मनुष्य की मूर्खता
मनुष्य की मूर्खता


"आदमी की समझदारी का कोई अन्त नहीं"
आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक ने दो चीजों का कोई अन्त नहीं बताया है। एक उसने कहा है कि यूनिवर्स अनन्त है और दूसरा उसने कहा है कि मनुष्य की मूर्खता अनन्त है । उसने आगे कहा है कि यूनिवर्स की अनंतता का तो मुझे पक्का पता नहीं है पर मनुष्य की मूर्खता की अनन्तता का मुझे पक्का पता है। जब आइंस्टीन जैसा व्यक्ति जिसके अंदर भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार को समझने की शक्ति एक सामान्य मनुष्य से कई गुणा ज्यादा है, उस व्यक्ति ने यदि मनुष्य की मूर्खता की अनन्तता की बात कही थी, तो जरूर कुछ तो गहराई लिए हुए होगी जो आम आदमी की समझ से परे होगी, दूसरा इसका मतलब यह नहीं था कि वह आइंस्टीन खुद को बहुत होशियार समझ रहा होगा। ऐसा भी नहीं है कि वह दूसरे सब मनुष्यों को ही मूर्ख कह रहा होगा। नहीं। ऐसा नहीं है। बहुत गहरे में उसने अपनी खुद की मूर्खता को भी समझा देखा होगा। यानि कि उसने अपनी वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि से जीवन के अनुभवों में स्वयं की मूर्खता को भी अवश्य देखा होगा। उदाहरण के तौर पर। वह अपनी मूर्खता पर बहुत पछताया था जब एटम बॉम्ब का अविष्कार हो गया था। उसे उस समय यही पछतावा हुआ था कि यह मैंने क्या कर दिया?! आण्विक बॉम्ब के अविष्कार में मुख्य भूमिका आइंस्टीन की ही थी। यह तो केवल एक उदाहरण है। उसने मनुष्य के जीवन की और भी ना जाने कितनी मूर्खताओं का ऑब्जर्वेशन किया होगा। यानि कि वह अपनी इस उक्ति में खास खुद स्वयं की भी और सामान्य तौर पर अधिकांश मनुष्यों की मूर्खता की बात कर रहा होगा। वह यह भलि भांति समझता जानता होगा कि मनुष्यों की प्रकृति में अज्ञान भरा है और अज्ञानता ही सबसे बड़ी मूर्खता है। वह सभी का अज्ञान या सभी की मूर्खता नंबरवार (परसेंटेज) में है, वह अलग बात है।
आइंस्टीन की इस उक्ति का मैं भी अनुमोदन कर रहा हूं। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं खुद को बहुत होशियार समझ रहा हूं और दूसरे मनुष्यों को मूर्ख समझ रहा हूं। नहीं ऐसा नहीं है। मैंने स्वयं भी भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से स्वयं की मूर्खता को अनुभव से समझा होगा तब तो आइंस्टीन की इस उक्ति का अनुमोदन इसे सार्वजनिक कर रहा हूं। यानि कि मैंने स्वयं भी किसी न किसी परसेंटेज में स्वयं की मूर्खता को अनुभव किया है, तब ही आइंस्टीन की मूर्खता की बात को समझ पा रहा हूं। बात जरा कड़वी लगेगी। पर गहरे समझोगे तो पता चलेगा कि सच्चाई यही है।
