मालिक और बैगर की वास्तविकता
मालिक और बैगर की वास्तविकता


आज के ईश्वरीय महावक्यों से केवल एक ज्ञान बिन्दु समझने के लिए। "तुम बैगर हो।" वास्तव में हम सभी एक प्रकार से बैगर हैं ही। यह तथ्य भी है और अकाट्य सत्य भी है। यह कड़वा सच भी है। इस सृष्टि में प्रत्येक आत्मा बैगर है। बैगर के आकार और प्रकार अलग हो सकते हैं, वह बात अलग है। इतनी बात जरूर है कि प्रत्येक व्यक्ति के बैगरपने के अनुपात में फर्क हो सकता है।
कम से कम मैंने तो सिवाय परमात्मा के, इस साकार सृष्टि में मानवीय सम्बन्धों में कोई भी आत्मा ऐसी नहीं देखी जो किसी न किसी मात्रा में बैगर ना हो अर्थात् कुछ लेती ना हो। हम सुनते आए हैं कि "दाता एक राम, बैगर सारी दुनिया।" बहु आयामी दृष्टिकोण से इसे समझने का प्रयास करें तो यह सोलह आने सही बात है, ऐसा समझ में आता है। इस साकार सृष्टि में कोई छोटा बैगर है और कोई बड़ा बैगर है। कोई कम बैगर है और कोई ज्यादा बैगर है। इसे दूसरे शब्दों में कहें; कोई व्यक्ति कम मालिकपने की स्थिति में है और ज्यादा बैगरपने की स्थिति में है। कोई व्यक्ति ज्यादा मालिकपने की स्थिति में है और कम बैगरपने की स्थिति में है।
इसी विषय को यदि हम मनुष्य की उसकी अपनी क्षमता और निर्भरता के आधार पर समझते हैं तो बैगर होने और मालिक होने की स्थिति और भी ज्यादा स्पष्ट समझ में आ सकती है। इस साकार सृष्टि में कोई भी व्यक्ति सर्वांगीण (सर्व गुण संपन्न, सर्व शक्ति संपन्न) नहीं है। जबकि यह सृष्टि है ही सभी प्रकार के गुणों का जोड़। प्रकृति और आत्माओं के सभी प्रकार के गुणों और शक्तियों की इकट्ठी उपयोगिता के आधार पर इस साकार सृष्टि का निर्माण हुआ है। इसलिए सभी गुण या सभी शक्तियां, या सभी मनुष्य या सभी प्रकृति के बल परस्पर निर्भर हैं अर्थात एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो इस सम्पूर्ण सृष्टि के नेटवर्क में (ताने-बाने के अंतर्निहित जालतंत्र में) कोई भी व्यक्ति या ऊर्जा पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हैं। इस अंतर्दृष्टि के अनुसार किसी भी व्यक्ति के अभिनय (रोल) की निजी स्वतंत्रता तो होती है लेकिन उसकी निजी स्वतंत्रता का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता। इस साकार सृष्टि में; विशेषकर मानवीय संबंधों में स्वतंत्रता की अवधारणा के बारे में हमने अपने मन की कंडीशनिंग कैसी बना रखी है, वह अलग बात है। जैसी मन की कंडीशनिंग बनाई हुई है वैसी ही पुनरावृत होती रहती है। वैसा ही हम स्वयं की स्वतंत्रता का अनुभव करते रहते या नहीं करते रहते हैं। यह सब कुछ मनुष्य के अंदर अंतर्निहित (इनबिल्ट) ही है।
