Dr Jogender Singh(jogi)

Romance

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Dr Jogender Singh(jogi)

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सीता भाग 3

सीता भाग 3

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विशाल मेरी ज़िंदगी की कहानी से निकल गया। यूँ कहूँ मैंने उसे निकाल दिया बिना किसी सूचना के। मेरा अकेले ददाहु जाना बन्द हो गया। मैं इतनी समझदार भी थी और परिपक्व भी, मेरा अपना निर्णय था कि ददाहु अकेले नहीं जाऊँगी। हाँ ! देवी माँ पर मेरा भरोसा बढ़ गया। मेरी रोज़ की पूजा में देवी की आरती भी शामिल हो गयी। सुरेश मन्दिर रोज़ जाता, मंदिर जाते / जाते गाँव के आवारा लड़कों से दोस्ती हो गयी उसकी। भाँग पीने लगा सुरेश। गाँव के ठाकुर सुरेश के नशे की शिकायत माँ से करने लगे। मंदिर के सहारे से घर चल रहा है, पर सुरेश की हरकतें अजीब होती जा रहीं है। चँदर का स्कूल चल रहा है, वो मन लगा कर पढ़ाई भी कर रहा है। मैं भी उसकी किताबों से थोड़ा / थोड़ा पढ़ लेती हूँ। इसका फ़ायदा भी मुझे मिला, जब मैंने प्राइवेट हाई स्कूल सेकंड डिवीजन से पास कर लिया। बहुत खुश हुई मैं हाई स्कूल पास करके, इतनी बड़ी उम्र में, हाँ मैं अब छब्बीस की हो गयी हूँ। चँदर को इफ़को के एक बड़े अधिकारी बहुत पसंद करते हैं। उनका जब तबादला हुआ चँदर उनके साथ चला गया। हर महीने चँदर की एक चिट्ठी ज़रूर आती। माँ बीमार रहने लगी है, रात भर पैर पटकती है। पैर दबाने से भी कोई आराम नहीं मिलता। रामचंद्र भाई को कई बार कहलवाया, पर वो नहीं आए। चँदर को माँ की बीमारी का पता चला तो दौड़ा चला आया। चँदर का रँग साफ़ हो गया, लम्बा भी खूब हो गया। हम दोनों ने माँ की सेवा की, साथ में ढेर सारी बातें।

तू क्या करता है ? अपने साहब के घर। 

मैं उनका लिखने का सारा काम करता हूँ। चँदर ने बताया। दिन का खाना भी उनके घर से आता है। रात का मैं अपने किराये के कमरे में बना लेता हूँ। और दीदी मेरा बी॰ ए॰ हो गया है। अब मैं बैंक में पी॰ ओ॰ की तैयारी कर रहा हूँ। एक बार नौकरी लग जाये, फिर मैं माँ को शहर ले जाकर अच्छे डॉक्टर को दिखलाऊँगा। चँदर की माँ को शहर ले जाने की इच्छा पूरी होने से पहले माँ की साँसे पूरी हो गयी। चँदर माँ के तेरहवीं संस्कार में आया तो साथ में उसके साहब समीर भी आये। चँदर से उनको विशेष लगाव जो था। बड़े भैया भी आए, सुरेश ने नशे में उनको खूब खरी / खोटी सुनाई। चँदर ने जब रोकना चाहा तो सुरेश ने उसे धक्का दे दिया। किसी तरह गाँव वालों ने बीच - बचाव किया। चँदर ने पी॰ ओ॰ की परीक्षा पास कर ली थी, उसने लिखा था चिट्ठी में, ख़ुशख़बरी के साथ ही एक दुःख भरी ख़बर भी थी, उसकी चिट्ठी में। समीर साहब की बीवी एक महीने पहले अचानक दुनिया छोड़ गयी। एक छोटी सी पाँच साल की बच्ची को छोड़ कर। उनको बहुत दिक़्क़त हो रही है दीदी, अगर तुम कुछ दिन आकर उनकी मदद कर दो, तो बहुत अच्छा होगा। बहुत अहसान हैं उनके मेरे ऊपर। मैंने चँदर को मुझे ले जाने के लिए लिख दिया। दो दिन बाद चँदर मुझे अपने साथ ले गया। भानु और सुरेश ने ना मुझे रोकने की कोशिश की न ही मुझे रुकना था। अपने कपड़े पुरानी अटैची में डाल जब चँदर के साथ बस में चढ़ी, तो पिंजरे में बंद चिड़िया सी मैं उड़ने को तैयार थी, एक तरफ़ लोगों के तानो से छुटकारा दूसरी तरफ़ अनजान जगह जाने का डर। मन भारी सा हो गया, खिड़की की तरफ़ वाली सीट से मैंने अपने घर को निहारा। मेरी विदाई ऐसे होगी कभी नहीं सोचा था, सपने में भी नहीं। मेरा भी सपना था बैंड बाजे के साथ मेरी भी डोली उठे, मैं पलट कर माँ से लिपट कर रोऊँ। सड़क के किनारे खड़ा आम का पेड़ मानो अपनी बाँहें फैलाये मुझे रोकना चाहता था, पर मैं क्यों रुकती। फूलमा को महिमा चाची के हवाले कर आयी थी, चार सौ रुपये में। फूलमा की आँखों से पानी की एक लकीर बह निकली थी। क्या पता फिर मुलाक़ात हो न हो। मैंने देर तक उसकी गर्दन को सहलाया था, हरी घास खिलाने की कोशिश भी की थी, पर उस दिन उसने घास नहीं खायी। मैं भारी मन से उसके गले में लिपट गयी, फिर उसे छोड़ दिया। भाँ—- भाँ की आवाज़ दी थी उसने, मानो कह रही हो मुझे भूल न जाना, अपना ख़्याल रखना, तुम्हारा इंतज़ार करूँगी। दो सड़कों के मोड़ तक मैं देखती रही अपने गाँव को, पगडंडियों को, पेड़ों को। फिर एक गहरी साँस लेकर आँखें बंद कर ली। माँ सामने खड़ी थी आँगन में “ मेरी सीतू आजा ” बाँहें फैलाये मुझे बुला रही थी। अपने गोरे माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी लगाए कितनी सुन्दर है मेरी माँ एकदम अंग्रेज लगती है। बापू भी कितना प्यार करते थे। हाँ बबिता दीदी से ज़्यादा करते थे। पर प्रसाद की खीर मुझे ही देते निकालने के लिए। बापू के झोले को सबसे पहले मैं ही टटोला करती। मेरी आँख लग गयी। 