आइंस्टीन की इस बात का अनुमोदन करके मैं किसी भी व्यक्ति को डिमोरालाइज नहीं करना चाह रहा हूं। बल्कि सभी मनुष्यों को इस बात से विदित कराना चाह रहा हूं ताकि मनुष्य का भ्रम खत्म हो। मनुष्य भ्रम वश यह समझ बैठा है कि वह दुनिया के बारे में सब कुछ जानता है और वह ईश्वर के समान बन गया है। मेरा कहने का भावार्थ सिर्फ इतना है कि मनुष्य यह समझ ले कि उसका ज्ञान कितना स्वल्प है! वह कितना अल्पज्ञ है! वह कितना विवश है! वह कितना अज्ञानी है! वह अपने ज्ञान को कितना ज्यादा बढ़ा सकता है! उसका जीवन ज्ञान के प्रकाश से कितना ज्यादा आलोकित हो सकता है! माना कि मनुष्य का अज्ञान शत प्रतिशत खत्म नहीं हो सकता लेकिन फिर भी ज्ञान के प्रतिशत को तो सर्वाधिक सीमा तक बढ़ाया जा सकता है। जीवन और जीवन जीने की शैली को और भी ज्यादा सुखद शांत तो बनाया ही जा सकता है।
हमारी भाषा (भाषाओं) के बहुत से शब्द ऐसे हैं जिनका संबंध केवल मनुष्य से ही जुड़ा है। जैसे बुद्धिमान/होशियार/समझदार या मूर्ख मूर्खता या मूढ़ मूढ़ता इत्यादि। मूर्ख या मूर्खता शब्द का संबंध भी मनुष्य से है। किसी पशु को यह कभी नहीं कहा जाता कि मूर्ख पशु। या बुद्धिमान पशु। किसी पशु से कभी यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह पशु बुद्धिमान होना चाहिए। क्योंकि मनुष्य ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ या बुद्धिमान प्राणी माना है। इसलिए मनुष्य ही मनुष्यों से बुद्धिमान होने की अपेक्षा करते हैं। मनुष्य की जब यह अपेक्षा पूरी नहीं हुई तो एक नया शब्द अस्तित्व में आया - मूर्ख और मूर्खता। मूढ़ और मूढ़ता।
मिसाल के तौर पर। आदमी की मूर्खता का एक छोटा सा उदाहरण। एक बार दस अन्धे व्यक्ति थे। उन्हें नदी पार करनी थी। उन्होंने नाविक से कहा कि हमें नदी पार करनी है। नाविक ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति का नाव का भाड़ा एक रुपया लूंगा। तो कुल मिलाकर भाड़ा दस रुपए होगा। बात तय हो गई। नाविक ने एक एक करके नौ लोगों को नदी पार करवा दी। जब दसवें को नदी पार करवा रहा था तो नदी की धारा का प्रवाह तेज था। दसवां व्यक्ति हाथ से फिसल गया। खूब कोशिश करने पर भी वह उसे नहीं बचा सका। वह दसवां अंधा व्यक्ति नदी में डूब कर बह गया। उधर उन नौ अंधे लोगों को फिसलने और डूबने की आवाज सी आई। उन्होंने नाविक को पूछा कि क्या हुआ? नाविक ने कहा कि कुछ नहीं हुआ। अब आपको सिर्फ नौ रुपए ही देने पड़ेंगे। एक व्यक्ति डूब गया। बात इतनी दुखद चिंताजनक गंभीर थी और वह नाविक कह रहा था कि कुछ नहीं हुआ अब आपको केवल नौ रुपए देने पड़ेंगे। एक आदमी का जीवन डूब कर समाप्त हो गया और उस नाविक को नौ रुपये ही दिखाई दे रहे हैं। उस नाविक ध्यान आदमी की क्षति की कोई संवेदनशीलता नहीं है। उसे सिर्फ रुपए ही दिखाई दे रहे हैं।
भावार्थ यह हुआ कि परिस्थिति चाहे कितनी ही नाजुक संवेदनशील हो, बात चाहे कितनी ही गहरी हो, घटना चाहे कितनी ही दुखद हो, चिंताजनक हो, गंभीर हो, लेकिन फिर भी मनुष्य अपने खुद के निहित स्वार्थ या खुद के प्रयोजन की ही बात को समझता देखता है, बाकी उसे असली मुख्य बात (विषय) ना तो दिखाई देती है और ना वह समझ में नहीं आती। यह मनुष्य की मूर्खता का एक गहरा उदाहरण है।