संस्कारी कौन भाग 2: अंजली
संस्कारी कौन भाग 2: अंजली


मेरी मम्मी आजकल खूब लिख रही है और लोग भी सुना है बहुत पसंद कर रहे हैं। वैसे मुझे हिन्दी नहीं आती, मेरा मतलब है, मैं बोलती हूँ और फ़िल्म देखती हूँ पर सीरियसली, हिन्दी हमेशा से मेरा प्रॉब्लम एरिया रहा है। हम ठहरे मद्रासी और हिन्दी ग्रामर तो आती ही नहीं। मुंबई रहकर जो बची-कुछी हिन्दी थी वह भी भूल गयी क्योंकि यहाँ तो बम्बइया ही चलती है। पर मैंने मम्मी से प्रेरणा ली और हिम्मत जुटाई मम्मी की कहानी पढ़ने की और फिर लिखने की!ये मम्मी लोग भी पता नहीं अपने आप को क्या समझते हैं, हर वक्त परेशान रहते हैं और परेशान करते हैं बच्चों को। मैं अब बच्ची नहीं हूँ पर माँ कहती है कि उनके लिए मैं हमेशा बच्ची ही रहूँगी। तो ये उनका प्रॉब्लम है ना, मेरा तोड़ी? अफ़सोस ये है कि मेरा सोचना ग़लत है और एक्चुअली प्रॉब्लम मुझे ही होता है।
संस्कार के बारे में माँ ने बहुत कुछ लिख दिया और अप्पा ने भी लम्बी-चौड़ी भाषण दी पर ज़मीन पर सच क्या है ये नहीं बोले। माँ की तो हालत ख़राब है, कहती कुछ और करती कुछ। सब माँएँ ऐसी ही होती हैं क्या? मैंने सौ लोगों को पूछा तो 90 लोगों ने जवाब दिया की ये सच है! पर उनका भी कोई दोष नहीं, माँ बनते ही औरतें बदल जाती हैं। अपने पतियों पर तो इनका ज़ोर चलता नहीं, बस बच्चे उनकी चुंगल में फस जाते हैवैसे माँ सिंपल है और उनके डिमांड्स भी ज़्यादा नहीं हैं। वह खुश हैं अगर मैं घर का काम कर दूँ; वह प्रसन्न होती हैं जब मैं ऑफ़िस से सीधे छः बजे तक घर लौटी हूँ। जिस दिन मैं खाना बनती हूँ बस पूछो मत, गले लगा लेती हैं मुझे और जब सारे काम एक साथ जिस दिन कर दूँ तो रो पड़ेंगे ख़ुशी से!जब ऐसा कुछ भी नहीं होता तो उनके उपदेश (जिन्हें वह गलती से संस्कार मानती हैं) शुरू। अंजली तुम ये नहीं जानती हो, तुम वह नहीं जानती हो, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए वैसा नहीं करना चाहिए, यहाँ मत जाओ वहाँ मत जाओ, ऐसे कपडे मत पहनो वैसे कपडे पहनो-वैगेरा वग़ैरा। ऐसे मूड में वह माँ नहीं डायन लगती है और मैं उनकी संस्कारी बेटी नहीं कोई चरित्रहीन लड़की लगती हूँ। कैसे उनको टोलेराते करती हूँ मैं ही जानती हूँ, क्यों बहनों तुम क्या बोलते हो?
अप्पा की तो पूछो मती! कुछ नहीं बोलेंगे और अपने आप को लिबरल मानते हैं? वह तो हमेशा माँ से बचने के चक्कर में रहते हैं। जब माँ कुछ भी मुझे बोल कर उनसे कन्फर्मेशन मांगती हैं तो वह उनको सपोर्ट करेंगे और बाद में मुझे समझाएंगे "छोड़ो ना बेहेस क्यों करती हो माँ से?" बेचारी तुम्हारी भलाई के लिए ही तो कह रही है? पसंद ना आये तो दूसरे कान से फेंक दो! हाँ, सिंपल। "
मैं भी ये बात समझती हूँ की माँ-बाप बच्चों से बेहद प्यार करते हैं और उनके लिए हमेशा भला चाहते हैं और कंसर्नड फील करते हैं। पर क्या उन्हें बुरे-भले की पहचान है? क्या उन्होनें ग़लतियाँ नहीं की ज़िंदगी में? मैं मानती हूँ की बुरे-अच्छे का कोई डेफिनिशन ही नहीं है, ये सब हम पर निर्भर होता है कि हम कैसे अपने एक्सपेरिएंसेस को डिफाइन करते हैं, क्यों बहनों, क्या मैं ग़लत बोलती हूँ?
मुझे भी एहसास है कि मैं औरत हूँ और समाज पुरुष प्रधान है। तो क्या मैं इसी बात को लेकर रोती रहूँ की औरतें कमज़ोर हैं और भगवान ने सारे प्रोब्लेम्स औरतों के ही हिस्सा मैं डाल दिया? मैं भगवान को कोसती रहूँ तो मेरा एक नहीं सौ जन्म निकल जाएंगे और मैं रोती ही रह जाऊँगी! भाई मैं क्यों रोऊँ लाइफ को बर्बाद करूँ? क्या मेरी ज़िंदगी कोई फ़ालतू चीज़ है जिसे मैं अभिशाप मानकर तबाह करूँ? बोलो ना, चुप क्यों हो तुम लोग?बच्चे बेवकूफ़ नहीं हैं, समझते हैं अपना बुरा-भला। शायद माँ-बाप से कुछ ज़्यादा। इसलिए माता मेरे, तुम मेरे बारे में फ़िक्र करो, पर नेगटिवेली नहीं, पोसिटीवेली। मुझे खडडे में ही गिरना है तो तुम क्या भगवान भी नहीं बचा सकते! वैसे मैं जान-भूजकर क्यों गिरूँगी? और वैसे भी वह कहावत हैं ना "घुड़सवार ही घोड़े से गिरता है" फिर तुम मुझे घोड़े पर सवार क्यों होने नहीं दे रही हो?
माना औरत की ज़िंदगी मुश्किल ही दिखती है, पर ज़िंदगी चल्लेंजिंग नहीं है तो क्या है? क्या अप्पा ने लाइफ में ठोकरें नहीं खायी? क्या तुम अपने माँ के अच्छे संस्कार फॉलो करके कभी कोई प्रॉब्लम फेस नहीं किया? प्रोब्लेम्स सब को होती है माँ और होती ही रहेंगी, अवॉयड नहीं कर सकते।
मेरे प्यारे अप्पा और माँ, मैं आपसे बेहद प्यार करती हूँ और रेस्पेक्ट भी। मुझे अच्छा लगता है कि आप मेरे लिए एक सपोर्ट बनकर हमेशा खड़े हो। पर माँ-पा मेरी ज़िंदगी मेरी है, आपकी नहीं, हैं ना ये सच्ची बात? कभी गलती किया तो रिस्पांसिबिलिटी मेरी है आप लोगों की नहीं। आप कहते हो संस्कार, मैं कहती हूँ प्यार, क्योंकि माँ-पा आप कभी ग़लत नहीं बोलोगे मेरे लिए। बट प्लीज, मुझे भी जीने दो अपने तरीके से? प्लीज?