जीवन और जीवन से परे के गहन गंभीर विषयों को समझने के लिए हमारे पास लौकिक (भौतिक) दुनिया की भाषा के सीमित शब्द हैं। इसलिए ऐसे गूढ़ विषयों को समझने में हमें भाषा की कठिनाई तो होती है। बैगर हम उसे कहते हैं या समझ लेते हैं जो केवल लेता ही लेता है, देता नहीं है। लेकिन यह सृष्टि के विधान में ही नहीं है कि कोई केवल लेता ही लेता हो और कुछ भी देता न हो। जो वर्तमान में हमें लेता ही लेता हुआ सा लगता हो, यह जरूरी नहीं है कि वह अतीत में ऐसा ही लेने वाला रहा हो। यह भी जरूरी नहीं कि भविष्य में भी वह लेवता ही लेवता रहेगा। हम केवल वर्तमान को ही देखकर अपना मंतव्य बना लेते हैं। इस सृष्टि में जो भी व्यक्ति कुछ भी ऊर्जा लेता है वह अनिवार्य रूपेण देता भी है। जो भी व्यक्ति कुछ देता है वह अनिवार्य रूपेण लेता भी है। लेने और देने वाले को लेने के बाद देने और देने के बाद लेने का बिल्कुल स्पष्ट रूप से पता नहीं चलता है, वह बात अलग है। उस लेने और देने की या देने और लेने की प्रक्रिया में काल देश और परिस्थिति का अन्तर तो हो सकता है। लेकिन कोई केवल लेता ही हो; देता न हो, या कोई केवल देता ही हो; लेता ना हो ऐसा नहीं हो सकता। कौन कब कैसे लेता है या कौन कब कैसे देता है, इसके प्रकार या समय परिस्थिति के बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना पक्का कहा जा सकता है कि लेने के साथ देना जुड़ा है और देने के साथ लेना जुड़ा है। जो लेने में देने को भी देख लेता है और देने में लेने को भी देख लेता है - जो व्यक्ति इन दोनों प्रक्रियाओं को इकट्ठा देख समझ लेता है, वही तो वास्तव में ज्ञानी हुआ करता है। जीवन के सिर्फ एक पक्ष को ही देखने वाले को अधूरा ज्ञानी ही कहा जायेगा।
वास्तव में इस सृष्टि में मनुष्य आत्मा का होना ही एक प्रकार से बैगर होना है। सभी आत्माओं के बैगर होने का भावार्थ है कि हर मनुष्य आत्मा; मनुष्य आत्माओं और प्रकृति से किसी न किसी रूप में जाने और अनजाने में कभी न कभी कुछ ना कुछ लेती ही है। तब ही जीवन का अस्तित्व में होना सम्भव होता है। तब ही जीवन गतिमान रहता है। जीवन के अस्तित्व में बने रहने की प्रक्रिया ही यही है। इस साकार सृष्टि में बिना लिए न तो कुछ दिया जाता है और बिना दिए ना तो कुछ लिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति यह कहता हो कि मैं तो केवल देता ही देता हूं, लेता कुछ भी नहीं हूं, तो यह उसका मिथ्या भ्रम है। यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि मैं तो केवल लेता ही लेता हूं तो यह भी उसका मिथ्या भ्रम है। लेने और देने की ये सब बातें इस सृष्टि के खेल में ओत प्रोत हैं। ओत प्रोत का मतलब है कि ये एक दूसरे के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकती। ये दोनों बातें यदि इस सृष्टि में रहेंगी तो एक दूसरे के साथ साथ इकट्ठी ही रहेंगी। यदि लेने और देने की ये दोनों अस्तित्व में नहीं रहेंगी तो इकट्ठी एकसाथ दोनों ही नहीं रहेंगी। किसी एक का ही अस्तित्व में बने रहने का सृष्टि के विधान में कोई उपाय ही नहीं है।
