Bharat Bhushan Pathak

Romance

5.0  

Bharat Bhushan Pathak

Romance

समर्पण

समर्पण

6 mins
514


स्निग्धा आज अपने कमरे में बैठी कुछ सोच रही थी। दिल उसका कुछ कह रहा था और मस्तिष्क कुछ और। ये द्वन्द(दुविधा) था कि उसके मन को क्लान्त करता (थकाता)जा रहा था।

वो समझ ही तो नहीं पा रही थी कि वो करे तो करे क्या ! क्या वो अपनी माँ से इस विषय में बात करे। वो सोच रही थी कि उसे प्यास आज इतनी क्यों लग रही है।सोना चाह रही है पर नींद कहाँ..

काॅलेज से आते ही उसने पापा मम्मी से कह दिया कि आज मनोविज्ञान(मन को समझने का विज्ञान) में कुछ इस प्रकार की उसने प्रायोगिक परीक्षा(practical exam) दी है, जिसमें सम्मोहन(hypnotism) व आकर्षण(mesmerism-to look something attentively) को समझाने और समझने के लिए उसे सम्मोहन करना और होना दोनों पड़ा है, जिस कारण उसकी पलकें भारी-भारी सी हो रही है और सिर में तेज दर्द भी हो रहा है।

मम्मी ने तो उसके सिर में तेल लगा देने के बारे में उससे पूछा भी था,पर उसने बड़े ही अनूठे अन्दाज़ में मम्मी से कह भी दिया था कि मेरी प्यारी मम्मी मैं ठीक हूँ, बस थोड़ा आज सो लेने दो मैं ठीक हो जाऊँगी।

मम्मी ने हामी भी भर दी थी और वो तब जाकर अपने कमरे में आकर छिटकनी लगाकर बस लेटी ही थी पर यह क्या आज उसके आँखों में नींद कहाँ थे, उसके दिल के धड़कनों पर भी तो आज नियन्त्रण न था।

आज वो सोच रही थी कि ऐसा आज उसे क्या हो गया है कि उसके होश ही उड़ गए हैं। न आज उसने खाया है और न ही कुछ पी ही पाई है, परन्तु फिर भी लग रहा है कि उसके पेट भर गए हैं।

पूरे तन बदन में अजीब -सी थिरकन पैदा हो गयी है। मनोविज्ञान की एक अच्छी विद्यार्थी होने के कारण वो यह तो समझ चुकी थी कि उसकी भावनाएं उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं परन्तु इसके बावजूद भी उसे कुछ समझ नहीं आ पा रहा था। आखिर क्या हो गया है उसको।कहीं वो ऊपरी हवा का शिकार तो नहीं, कहीं वो किसी गम्भीर बीमारी का शिकार तो नहीं हो गयी।

इतने में हवा बहने लगी, हल्की बारिश भी शुरू हो गयी थी। वो खिड़की बन्द करने के लिए जैसे ही बढ़ी तभी बारिश की कुछ बूँदें उसके चेहरे को भी छू गयी।

बारिश की बूँदों को चेहरे से छूते ही उसे एक अजीब -सा एहसास हुआ मानो वो बारिश उसे किसी नायक की भाँति ही आगोश में ले रहे हों।

स्निग्धा को लग रहा था मानो हजारों वाॅयलिन एक साथ बज रहे हों।

स्निग्धा का मन कभी हो रहा था कि वो कभी नीचे ,कभी गाए,कभी रोए,कभी चिल्लाए।

खैर किसी तरह उसने अपनी इस बेचैनी को नियंत्रित करके अपनी प्यारी सखी सारिका को फोन किया और उसे सारी बात बता डाली।

सारिका उसकी सारी बातों को इस तरह सुनती जा रही थी, मानो वो एक मनो चिकित्सक हो और स्निग्धा कोई रूग्णा। अन्त में सारिका ने उसे बड़े ही चटपटे अन्दाज़ में चहकते हुए बतलाया कि ,"ओहो! मेरी जान स्निधू ,मैडम तुझे कहीं प्यार तो नहीं हो गया। मैडम तू तो गयी अब... जनाब इस मर्ज की कोई दवा नहीं मिलती। उसके इतना कहने के बाद स्निग्धा सोच में पड़ गयी क्या मुझे प्यार....मित्रों प्रेम की कोई परिभाषा नहीं ... यही तो हो रहा था स्निग्धा के साथ आज, वह समझ कर भी समझ नहीं पा रही थी इस एहसास को। खैर किसी तरह अपने दिल की धड़कन को नियन्त्रित कर उस रात वह किसी तरह सो पाई। सुबह होते ही उसने जैसे-तैसे कर अपना नाश्ता खत्म किया और अपनी मम्मी को बाई करते हुए काॅलेज को निकल गई। उसके पीठ -पिछे मम्मी बड़बड़ाती रही...

