झुकना और झुकाना
झुकना और झुकाना
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ना जाने हमारी वह पुरानी सोच और संस्कार आज कहां प्राय: लोप हो गए हैं। अब लोग दूसरों को झुकाने में ज्यादा रुचि लेते हैं। खुद झुकने में रस नहीं लेते। हम खुद को किसी और के सामने झुकाते हैं। यह ठीक है। इसमें कोई गलत बात नहीं है। यह हमारे नम्र भाव का प्रतीक है। लेकिन क्या विनम्रता केवल एकतरफा ही होनी चाहिए? जिनके सामने हम झुककर अपना विनम्र भाव दिखाते हैं, क्या वे भी हमारे सामने झुकते हैं या नहीं या नहीं? अर्थात क्या वे भी हमारे प्रति उतना ही विनम्र भाव रखते हैं। नहीं, ऐसा प्राय: नहीं होता देखा गया है। फिर हम किसी और को अपने सामने झुकाने में वह भरपाई करना चाहते हैं। यह ऐसी कलयुगी नीति और रीति बन गई है। वे ऐसा कभी नहीं करते हम जिनके सामने झुके, प्रतिउत्तर में वे भी हमारे सामने झुकें। इसलिए यह कहा गया है कि झुकिए लेकिन रुकिए भी। कब रुकिए? तब रुकिए जब झुकने का कोई पैमाना या पैरामीटर ही ना हो। जब आपको ही हर बार या बारम्बार या जिन्दगी भर झुकना पड़ता हो तो ही रुकिए और पूरे परिदृश्य का साक्षी होकर अवलोकन करिए।
विनम्र होना अर्थात झुकना गलत बात नहीं है। यह झुकने का अर्थ होता है व्यक्ति, स्थान और विषय के प्रति विनम्र भाव रखना। विनम्रता का भावार्थ होता है कि किसी विचार के प्रति या व्यक्ति के प्रति ऐसा भाव रखना जिस भाव में आप उसकी महानता या अनिवार्य मान्यता को स्वीकार करते हैं। वैसी स्वीकार्यता में किसी विचार या व्यक्ति के प्रति किसी प्रकार की कोई रोक टोक या किसी प्रकार की कोई प्रतिविरोधता या किसी प्रकार की कोई अवमानना या किसी प्रकार की भावनाओं का कोई आघात नहीं होता है। ऐसी विनम्रता से उत्पन्न हुई स्वीकार्यता में भाव, विचार या व्यक्ति नैतिक मान्यता की दृष्टि से, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से और आध्यात्मिक दृष्टि से वह जो है जैसा है उसके प्रति उसी तरह से स्वीकार्य भाव समाया होता है।
यह विनम्र भाव कई प्रकार से प्रयुक्त होता है। अलग अलग अवसरों में इसके कई मायने और अलग प्रतिबद्धता होती है। यह विनम्र भाव है जोकि एक नैतिक गुण है, समाज, परिवार और किसी भी छोटी बड़ी व्यवस्था या संचालन व्यवस्था के पारस्परिक सम्बन्धों की पृष्ठभूमि तैयार करता है। इस विनम्र भाव के विषय को हम जितना फैलाते चले जाएं उतना ही यह विषय जटिल होता चला जाता है। अर्थात इसके की मायने होते चले जाते हैं। यह केवल किसी एक नैतिक गुण की बात नहीं है, ऐसे बहुत नैतिक गुण हैं जिनके उपयोग और प्रयोग की पृष्ठभूमि बदलने से उनके प्रयोग के विधि विधान बदल जाते हैं। कहने का भावार्थ है कि विनम्रता के परिप्रेक्ष्य में समझ लेने जैसी बात यह है हम परस्पर एक दूसरे का सम्मान रखते हुए उनके साथ विनम्र भाव का व्यवहार रखें तो ही हार्दिक भावनाओं की एक आपसी तारतम्यता बनती है। इससे सम्बंध सुदृढ़ बनते और समरसता आती है।
इसी परिप्रेक्ष्य में मुझे अपनी जीवन की 29 वर्ष पुरानी एक घटना याद आती है। मुझे एक बार कुछ ऐसा ही स्वाभाविक विनम्रता वाला परिदृश्य देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हुआ यूं कि एक बार
