Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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समस्या की जड़

समस्या की जड़

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ट्रेन में 970 किमी का सफर हुआ था, अभी 270 और बाकि था। मैं राम राम करते बहुत कष्ट की हालत में, ट्रेन में सवार हो सकी थी। अब भीषण वेदना में थी। अपने भरतार को मना भी किया था कि इतना लंबा सफर, इस हालत में न कर सकूँगी।

मेरी आपत्ति पर गुस्सा कर उसने, मुझे, पीठ पर दो घूँसे मार दिए थे। समझने को तैयार नहीं था कि मैं, सात माह के पेट से हूँ।

हम लोगों में भरतार को, पत्नी की सुनना पसंद नहीं होता है। जो भी करना है, खुद ही तय करते हैं। मैं गरमी में पसीने पसीने हो, घंटों तक लाइन में, प्यासी और जैसा तैसा खाते हुए खड़ी रही, फिर ट्रेन में सवार हो सकी थी। सफर में भी तेज लू लपट से मेरा, जी ख़राब लग रहा था।

भरतार से डर के मारे, कुछ कह नहीं पा रही थी। वह, कभी थोड़ी दया करता तो पानी, खाना ला देता था।

मेरी किस्मत को क्या मंजूर था, मुझे समझ नहीं आ रहा था। शादी को दस बरस हुए, बच्चा नहीं हुआ तो हम आस छोड़ चुके थे। तब सुखद आश्चर्य हुआ जब मैं, पेट से हो गई थी। अपने बच्चे को लेकर, सपने देखने लगी तो, कोरोना विपत्ति सिर पर आ बैठी थी।

कोई बोल रहा था, गाड़ी कोटा से आगे निकल रही है। तकलीफ से मैं रो रही थी। चिंता अलग सता रही थी कि बच्चा पहले ना आ जाए। सतमासा, इस बुरे हाल में अगर जन्मा तो शायद बच न सकेगा। मैं सोच रही थी, अगर ऐसा हो तो, भगवान मुझे भी साथ ही मार दे।

किस्मत अच्छी यदि होती तो, मैं गरीबी ही क्यूँ होती? जो जो नहीं चाहती थी वो हुआ। डब्बे में जो औरतें थी, उन्होंने जैसे तैसे प्रसव करवाया। बेटी हुई, कुछ समय रोई थी, मगर बच न सकी।मालूम नहीं, इतने कष्ट और ख़राब तबियत में, मैं क्यूँ न मरी थी।मैं रोती रही थी। भरतार को कोई दुःख न दिखा। जन्मा और मर गया शिशु, बेटी थी ना, इसलिए। बेटा होता तो शायद, उसके ना बच पाने का वह दुःख करता। 

ट्रेन अंततः गंतव्य को पहुँची थी। वहाँ, मिले ट्रैक्टर से गाँव को रवाना हुए थे। बीच में, मैं अपने मायके उतर गई थी। भरतार , अपने गाँव चला गया था।

माँ, भौजी तब मेरी देखभाल में लगी रहीं। मैं ठीक हो गई तब भी, किसी से बोलती कुछ न थी। महिना भर होने को आया। इस बीच मेरे पर बीती की, गाँव भर में चर्चा रही।बात टीवी वालों तक पहुँच गई थी। बनारस से टीवी वाली एक लड़की आई, बोली, मेरा नाम आरुषि है, मुझे तुम्हारा इंटरव्यू लेना है। तुम पर बीती, सब लोग देखेंगे-सुनेंगे।

मुझे कोई रूचि नहीं थी। खूब मनाते रही तो, मैं तैयार हुई। वह पूछती, मै ऐसे जबाब देते गई -

आरुषि- "ट्रेन में जन्मी तुम्हारी बेटी बच न सकी, तुम किस का दोष मानती हो?"

मैं- "सिनेमा हिरोइन, कैटी का।"

आरुषि ( आश्चर्य से)- "वह कैसे?"

मैं- "मेरा भरतार, उसका दीवाना है। मुझे, मुंबई लेकर आया था कि कैटी के बँगले पर माली का काम करेगा।"

आरुषि- किया फिर माली का काम, उसने?

मैं- "क्या करता, बँगले में झाँकने भी नहीं मिला। लेकिन तो भी कैटी, उसके सपने में, उसकी घरवाली है।"

आरुषि- "लेकिन इससे, तुम्हारी नवजात बेटी के ना बचने का संबंध तो नहीं होता?"

मैं- "है, कैटी, अपनी कमाई के लिए, अपने जलवे दिखा कर मेरे भरतार जैसे ही, कई गाँवो वालों की सपने में घरवाली बन जाती है। गाँव के खेत के अच्छे काम छोड़, सब मायानगरी में आ जाते हैं। ऐसे ही, मेरा भरतार आ गया। मुंबई में रहने को खुला, खाने पीने को पौष्टिक मिलता नहीं। कई साल मुझे बच्चा नहीं हुआ। बच्चा कोख में आया तो, ये कोरोना आ गया। मैं पहले आना नहीं चाहती थी, अभी मुंबई छोड़ना नहीं चाहती थी। भरतार ने मुझे, घरवाली जैसा मान दिया नहीं, उसका बस चलता तो वह कैटी को घरवाली बनाता। उसने मेरी सुनी नहीं, जबरन वापिस ला रहा था। मैं सह नहीं सकी, बच्ची समय से पहले पैदा हुई और बच न सकी।"

आरुषि- "लेकिन उसे कैटी ने तो मारा, नहीं?"

मैं- "कैटी, स्वार्थ और कमाई के लालच में, अपने जलवे से आदमियों के सपने में बस जाती है। फिर आदमी, अपनी जोरू को दासी बस मानता है। ऐसे ही मेरा भरतार अगर, कैटी के पीछे पागल होकर, मुझे मुंबई नहीं ले जाता, फिर कोरोना के कारण ऐसी हालत में मुझे वापिस न ला रहा होता तो, मेरी बच्ची ना यूँ जन्मती, ना ही यूँ मरती। सब कैटी के कारण हुआ है।"       

फिर आरुषि ने मेरा, यह इंटरव्यू टीवी पर दिखाया था। गरीब मैं, मुझे क्या फायदा होना था। कहते हैं टीवी वालों की खूब कमाई हुई। क्या कहते हैं, कुछ.... टीआरटी... (टीआरपी) बढ़ने से। कैटी को भी फायदा, हुआ होगा। यह सुन कर कि लोग कितने पागल हैं, उसके जलवों से, उसके दो किलो वजन बढ़ गया होगा .... 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 07-06-2020


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