पर स्निग्धा को सुकून कहाँ था आज.. मम्मी उसके जाते-जाते तक उसे कहती जा रही थी -ओहो! स्निग्धा बेटा थोड़ा नाश्ता तो कर लेती... पता नहीं इस लड़की को हो क्या गया है आजकल.. पहले तो सुबह उठते ही मम्मी मुझे ये बनाकर खाने दो, ये चीज खानी है.... पर आजकल तो..... हाय राम! मेरी बच्ची को आखिर हो क्या गया है। न जाने किस मुए करमजले न जादू कर दिया है इस पर।

स्निग्धा की माँ जो एक कृष्णभक्त थी पुकारने लगी श्री कृष्ण को.... हे कान्हा जी ! हे मधुसूदन ! अब सुन लो आज एकबार इस दुखियारी को तुम ।

हे गिरिधर! हे मुरलीमनोहर ! अब तो चले आओ कहाँ

हो गये हो गुम। स्निग्धा की मम्मी प्रार्थना पर प्रार्थना करते जा रही थी

और उसके पापा ठहाके पर ठहाके लगाए जा रहे थे। अन्त में अपनी प्रार्थना समाप्त होने के बाद वो बैठक में आते ही उन्हें डपटकर बोली ,क्यों जी आपको तो बड़ी हँसी आ रही है मेरी चिन्ता पर.. उसकी मम्मी के इतना कहते ही उसके पापा ने प्रत्युत्तर देते हुए कहाँ, मैं कहाँ हँस रहा था भाग्यवान,तुम तो ऐसे ही मुझे कह रही हो, अच्छा चलो, अब नहीं हँसूँगा।

पर फिर वो जोर से ठहाका मार कर हँसने लगे। उधर काॅलेज पहुँचते ही स्निग्धा ने अनिरूद्ध को ढूँढा। वह लाइब्रेरी में बैठकर अध्ययन में लगा हुआ था।

दूर से देखने वालों को यही लग सकता था कि अनिरूद्ध मानो पढाई ही कर रहा हो, पर वह तो हिप्नोटिज्म की पुस्तक के पन्ने को बैठकर पागलों की तरह पलट रहा था।

शायद किसी का इन्तजार था आज उसे। वह कभी पन्ने पलटता, तो कभी अपने घड़ी को पागलों की तरह देखे जा रहा था, अब तो वह मानो पागल सा हो गया था, वह कभी अपनी घड़ी, तो कभी किताब के पन्ने को पलटता, तो कभी बाहर की ओर झाँकता।

इस तरह से उसे समय बिताते लगभग तीन घंटे हो चुके थे, अन्त में वो कुम्हलाए हुए फूलों की भाँति शिथिल पड़ता जा रहा था, उदासी उसके चेहरे से प्रत्यक्ष झलक रही थी।

वह मुर्झाने ही वाला था कि तभी उसे स्निग्धा आती दिखाई पड़ गयी और उसके बिलकुल कुम्हला चुके सुमनस्वरूप चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी।

उसके करीब आते ही अनिरूद्ध के कण्ठ से स्वर फूट पड़े स्निग्धा...... ओ स्निग्धा तुम आ गयी। मुझको यह विश्वास था कि तुम एकबार को ही सही मगर आओगी

जरूर.....

ओ स्निग्धा ! शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं क्या-क्या सोच रहा था, कितना डर रहा था मैं शायद तुम अब मुझसे बात ही न करो..

स्निग्धा और सारिका बरबस ही अनिरूद्ध को सुनती जा रही थी। शायद वो सोच रही थी क्या एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के लिए इस भाँति भी सोच सकता है कि वह उसे

पागलों की तरह ढूँढने लगे।

अनिरूद्ध कहता गया और कहता गया। वो दोनों उसे सुनती गयी और सुनती गयी।

उसकी बातों को खत्म होने के बाद स्निग्धा भी दौड़ती हुई अनिरूद्ध के बाँहों में उस भाँति डूब गयी, जिस भाँति सूर्य के असीम, अद्भुत तेज में असंख्य तारे विलुप्त हो जाते हैं, समुद्र की अनन्त गहराई में सीपें विलुप्त हो जाया करती हैं। उनका प्रेमासिक्त मिलन आज ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोई मधुकर अनन्तकाल के बिछोह के पश्चात पुष्प से मिल रहा हो, जैसे बादलों में फँसा चाँद वषोंं पश्चात निकला हो। आज अनिरूद्ध और स्निग्धा एक शाश्वत प्रेम का नया अध्याय लिखने जा रहे थे.....


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