क्या मैं वहमी हूँ?
क्या मैं वहमी हूँ?
वहम का अर्थ ढूंढ तो पता चला कि वहमी उसे कहते हैं जो अन्धविश्वास में विश्वास रखते हैं और सनकी होते हैं। तो मेरे मन मैं सवाल उठा "क्या मैं अंधविश्वासी और सनकी हूँ?"
देखो बहनों, इस मंच पर मैं झूठ नहीं बोलूंगी, ये तय कर लिया मैंने, चाहे सच कितनी भी कड़वी क्यों ना हो! दूसरों के बारे में बोलने से पहले मैंने सोच कि अपने ऊपर ही क्यों ना आज़माकर देखें? कहते हुए शर्मिंदगी होती है पर सच तो ये है कि बहुत कुछ मैं बिना जाने ही स्वीकार कर लेती हूँ।
अपने धरम के प्रति मेरी प्रबल आस्था है इसमें कोई शक नहीं और मुझे गर्व भी है इस बात का। मुझे बच्चों की चिंता रहती है क्योंकि मुझे लगता है कि वह इस बात को गंभीरता से नहीं लेते। मैं ये नहीं कहती कि मेरी तरह वह रोज़ पूजा-पाठ करें, पर बहनों इतना तो जायज़ है यदि मैं चाहूँ कि बच्चे काम से काम तीज-त्यौहार के-के दिन तो आरती में हमारा साथ दें? पर उन्हें तो लगता है हम ढोंगी हैं और बिना कुछ समझे ही ये सब करते हैं। क्या बहस करूँ इनसे और कैसे इन्हें समझाऊँ?
मुझे बुरा लगता है जब मेरा बेटा मेरे 'वो' की खिंचाई करता है। 'वो' रोज़ सुबह उठकर काम से काम एक घंटा श्लोक पढ़ते हैं। आप लोग जानते ही हैं कि मद्रासी ब्राह्मण परिवारों में रियाज़ है पूजा-पाठ का और मेरे पति बड़ी शिददत से पूजा करते हैं। उनको सारे श्लोक कंठस्थ हैं और आप जानते ही हो कि हमारे श्लोक संस्कृत में ही ज़्यादातर हैं। मेरा बेटा उनसे इनका अर्थ पूछता है और वह बेचारे पूरी तरह उसे बता नहीं पाते, तो लड़का उनका परिहास करता है और कहता है कि अप्पा बिना समझे ही पंडित बनने का ढोंग करते हैं।
एक मज़ेदार बात बताऊँ तुम लोगों को? बहुत साल पहले हम सब साथ में चार-धाम यात्रा पर गए। जून का महीना था पर ठंड बहुत थी। बदरीनाथ में एक दिन सुबह हम गंगा नदी में स्नान के लिए गए और मेरे पति ने ठंडे पानी में नहाने से इंकार कर दिया और बैठ गए एक बरगद के पेड़ के नीचे और ज़ोर-ज़ोर से श्लोक गाने लगे, शायद ठंड से बचने के लिए। पानी तो मानो बर्फ थी और मेरे तो पैर ही सुन्न हो गए, फिर भी हिम्मत करके मैंने नहा लिया। वापस आई तो क्या देखती हूँ? बीस लोग मेरे पति को घेर-कर खड़े हो गए और हाथ जोड़े श्लोक सुन रहे हैं! उनको शायद भूल से लगा की मेरे पति कोई ग्यानी-साधू हैं!
हमारे यहाँ बेटों को जनेऊ पहनाया जाता है जो कंपल्सरी है। जब बेटा बड़ा हुआ तो एक दिन उसने जनेऊ उतार दिया और बोला "अब ये नहीं पहनूंगा"। पिताजी गुस्सा हो गए और लड़के को डांट-फटकार दिया। लड़के ने भी गुस्से में उनसे पूछ लिया कि जनेऊ पहनने से क्या होता है? क्यों केवल ब्राह्मण लोग ही को जनेऊ अलाउड है? जब पापा ने कहा कि-कि ऐसे ही होता आया है और सब लोग इसे मानते हैं तो बीटा ने उनको समझाया "अप्पा, आप मूर्ख क्यों बने रहते हो? पहले ज़माने में जब शिक्षा केवल ब्राह्मणों का ही अधिकार माना जाता था तो ब्राह्मणों के बच्चे गुरुकुल भेजे जाते थे गुरु के से सीखने के लिए। तब लड़कों को जनेऊ पहनाया जाता था जिसमे तीन दागे होते थे। हर एक धागा एक देवी के लिए था, लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती। धागों का मतलब था लड़कों को एक मर्यादा के दायरे में बांधना, डिसिप्लिन अप्पा। और जनेऊ सबके लिए अलाउड था, ब्राह्मण, क्षत्रिय और बैश्य। आज क्या रेलेवेंस या तात्पर्य है इसका? बकवास है जो भी आप सोचते या करते हो।"
पति देव बोले "कल्चर और ट्रेडिशन कभी भूलना नहीं चाहिए, बेवकूफ़ थे क्या सब लोग तुमसे पहले जो पैदा हुए? ब्राह्मण पैदा होना तेरे हाथ में नहीं, भगवान के हाथ में है। तुम्हें तो गर्व महसूस करना चाहिए और तुम उल्टा-सीधा बोलते जा रहे हो?"