इसको दूसरी तरफ, मलिकपन की दृष्टि से देखें कि कोई भी आत्मा ऐसी नहीं है जो पूरी तरह ही से मालिक हो। कोई कम मालिक है और कोई ज्यादा मालिक है। बैगर एक प्रकार से कम मालिक है। मालिक एक प्रकार से कम बैगर है। मनुष्य के मालिकपन और बैगरपन के होने में केवल अनुपात का ही फर्क होता है। हम अनेक प्रकार के (भौतिक और आध्यात्मिक) पुरुषार्थ मालिक बनने के लिए करते हैं। हम किसी निश्चित मात्रा में मालिक बन भी जाते हैं। लेकिन क्या मालिक बनने के बाद हम पूरे मालिक बन जायेंगे? बीसों नाखूनों का जोर लगाकर पुरुषार्थ करने के बाद जब कोई आत्मा पूरी तरह से स्वराज्य अधिकारी बन जाती है तब भी ऐसा नहीं होता कि आत्मा पूरी तरह 100% ही मालिक बन जायेगी। फिर भी कम मात्रा में ही सही, लेकिन बैगरपना अर्थात लेने की प्रक्रिया जारी रहती है। कहने में तो यह आएगा कि यह आत्मा मालिक है लेकिन फिर भी वह भी किसी न किसी मात्रा में सम्बन्धों और प्रकृति से कुछ न कुछ कम से कम ही सही; लेती ही रहती है। यदि हम यह दलील दें कि हम तो पहले देते हैं उसके बाद ही लेते हैं। तो फिर हम बैगर कैसे हुए? लेकिन कोई भी आत्मा पहले बिना लिए दे कैसे सकती है..? अर्थात नहीं। कोई भी आत्मा बिना लिए नहीं दे सकती। यह साकार सृष्टि का विधान ही नहीं है। पहले लेने का विधान है उसके बाद देने का विधान है। यह मनुष्य ने ही अपनी सुविधाजनक दृष्टि बना ली है कि वह पहले देता है और उसके बाद लेता है। मनुष्य ऐसा इसलिए कहता और सोचता है; क्योंकि ऐसा कहने या सोचने से और ऐसा अपने आपको दिखाने से उसके सुक्ष्म अहंकार को तृप्ति मिलती है।
पूरी सृष्टि के हिसाब से समझें तो कलयुग के अन्त समय में जब जीवन के इस अनुपात में बैगरपने का अनुपात ज्यादा हो जाता है और मालिकपने का कम हो जाता है तब समस्या गम्भीर हो जाती है। तब ही पूरी सृष्टि के (खासकर मनुष्यों के) इस अनुपात को फिर से उल्टा कराने के लिए परमात्मा को अवतरित होना पड़ता है। परमात्मा को अवतरित होकर जीवन के इस अनुपात में मालिकपने का अनुपात अधिकांश कैसे निर्मित हो जाए, उसकी विधि बतानी पड़ती है। यह कार्य वह खुद भी करते हैं और मनुष्य आत्माओं से भी करवाते हैं। अनुपात का बदलने का यह दोतरफा पुरुषार्थ सृष्टि चक्र के अन्त समय संगमयुग में चलता है।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह हुआ कि जीवन में लेना और देना निरन्तर चलता रहता है और चलता रहेगा। हम अपने स्थूल-सुक्ष्म कर्मों से जाने और अनजाने में बहुत कुछ लेते और देते हैं। इसलिए जीवन की पारस्परिक उपयोगिता और उपादेयता को समझते हुए हम अपने कर्मों को ऐसे करते चलें और अपनी आंतरिक (आत्मिक) स्थिति को ऐसा बनाते चलें कि जिससे कम से कम लेने की स्थिति का अनुभव हो और ज्यादा से ज्यादा देने की स्थिति का अनुभव हो। जिससे बंधन के अनुभव होने का कम मात्रा में अनुभव हो और स्वतंत्र होने का ज्यादा मात्रा में अनुभव हो। इसी को कहते हैं बैगर टू प्रिंस बनना। इसके बाद की जो सृष्टि के उतराव की प्रक्रिया है वह प्रिंस टू बैगर बनने की कहानी है। यह प्रिंस टू बैगर बनने और बैगर टू प्रिंस बनने का अनादि अविनाशी नाटक (खेल) है। इसे इस तरह कहें तो भी उचित होगा। यह बैगर बट प्रिंस और प्रिंस बट बैगर का अनादि अविनाशी नाटक (खेल) है।