सत्य मुक्त कैसे करता है
सत्य मुक्त कैसे करता है


सत्य वास्तव में है क्या? हम किसे सत्य कहेंगे? सत्य की कई लोगों ने अलग अलग परिभाषाएं की हैं। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो सभी परिभाषाएं एक ही अर्थ रखती हैं। सब परिभाषाओं में सत्य की सुगन्ध है। पर है वह ऐसी जो अनुभव करने से ही समझ में आती है। क्योंकि सब चीजें केवल बुद्धि से समझ में नहीं आया करतीं। उनको अनुभव करने के लिए हृदय की पवित्रता अनिवार्य होती है।
जो शाश्वत है वह सत्य है। जो सदा काल है वह सत्य है। जो अल्पकालीन है वह भी सत्य है, लेकिन बहुत ही दूसरे अर्थों में। जो अपरिवर्तनशील है वह सत्य है। जो परिवर्तनशील है वह भी सत्य है लेकिन बिल्कुल ही दूसरे अर्थों में। आत्मा सत्य है। परमात्मा सत्य है। अभौतिक संसार भी सत्य है। भौतिक संसार भी सत्य है लेकिन बहुत ही दूसरे भिन्न अर्थों में। अविनाशी जो है वह सत्य है। जो विनाश है वह भी सत्य है लेकिन बिल्कुल दूसरे अर्थों में। वैश्विक और ब्रह्मांडीय सत्य और असत्य की पूरी की पूरी सत्यता को अंतः प्रज्ञा से (अतीन्द्रिय क्षमता से) अनुभव करने अथवा समझने से हम इसके प्रति बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
इसे दूसरे शब्दों में कहें - जितना जितना आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व की सत्यता के आध्यात्मिक अनुभव प्रगाढ़ होते जाते हैं उतनी उतनी ही आत्मा मुक्त जीवनमुक्त होती जाती है। अर्थात आत्मा स्वयं को स्वयं ही हल्का अनुभव करने लगती है। इसे ही विकर्म् विनाश होने की स्थिति कहते हैं। मुक्त होना अर्थात अतीत और भविष्य की स्थूल और सूक्ष्म मानसिक आसक्ति से मुक्त होना। सत्य को जानने का अर्थ है कि आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व के आध्यात्मिक अनुभवों का लगातार चरम सीमा तक होते जाना। यह भी अनुभव होना कि यह जो भौतिक संसार का अस्तित्व है इसकी वास्तविकता क्या है। सत्य का अनुभव युक्त ज्ञान आत्मा को अवश्य रूपेण मुक्त करता है। अनुभव/समझ हमें मुक्त करता है। जिस भी विषय का हम एक निश्चित त्वरा के साथ एक निश्चित समय सीमा तक अनुभव कर लेते हैं उससे हम मुक्त होते जाते हैं। इसके लिए अन्तर के पट खोलने पड़ते हैं। निरन्तर गहन चिंतन और योग के अनुभवों को बढ़ाते रहना पड़ता है।