यूं ही अनायास ही संयोग से मैं किसी तीर्थ स्थल पर गया हुआ था। वहां हम कई स्थानों पर गए। कई प्रकार के लोगों से मिले। मैंने वहां एक जगह यह देखा कि एक ज्ञान का प्रवचन चल रहा था। प्रवचन बहुत विद्वता भरा था। हमने बहुत आनंद लिया उस ज्ञान की महफ़िल का। प्रवचन पूरा हुआ। प्रवचन देने वाले जो महानुभाव उनके श्रद्धेय गुरु जी थे, वे अपनी स्टेज से नीचे उतरे। जो वह श्रोता आए हुए थे उनमें सभी थे बहन भी और भाई भी। सभी श्रोता तो बैठे हुए थे। लेकिन हम प्रवचन पूरा होने के बाद उठकर अपने दूसरे कार्य के लिए जाने लगे। साथ ही श्रोताओं में से चार लोग और भी उठकर जाने लगे। हम क्या देखते हैं कि वे चारों एक एक करके गुरु जी के पैरों को स्पर्श करके नमन करते हैं। अदभुत बात यह थी कि श्रोताओं ने चरण स्पर्श किए तो उसके बाद गुरु जी ने भी उनके चरण स्पर्श किए। इस प्रकार उन चारों ने चरण स्पर्श किए तो गुरु जी ने भी उनके चरण स्पर्श किए। उन चरण स्पर्श करने वाले श्रोताओं में एक बहन थी तीन भाई थे। इस प्रकार एक अनोखा अभिवादन अभिनंदन या पारस्परिक सम्मान का परिदृश्य हमने वहां देखा। खैर हम तो वहां अनजान थे और यूं ही थोड़ी देर के लिए उत्सुकता वश प्रवचन सुनने के लिए जा बैठे थे। हम तीन लोग थे। हममें से तो किसी ने भी इस तरह अभिवादन तो नहीं किया। सिर्फ करबद्ध प्रणाम करके वापिस चले आए। पर यह नई बात का रोमांचकारी दृश्य देख कर हम हतप्रभ (भौचक्के) जरूर रह गए। उसके बाद जब वापिस आए तो पूरे रास्ते भर (करीब आठ घंटे की journey थी) उसी परिदृश्य को याद करके भाव मग्न होते रहे।
उसके बाद वहां उस तीर्थ स्थल में हमने दोपहर का खाना भी खाया। भोजन में कुछ खास किस्म के मिष्ठान भी थे और कुछ वैरायटी व्यंजन भी थे। इतना याद है कि खाना भी वहां का बहुत स्वादिष्ट तो था ही। वह तो मुझे याद नहीं रहा है कि क्या क्या खाया था और उसका स्वाद कैसा कैसा था। लेकिन वहां ऐसा हतप्रभ कर देने वाला परिदृश्य देखकर जो wonder खाया था, वह आज तक भी भलीभांति याद है। जब भी वह हृदय की गहराइयों से प्रस्फुटित पारस्परिक भाव के आदान प्रदान का वंडर खाने का परिदृश्य स्मरण हो आता है तो आज भी आंखें नम हो जाती हैं। ना जाने कहां गए वो दिन...।
उपरोक्त अनुभवयुक्त विवेचन से हमारा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि हमें किसी को झुकाने की या झुकने की बात सोचनी है। हमारा अभिप्राय यह है कि यह तो आत्माओं की एक भाव दशा के उत्पन्न होने की बात है। जब ऐसी भाव दशा स्वाभाविक रूप से बनती है तो झुकने और झुकाने का विचार भी समाप्त हो जाता है। वह भाव तो ऐसा होता है जो स्वमेव ही नम्र हो झुक जाता है। कौन किसके सामने झुकता है या किसको किसके सामने झुकना चाहिए या किसको किसके सामने नहीं झुकना चाहिए - ये सब विचार ही पैदा नहीं होते। लेकिन हम सबके लिए यह तब ही सम्भव हो सकता है जब हमारे चारो ओर वैसी ही वैचारिक और भावनात्मक पॉज़िटिव दिव्य ऊर्जा चक्कर काटती रहे। एक ऐसा समय था जब विनम्र भाव की ऐसी ही स्थिति थी और ऐसा समय फिर आएगा जब फिर से यही स्थिति होगी।