Kiran Bala

Drama

5.0  

Kiran Bala

Drama

एक तीज ऐसी भी

एक तीज ऐसी भी

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उत्सव चाहे कोई भी हो, छोटा या बड़ा उसका अपना अलग ही आनंद होता है, सभी से प्रेमपूर्ण, मिलजुलकर, अपनत्व भाव से मनाए जाने वाले त्यौहार की तो हर बात ही निराली होती है।


बचपन की उन धुन्धली यादो में से एक घटना जो मुझे अभी याद आ रही है कि उस दिन तीज का त्यौहार था, घर में खाने-पीने के लिए पकवान की तैयारी चल रही थी। हमारा घर अभी नया ही बना था, ज्यादा दिन भी नहीं हुए थे वहाँ रहते हुए इसलिए किसी से ठीक से जान पहचान भी नहीं थी।


मैं आंगन में खेल रही थी कि अचानक मेरी नजर सामने खाली पड़ी हुई जमीन के पीछे बड़े विशालकाय पेड़ों पर पड़ी। वहाँ पर किसी ने झूला डाला हुआ था और कुछ बच्चे वहाँ पर झूल रहे थे। झूला देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं झट से वहाँ पहुँच गई।


उस पींग को देखकर मुझे अपने गाँव के शहतूत के पेड़ की याद आ रही थी कि कैसे हम सब चचेरे भाई-बहन उस पर मिलकर बारी-बारी से झूला झूलते थे। साथ में ये शर्त भी रखी जाती कि झूलते हुए कौन कितने शहतूत तोड़ कर लाता है। पेड़ की डाली पर ऊँचाई तक झूलने के आनंद की अभिव्यक्ति करना कठिन है।


खैर, अतीत से ध्यान हटाकर मैं उन बच्चों को देखने लगी कि कब वो सब अपना-अपना झूलने के बाद मुझे भी झूलने का मौका देंगे। मैं बस वहीं खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही थी, सभी बच्चे बस झूलते जा रहे थे पर किसी ने मुझे झूलने के लिये नहीं कहा।


बहुत देर इंतजार करने के बाद मैं वापिस घर आ गई और चुपचाप एक कोने में जाकर बैठ गई। उस समय मैं इतना व्यथित थी कि मेरे आँसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक अजीब सा आक्रोश मन में था कि कैसे बच्चे है! अपने आप को न जाने क्या समझते है?


जब पापा ने मुझसे मेरे रोने का कारण पूछा तो मैंने सारी बात उन्हें बता दी... बस फिर क्या था! पापा अपनी बिटिया को दुखी कैसे देख सकते थे! उन्होंने आव न देखा ताव तुरंत बाजार जाकर लोहे की पाईप, जंजीर आदि जो भी झूले का सामान होता है ले आए और साथ में मिस्त्री को भी! बस फिर क्या था... कुछ ही घंटों में घर में झूला बनकर तैयार था, एक ऐसा झूला जिसे मैं कभी भी झूल सकती थी... जब चाहे जितना झूल सकती थी।


बात यहाँ सिर्फ झूले की नहीं है, बात है तो उस प्रेम और दुलार की जिससे मेरा बचपन लबालब भरा हुआ था। इतना अधिक प्यार तो आज मैं चाह कर भी अपने बच्चों को नहीं दे पाई जितना मुझे मिला था। मैं तो ज़िद्दी भी नहीं थी कि जिसे किसी को मजबूरी में मानना पड़ता।


आज भी जब मायके जाती हूँ तो गेट के सामने ही पाईप पर बँधा हुआ झूला मुझे उस दिन की याद दिलाता है... मानो कह रहा हो मुझे छोड़ कर तुम क्यों चली गई।


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