भाव, विचार और आत्मा - 2
भाव, विचार और आत्मा - 2


भावनाओं और विचारों की स्थितियों का स्तर अनेक प्रकार का हो सकता है। कोई भी आत्मा विचारों से विचारवान या भावनाओं से भाव वान सहज ही नहीं बन जाती है। विचारों और भावनाओं की शुद्धि की भी एक प्रक्रिया होती है। भावनाएं भी मोटे तौर पर धुंधली भी हो सकती हैं। ये धुंधली भावनाएं ही प्रयास और पुरुषार्थ की प्रक्रिया में शुद्धिकरण की स्थितियों से गुजरती हैं। जब ये भावनाएं (भाव संस्थान) पूरी तरह से शुद्ध हो जाती हैं तब कह सकते हैं कि ये भावनाएं पवित्र और रियलिस्टिक हो चुकी हैं।
यह हकीकत है कि बहुत बार बहुत भावनाएं अन्धी भी होती हैं जिसमें हानि ही हानि होती है। अन्धी होने का हमारा तात्पर्य है कि भावनाएं यथार्थ नहीं होती है और भावनाओं में स्पष्टता नहीं होती है। ऐसी भावनाओं के परिणाम में बहुत बार ऐसा लगता है कि भावना तो क्या थी और परिणाम कुछ अलग ही निकला। ऐसी स्थिति में व्यक्ति बिल्कुल हतप्रभ ठगा सा अवाक रह जाता है। ऐसी स्थिति का होना अनेक स्थितियों में सम्भव है। क्योंकि वर्तमान समय तमोप्रधान युग है। सभी आत्माओं की आंतरिक स्थिति और चहुंदिस प्रकृति की स्थिति ही ऐसी है कि ऐसा हतप्रभ हो सकने में कोई कठिनाई नहीं है। कई बार अन्धी भावनाओं की स्थिति में ऐसी स्थिति भी आ सकती है जब व्यक्ति का सब कुछ नष्ट हो जाने की स्थिति भी बन सकती है। क्योंकि अन्धी भावनाओं की स्थिति अस्पष्ट (वेग) रहती है।
लेकिन भावनाओं की ऐसी स्थिति बनने पर भी सकारात्मक सोच यह कहती है कि ऐसी भावनाओं का भी दूरगामी रिजल्ट बहुत लाभकारी और शुभ हो सकता है। लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि भावनाओं की प्रक्रिया पर्याप्त लम्बी दूरी तय करती है या नहीं। कैसे? व्यक्ति के अंतरस्थल में भाव के स्तर पर प्रत्येक अनुभव अपनी एक छाप छोड़ता है। अंधी भावनाओं के द्वारा भी हुए सभी अनुभव आत्मा के भाव संस्थान के अनुभवों में जुड़ते जाते हैं। ये अनुभव अवचेतन और अचेतन के स्तर पर आत्माओं को निरंतर क्रियाशील बने रहने के लिए प्रेरित करते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर :- वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडीसन ने अपने संस्मरणों में यह बात कही है कि "मैं असफल नहीं हुआ हूं। बल्कि मैंने ऐसे 10000 तरीके खोज लिए हैं जो काम नहीं करते।" थॉमस अल्वा एडिसन की भावनाओं और सोच का परिणाम हम आज देख रहे हैं। थॉमस अल्वा एडीसन विद्युत ने बल्ब के विषय में एक धुंधला से विचार (आइडिया/भाव) से शुरूवात की थी। दस हजार बार असफल होने पर भी आखिर बल्ब का अविष्कार हो ही गया। दस हजार बार असफल होने बाद आखिर विचार (भाव) का परिष्कार होता ही गया और विद्युत को कैसे प्रकाश में बदला जा सकता है, उसकी खोज हो ही गई। हम सब साक्षी हैं। विद्युत के प्रकाश से हजारों काम हो रहे हैं। इस उदाहरण से हम समझ सकते है कि ऐसी अंधी भावनाआे की स्थितियों में भी यह संभावना बनी रहती है कि ये भावनाएं (प्रयास) आगे चलकर निखार लायेंगी और सूक्ष्मता और सटीकता की ओर विकसित होगी। प्रकृति में निरंतर विकास का सिद्धांत (A principle of evolution) हर जगह लागू होता है, फिर चाहे वह विचार (मन) हो या भाव हो या प्रकृति की कोई अन्य स्थिति हो।
इसका दूसरा उदाहरण :- भक्ति की अवस्था भी कई स्तरों से गुजरी। ज्ञान को समझने का सामर्थ्य आना और योगी जीवन बनाने के परोक्ष में भी भक्ति की असफलता ही जिम्मेवार होती है। आत्माओं का भक्ति मार्ग से ज्ञान मार्ग की राह तक आ जाना, इस बात का सबूत है कि ऐसी रूपांतरण की प्रक्रिया का होना निश्चित समझ लें। भक्ति काल के लगभग 2500 वर्ष (लगभग 62 जन्म) परमात्मा के प्रति भावना करना और परमात्मा से मिलने की भावना असफल रही। लेकिन 2500 वर्षों के बाद वह भावना सफल हुई। ऐसा कैसे संभव हो सका? इसमें भी अतीत की असफलता या भावनाओं के अनुभवों का जुड़ते रहने से ही आखिर यह संभव हो सका। इसलिए भावना के हर सकारात्मक रूपांतरण में, खासकर दिव्यता की स्थिति के बनने में, या सूक्ष्म रूपांतरण में धैर्यवत प्रयास करते रहने का, लंबे समय तक पुरुषार्थ करते रहने का और प्रतीक्षा करते रहने का भी भावनाओं के परिपक्व होने और यथेष्ठ परिणाम आने किया एक अनिवार्य तथ्य है।
दूसरी तरफ - भावना पवित्र और पवित्रतम भी होती है जो निरंतर दिव्य बनाने की प्रक्रिया से गुजरती है। यह भावना भी स्वयं में इतना शक्ति रखती है कि मुक्ति और जीवनमुक्ति की स्थिति की अचीवमेंट तक ले जाती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह भावना का स्रोत कौन है, कैसा है, भावना का प्रयोजन क्या है और भावना किसके प्रति की गई होती है।
भावार्थ यह हुआ कि किसी भी कार्य के परोक्ष में भावना जो भी हो, समयांतर में हर हालत में अवश्य निखार लाती ही है। कई बार भावना वाली भाव प्रधान आत्माएं भी विचारवान की पराकाष्ठा की स्थिति तक पहुंचती है। कई बार विचारवान आत्माएं भी भाववान की पराकाष्ठा की स्थिति में छलांग लगा लेती है। ड्रामा बड़ा अद्भुत बना हुआ है। लेकिन आत्मवान की स्थिति में कोई भी आत्मा डायरेक्ट छलांग नहीं लगा सकती है। उसे भाव या विचार की शुद्ध और सात्विक प्रक्रिया से गुजरते हुए ही जाना पड़ेगा। जिस प्रकार भावना की शुद्धि की जटिल प्रक्रिया है ठीक वैसे ही विचार की शुद्धि की भी जटिल प्रक्रिया है। भाव और विचार का पवित्रीकरण विशेष प्रक्रिया से गुजरते हुए धीरे धीरे ही होता है। किसी भी निश्चित दिशा में यथार्थ पुरुषार्थ की भूमिका हमेशा ही अनिवार्य रहती है।