"अप
्पा, आप भी ना। किस बात का गर्व अप्पा? हमारे पूर्वज कहते थे की ब्राह्मण द्विज है, वह जिसका जन्म दो बार होता है। पहला जन्म तो सब माँ के कोख से लेते हैं, इसमें कुछ विशेष नहीं; पर दूसरा जन्म विशेष है और ये वह लोग ही ले पाते हैं जिन्होंने ज्ञान प्राप्त किया हो। अज्ञान की अंधकार से ज्ञान की रौशनी में जो आता है उसे ही द्विज कहते थे, यानी ब्राह्मण, क्योंकि उनको ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। पर अब नहीं, अब तो हर कोई शिक्षित हो गया है अप्पा और हर कोई ज्ञान की रौशनी में है।"
"सुनो प्रमिला, क्या बोल रहा है तुम्हारा लाडला। पढ़-लिख कर मुझे से समझा रहा है तुम्हारा ज्ञानी बेटा। कहता है धरम बकवास है, रीति-रियाज़ ढकोसला है और ये बहुत बड़ा ग्यानी है।"
अब मैं क्या बोलूं? आज के बच्चों को समझना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है।
"अप्पा आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि धरम, भगवान और रीति-रिवाजों को मैं मानता नहीं हूँ, आप में और मुझ में फर्क बस इतना है कि आप पढ़े-लिखे होकर भी इन बातों को समझना नहीं चाहते हो और अंधे बनकर रठे हुए श्लोक और बताये हुए रीति-रिवाज़ों को फॉलो कर रहे हो। आपको शायद पता नहीं, पर ऐसा करना पाप के सामान है, ऐसा हमारे ज्ञानियों ने कहा है।"
लो कर लो बात! बेटा कहता है कि-कि उसका बाप पापी है! घोर कलयुग नहीं है तो ये क्या है?
उधर अंजली भी कुछ कम नहीं है। हमारे यहाँ छुआ-छूत बहुत मानते हैं और साफ़-सफाई के मामलों में मुझे सही भी लगता है। हमारे घर पर नौकरानी आती है तो मैं उसे एक अलग कप में चाय पिला देती हूँ। अंजलि कहती है कि मैं भेद-भाव करती हूँ, आखिर नौकरानी इंसान नहीं है क्या? मैंने समझाया कि मैं भी उसे इंसान ही मानती हूँ पर इंसान-इंसान में फर्क होता है और हम सब को एक लकड़ी से नहीं हांकते। अंजली बोलती है ये ग़लत सोच है मेरी। उसका कहना है कि समाज में कुप्रथाएँ हम ही लोग फैलाते हैं। मुझे लगा कि मैं प्रोग्रेसिव हूँ, मेरी माँ तो चाय भी नहीं पिलाती थी नौकरों को, क्या मुफ्त में काम करते हैं वो? ऐसा बोलती थी मेरी माँ! मैं तो बहुत कुछ एडजस्ट कर लेती हूँ, फिर भी बेटी कहती है कि मैं कुप्रथा फैलाती हूँ!
कितना भी पढ़-लिखकर हम समझदार बन जाएँ पर मूल रूप से हैं तो हम लोग वहमी। चाहे हम इस सच्चाई को ना मानें, पर सच तो सच है। वर्ण व्यवस्था, जात-पात, गोर-काले ना जाने कितना भेद-भाव हम करते आये हैं और करते रहेंगे। मेरी एक पंजाबी सहेली ने मद्रासी लड़के से शादी किया। लड़की के माँ को प्रॉब्लम थी पंजाबियों से और बाप का कहना था कि लड़के वाले मांस-मच्छी खाते हैं इसलिए शादी नहीं होगी। मेरे ही बेटे ने जब एक अमरीकन लड़की से शादी की तो मैं बहुत अपसेट हो गयी। एक तो वह क्रिस्चियन थी और फिर इंडिया की नहीं थी। मैं ये सोचकर परेशान थी कि मैं बहु से बात कैसे करुँगी? वह सिर्फ़ अंग्रेज़ी में बात करती है (और अमरीकन अंग्रेज़ी तो माशाल्लाह है, कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता) और मुझे अंग्रेज़ी आती नहीं। लड़की के तौर तरीके अलग, वह तो अपने धरम को भी नहीं मानती, उससे कैसे उम्मीद करूँ की हिन्दू धरम को समझे और अपनाए?
मन से एक आवाज़ कहती है कि मुझे अपने सोच के दायरे को बड़ा करना होगा; दूसरी तरफ मन यह भी बोलता है कि मुझे बदला नहीं चाहिए क्योंकि सदियों से जो चला आ रहा है वह कभी ग़लत नहीं हो सकता। तुम लोगों को क्या लगता है?
1. ज़्यादातर लोग अंधविश्वासी हैं
2. रीति-रिवाज बेकार के ढकोसला हैं, छोड़ देना चाहिए
3. अपने धरम को सीरियसली समझने की ज़रुरत है फिर डिसाइड करो की क्या अच्छा है और क्या बुरा।