Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Kiran Bala

Others

3.5  

Kiran Bala

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"खुद्दारी"

"खुद्दारी"

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सड़क के किनारे फुटपाथ पर बैठे, हाथ में पोटली थामे एक लकड़ी को अपना हथियार बनाए व्यक्ति को आप क्या कहेंगे? कोई भिखारी, पागल ,कोई चोर उचक्का या शायद कोई सनकी भी हो सकता है। ऐसे ही बहुत से लोग राह में यत्र-तत्र देखने को मिल जाते हैं।

ऐसा ही एक व्यक्ति सड़क पार करते हुए मेरी गाड़ी से टकराते टकराते बचा। अधेड़ उम्र, लम्बी कद काठी, बढ़े हुए दाढी बाल, मैले कुचैले से कपड़े तथा दयनीय अवस्था।

बाबा, जरा ध्यान से। कहाँ ध्यान था तुम्हारा? (मेरा कहने का लहजा कुछ सख़्त था )

मैंने उतर कर उसे देखना चाहा कि कहीं उसे कोई चोट तो नहीं आई किंतु उससे पहले ही वह चुपचाप सड़क के किनारे जाकर बैठ गया। अपने हाथ में पोटली को उसने किसी कीमती वस्तु की तरह कलेजे से लगा कर रखा हुआ था।

तुम ठीक तो हो न, कहीं लगी तो नहीं ! कुछ खाया कि नहीं, पानी है क्या तुम्हारे पास.... मैंने जैसे उसके समक्ष प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी थी।

उसने दयनीय भाव से आश्चर्यचकित दृष्टि से मेरी ओर देखा जैसे उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई उससे इस तरह बात कर सकता है।

नहीं, कुछ नहीं खाया दो दिनों से, यूँ ही समझ लो कि हालात का मारा हूँ। जब तक का जीवन है ऐसे ही चलते जाना है।

कोई घर नहीं है क्या तुम्हारा... रहते कहाँ हो? मैंने फिर प्रश्न किया।

कौन सा घर, कैसा घर... था कभी (उसने गहरी श्वास लेते हुए कहा)

भरा पूरा घर था...पत्नी, बच्चे नाती पोते सब। जब तक पत्नी जीवित थी तो सब ठीक था, मुझ जैसे मन्दबुद्धि को वो ही सँभाले हुए थी। उसके बाद तो धीरे -धीरे मेरी वजह से घर में क्लेश बढ़ता ही गया, किसी के काम का तो अब रहा नहीं, भला कब तक कोई मुझे झेलता... सीधे से तो किसी की कहने की हिम्मत न होती तो ऐसा माहौल बनाया गया कि मैं दुनिया की नज़र में पागल कहलाऊं।

परिवार की शान्ति के लिये मैं चुपचाप घर से निकल आया। दो साल से इसी तरह कभी यहाँ तो कभी वहाँ चलता जा रहा हूँ...जहाँ का दाना पानी लिखा है वहीं भाग्य ले जाता है।

भोजन का जुगाड़ कैसे हो पाता है ? (पता नहीं क्यों मैं बार-बार उससे सवाल किये जा रही थी। )

जहाँ कहीं थोड़ा बहुत काम मिलता है, कर लेता हूँ, रात में किसी मंदिर के बरामदे में आश्रय पा लेता हूँ। सुबह वहाँ की झाडू लगा देता हूँ तो प्रसाद स्वरूप कुछ खाने को मिल जाता है... पर अब तो ना कोई काम है और न ही मंदिर भी खुले हैं, लगता है भगवान ने भी मुझ से मुहँ मोड़ लिया है। अब देखो, कहाँ दाना- पानी मुझे लेकर जाएगा।

ये रख लो बाबा, मैंने उसे 2000 रुपए का नोट थमाते हुए कहा। वह कभी मेरी ओर तो कभी नोट को तिरस्कृत भाव से देख रहा था।

ये मैं न ले सकूंगा, मैं हालत का मारा हूँ , कोई भिखारी नहीं ... यदि मेरे भाग्य में भूखा मरना ही लिखा है तो मुझे स्वीकार है।

यह कहते हुए वो उठा और आगे बढ़ गया। उस समय मैं आत्म ग्लानि के बोध से स्वयं को छोटा महसूस कर रही थी।



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