'तोहफा'
'तोहफा'


बेटी की विदाई हो रही थी, माँ ने जाते जाते एक तोहफा बेटी के हाथ में थमा दिया जो शायद वो पहले देना भूल गई थी। बेटी ने भी उसे प्यार से सहेज कर रख लिया।
विवाह के पश्चात कुछ माह बीतने पर सहसा उसे माँ के तोहफे का ख्याल आया (शायद इसीलिए भी कि आज वो बेहद व्यथित थी।)
उसने जैसे ही उसे खोला तो देखा कि बापू के तीन बंदर वाली मूर्ति मानो उसे एकटक देखे जा रही है। 'माँ ने क्या सोचकर ये मूर्ति दी होगी ! वह हैरान थी किंतु जल्दी ही उसे समझ गया था कि उसे थमा दी गई है संस्कार के नाम पर ये मूर्ति कि जो उसे याद दिला सके कि छोटी बड़ी परेशानी, घरेलु हिंसा को देखकर भी अनदेखा कर दो... कानों को बंद करके इसे ही अपनी नियति मान लो.. चुप्पी साध लो जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं।
सदियों से इसी को परम्परा को ही तो मानती आई
है नारी ...जो थमा देती है एक पीढी से दूसरी पीढी को मर्यादा लोकलाज की दुहाई देकर।
जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे अनदेखा करना, उस पर कोई प्रतिक्रिया न करना कहाँ तक न्यायसंगत है? मूक बधिर बने रहना अराजकता को जन्म देता है। कुछ यही सोचकर उसने उस तोहफे को उसी तरह प्यार से बंद कर दिया जिस तरह उसे खोला था।