समय चक्र
समय चक्र
पूर्व दिशा की और से आने वाले झंझावात व प्रचंड वायु के वेग से क्लांत अश्व पर सवार विकर्ण किसी निर्जन स्थान पर रुक कर अपने भीगे वस्त्र सुखा लेना चाहता और अपने अश्व को भी विश्राम करने देना चाहता था परन्तु न तो झंझावात का वेग कम हो रहा था न ही वायु वेग। आकाश में छाए मेघो ने संध्या की बेला को और अधिक स्याह बना दिया था। वो ऐतिहासिक नगर देवदुर्ग की परिसीमा से बहुत दूर आ चुका था, दूर-दूर तक कोई मानव आवास दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, लगता था आज उसे इसी झंझावात के साथ आगे बढ़ना होगा। कुछ देर वो ऐसे ही बढ़ता रहा तभी स्याह रात्रि में उसे दूर एक दीये की लो दिखाई देने लगी। उसके मन में एक आशा की किरण चमकी, कदाचित उसे और उसके अश्व को रात्रि विश्राम के लिए स्थान मिल जाए।
जैसे-जैसे वो उस लो के समीप जा रहा था उसे एक विशाल भवन दृष्टिगोचर होने लगा, प्रकाश उस भवन के एक विशाल गवाक्ष से आ रहा था। उसने भवन के द्वार के समक्ष जाकर अश्व रोक दिया। द्वार के समक्ष एक रथ खड़ा था।
रथवान उसे और उसकी वेशभूषा को देखता रहा और फिर बोला, "योद्धा अपने मार्ग से विचलित लगते हो, लेकिन आगे बढ़ते रहो यहाँ प्रश्रय नहीं मिलेगा यह कोई विश्रामालय नहीं है।"
"रथवान इस झंझवात में मेरा अश्व क्लांत है, उसे थोड़ा विश्राम चाहिए मै भी अपने वस्त्र सुखाना चाहता हूँ कृपया हमें कुछ देर ठहर जाने दो, झंझावात का वेग क्षीण होते ही हम अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाएंगे।" विकर्ण अपने अश्व से नीचे उतरते हुए बोला।
"तुम्हारी स्थिति समझ रहा हूँ योद्धा, लेकिन मुझे इस गृह की स्वामिनी से आज्ञा लेनी होगी।"
"अगर आज्ञा ले सको तो मैं बहुत आभारी रहूँगा आपका।"
"प्रयास करता हूँ………" कहकर रथवान आवास के भीतर चला गया।
थोड़ी देर बाद कोचवान एक महिला के साथ द्वार पर आया, उसे देखकर विकर्ण बोला, "प्रणाम देवी मैं और मेरा अश्व कुछ देर के लिए विश्राम करना चाहते है........"
"मैं ईरा हूँ, देवी वीथिका की मुख्य दासी, उन्होंने तुम्हें विश्राम करने की अनुमति दे दी है। अपना अश्व लेकर मेरे पीछे आ जाओ।"
विकर्ण ने रथवान को धन्यवाद दिया और उस विशाल आवास में दासी के पीछे चल पड़ा।"
"इस बरामदे में अपना अश्व बांध दो और सामने बने शयनकक्ष में विश्राम भी कर सकते।" दासी उसे बड़ा से बरामदा दिखाते हुए बोली, "भोजन अभी थोड़ी देर में मिल जाएगा तुम्हें।"
"धन्यवाद देवी………" कहते हुए विकर्ण ने अपने अश्व को बरामदे के एक स्तंभ से बांध दिया। वो शयनकक्ष की और बढ़ा ही था कि उसे एक परिचित स्वर सुनाई दिया।
"कौन योद्धा है ईरा, कहीं युद्ध करने जा रहा है या युद्ध करके आ रहा है?"
स्वर सुनकर विकर्ण पीछे मुड़ा उसके समक्ष दासी के साथ नलिनी खड़ी थी, हतप्रद विकर्ण ने हाथ जोड़कर कहा, "प्रणाम देवी।"
"अभी भी कल्पना लोक में ही रहते हो, या सत्य के धरातल से कुछ परिचय हुआ है तुम्हारा?"
