संवाद- मैं और तुम
संवाद- मैं और तुम


तुम: देखो तुम्हारी आँखें ख़्वाबों से भरी हुई हैं। इतने ख़्वाब क्यों देखती हो?
मैं : ख़्वाब नहीं तो मैं नहीं। ख़्वाबों के पूरा होने की उम्मीद ही मुझे जिन्दा रखती है।
तुम : अपने ख़्वाबों में से थोड़ा सा हिस्सा मुझे दोगी क्या?
मैं : नहीं मेरे ख़्वाबों पर सिर्फ मेरा हक़ है।
तुम : तुम तो मुझे अपना साथी मानती हो, फिर मुझे क्यों नहीं?
मैं : डर लगता है अगर तुम्हें अपने ख़्वाब दे दिए तो कहीं तुम साथी से मालिक ना बन जाओ।
तुम : ऐसा कभी नहीं होगा, भरोसा रखो।
मैं : कैसे कर लूँ यकीन....तुम पुरुष हो, बदलना तुम्हारी फ़ितरत में है। मत मांगो मेरे ख़्वाबों में अपना हिस्सा, मैं दे नहीं पाऊँगी।
माना मैं स्त्री हूँ लेकिन मैंने तय किया है इस बार अपने ख़्वाबों का बोझ मैं अकेले ही उठाऊंगी।
तुम : तुम्हें जितना ऊँचा उड़ना है आसमान में , तुम उड़ना। मैं जमीं पर तुम्हारे लौटने का इंतज़ार करूँगा।