“ चाय पियोगी दीदी ? चँदर मुझ से पूछ रहा था। 

पहुँच गए क्या ? 

अभी नारायणगढ़ आया है आधा घण्टा और लगेगा। मैं चाय लाता हूँ, चँदर बस से उतर गया।

काँच के गिलास में चँदर ने चाय पकड़ाई, “ कुछ खाओगी ? ब्रेड पकोड़ा। 

ले आ एक ! 

ब्रेड पकोड़ा खाते हुए, भानु भैया याद आ गए, कैसे रहेंगे बेचारे मेरे बिना ? पर मैं क्या करूँ ? मुझे तो जाना ही पड़ेगा। 

चलो, चलो ! सब बैठो बस चलने वाली है। कंडक्टर चिल्ला रहा था। मैं मेले के झूले पर झूलती थी क्या कहते हैं उसे मेरी गोराउंड। सब बैठो, सामने का लॉक लगा लो। और झूला घूमने लगता, मेरा सिर भी घूमता, पेट में एक गोला सा उठता था, पर अच्छा लगता था। 

मैंने बाहर झांका “ सड़क के दोनों तरफ़ हरे - हरे पेड़ थे। दोनों तरफ़ के पेड़ों की डालें सड़क के बीचोबीच एक दूसरे से मिल रही थी। पेड़ों की एक सुरंग सी लग रही थी। आधे घण्टे बाद चंडीगढ़ पहुँच गए। 

सारे घर सलीके से बने थे। सेक्टर सत्रह से सेक्टर बारह जाने के लिए चँदर ने रिक्शा कर लिया। 

कितनी अच्छी सड़कें हैं, कोई गड्ढा नहीं। एकदम मेरे गालों की तरह, विशाल की याद आ गयी, वो मेरे गालों की तारीफ़ ऐसे ही करता था। दुष्ट कहीं का। 

रिक्शा चँदर के मकान मालिक के घर के सामने रुका। घण्टी बजाई तो सामने सरदार जी खड़े थे। 

“ अंकल, यह मेरी बड़ी बहन है सीता। 

मैंने अंकल को नमस्ते की।

नमस्ते बेटाजी सरदार जी ने प्यार से बोला। आओ, अंदर आ जाओ। 

चँदर का एक कमरा और रसोई पहली मंज़िल पर था। सीता ने सारा घर समेटा और रसोई में खाना बनाने लगी। इसका कितना किराया है महीने का ? 

अरे दीदी बैंक देता है किराया। अब खाना खा कर आराम कर लो, कल समीर जी के घर चलेंगे, पास में ही है। 

ठीक ! मैं ख़्यालों में खोई खाना बनाने लगी।


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