"समझा नहीं देवी………"
"तुम कभी समझे हो जो आज समझोगे……….ईरा तुम जाओ।" वो दासी की और देख कर बोली।
विकर्ण ने अपना चेहरा अपने अश्व की और घुमा लिया।
"विकर्ण मैं नलिनी हूँ, नाम तो स्मरण होगा?"
"मुझे सब स्मरण है देवी, ये वीथिका कौन है?"
"मैं ही वीथिका हूँ मैं ही नलिनी………"
"चंद्रपुरी से इतना दूर देवदुर्ग में?"
"जब प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो तो नगर बदल जाते है, आवास बदल जाते है।"
"हाँ तुम्हारी प्रगति की क्षुधा को मैं जानता था........कदाचित यही वजह रही......."
"मुझसे दूर जाने कि, तुम मूर्ख हो विकर्ण, तुम प्रगति के मार्ग में एक पड़ाव भर थे लेकिन तुम तो मुझ पर आधिपत्य जमाने को आतुर थे, मेरी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर रहे थे, इसी कारण मैंने तुम्हारी अवहेलना कर तुम्हें तुम्हारा स्थान ज्ञात करा दिया। लेकिन आज तुम अचानक मेरे समक्ष……..कहाँ जा रहे हो?"
"मकरकेतु से नगर वधु दामिनी को विमुक्त कराने।"
"मकरकेतु की शक्ति के विषय में कुछ जानते हो?"
"भलीभाँति वो स्त्रियों के पीछे छिपने वाला कायर है, पहले भी उसे परास्त किया था अब भी करूँगा।"
"तुम सदैव मूर्ख रहे हो विकर्ण, लड़ने को आतुर। तुम मेरे कारण मकरकेतु से लड़े थे, लेकिन क्या मैंने तुम्हें लड़ने को कहा था?"
"नहीं देवी तुमने कुछ नहीं कहा था, लेकिन तुम्हारे स्थान पर मकरकेतु किसी का भी अपमान करता तो मैं मकरकेतु से अवश्य संग्राम करता।"
"पहले के मकरकेतु और आज के मकरकेतु में बहुत अंतर है पहले वो चंद्रपुरी की सेना का सेनानायक था, आज वो देवदुर्ग के सीमान्त कालगढ़ का शक्तिशाली सामंत है, राजा का प्रिय है, तुम्हें चींटी की तरह मसल देगा।"
नलिनी की बात सुनकर हतप्रद रह गया, जो युवती कभी उसको अपना सर्वस्व मानती थी, मकरकेतु से घृणा करती थी, आज उसे मकरकेतु का भय दिखा रही है, कदाचित यही समय चक्र है।
"लगता है झंझावात का वेग कुछ कम हो गया है, मेरे अश्व ने भी बहुत देर तक विश्राम कर लिया है, मैं चलने की अनुमति चाहता हूँ।" विकर्ण ने बरामदे के स्तंभ से अपने अश्व की लगाम खोलते हुए कहा।
"मकरकेतु से संग्राम करने, मूर्ख हो तुम, वो तो यहीं है देवदुर्ग में, राजकुमारी के जन्मदिवस के आयोजन में भाग लेने आया है। मेरे एक संकेत पर वो दामिनी को मुक्त कर देगा, कहो तो मैं बात करूं, मैं भी राजकुमारी के जन्मदिवस के आयोजन में भाग लेने राजमहल जा रही हूँ । मैं राज्य की राजसी नर्तकी हूँ, मेरी बात को राजा भी नहीं टालता है।"
"नहीं देवी, मैं मकरकेतु के आंतक का अंत करने निकला हूँ मुझे तुम्हारी इस प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं है।"
"आंतक का अंत? ध्यान रखना कहीं वो तुम्हारा ही अंत न कर दे।" कहते हुए नलिनी अपने रथ में जा बैठी।
"हाँ देवी, मैं ध्यान रखूँगा…….." कहकर विकर्ण अपने अश्व की लगाम थामे उस विशाल भवन से बाहर निकल गया। झंझावात अब पुनः तीव्र हो चला था लेकिन विकर्ण के मन का झंझावात बाहरी झंझावात से प्रचंड था।