने धुसे शाल में कोई औरत वहां आयी हैं। पुरानी जैकेट और मफलर पहने सब्जी वाले से कुछ हाथ बढ़ा कर मांग रही हैं। ठिठुरन उनके शरीर की हरकतों में साफ दिख रही है।
सब्जी वाले ने हाथ उठा दिया है, दिल घक्क से हो गया। औरत का शाल ठेली के कोने में फंस कर फट गया है। बेटियां हैं शायद, मां को उठा रही हैं लेकिन उस आदमी का गुस्सा नहीं थम रहा। वो लातों से मार रहा है। बेटियों के बाल खिंचे जा रहे हैं। मगर वे अपनी मां के ऊपर बिछ गयीं हैं।
ठंड में सब्जी वाले ने अपनी पत्नी और बेटियों पर पानी से भरी बाल्टी उड़ेल दी है। ठंड मेरे पूरे जिस्म में दौड़ गयी है।
पलट के कार के दूसरी ओर देखती हूँ। माल में ये और बेटा मेरे लिए गर्म दस्ताने, फर का टोपा और रूम हीटर लेने गए हैं। हिदायत दे गए हैं, "कार से बाहर नहीं आना, ठंड पकड़ लेगी।"
मेरी आंखों से बहते गुनगुने आंसू रह रह कर ईश्वर के आशीष के लिए कृतज्ञता दे रहे हैं, "ईश्वर ये आशीष अंतिम सांस तक बनाये रखना।"
इन्हें पोंछ लूँ नहीं तो पापा-बेटा परेशान होंगे, " क्या हुआ, कोई परेशानी हो रही है? बोलो, बताओ.."
बेटियां और औरत अपने आंसू पोंछते एक दूसरे को सम्भालते हुए मेरी कार के करीब से जा रहीं हैं। मैं जाने क्यों उनसे नजरें चुरा रही हूँ।