Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Fantasy

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Fantasy

सीजन 2 - मेरे पापा (9)…

सीजन 2 - मेरे पापा (9)…

9 mins
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स्वर्ण जयंती शताब्दी एक्सप्रेस से सुबह 7.20 बजे, मैं अंबाला के लिए चल पड़ी थी। मैं अनेक बार किसी किसी गंतव्य के लिए चलती रही थी, मगर आज का मेरा गंतव्य विशेष था। आज मैं उस गंतव्य पर पहुंचने वाली थी, जहाँ मेरी आत्मा पहले ही पहुँची हुई थी (मेरी आत्मा तो मेरे पतिदेव से बंधी हुई थी) और अब 150 मिनट बाद मेरे शरीर को वहाँ पहुंचना था। 

आसपास अन्य यात्रियों की तरफ मेरा ध्यान नहीं था। आरंभ में, मेरा ध्यान सुशांत को साथ लेकर मधुर कल्पनाओं में रहा था। फिर अनायास ही मुझे परमवीर बलिदानी, विक्रम बत्रा की प्रेयसी डिंपल याद आ गईं थीं। विक्रम के जाने के बाद जिन्होंने, स्वयं को उनकी पत्नी मानकर जिया था। वे स्वयं को अन्य किसी से जोड़ नहीं सकीं थीं। मैं सोच रही थी ऐसे में यदि विक्रम से, उनके बच्चे होते तो डिंपल के लिए कितना अच्छा होता। डिंपल के पास एक लक्ष्य होता कि वे परमवीर विक्रम जैसा ही उन्हें भी बनाती और इस तरह से विक्रम तो नहीं मगर विक्रम के अंश साक्षात, जीवन भर उनके साथ होते। 

यह कल्पना किसी भी युवती के लिए भीषण वेदनादायी होती है कि उसके पति, उसे छोड़ अनंत में विलीन हो सकते हैं। डिंपल पर दुखद बीती के स्मरण से, वेदनाकारी यह आशंका मुझे भी होती थी। सुशांत के बच्चे की माँ हो जाने की उतावली मुझे इसलिए रहती थी। इस कटुतम कल्पना में रहते हुए मैं, आज यथार्थ उस गंतव्य पर पहुँचने वाली थी जिसमें सुशांत का साथ मुझे मिलना था। साथ ही मुझे यह भी सुनिश्चित लग रहा था कि इस बार के साथ में, उनका अंश मेरे गर्भ में आ जाने वाला है। 

लगभग अढ़ाई घंटे की यात्रा में रही मेरी इस तंद्रा में, तीन बार सुशांत के ही कॉल से व्यवधान पड़ा था। अंततः ट्रेन अंबाला कैंट स्टेशन पर आ खड़ी हुई थी। 

मेरे कोच के बाहर ही वायुसेना की वेशभूषा में सुशांत दिखाई दिए थे। इन्हें देख मुझे संशय हुआ कि पहले कभी मैंने, इनका इतना अधिक आर्कषक रूप देखा है या नहीं। प्लेटफार्म पर उतरते हुए मेरा मन हुआ था कि मैं इनकी बाँहों में यूँ समा जाऊं, इनके अधरों पर यूँ चुंबन अंकित कर दूँ, ज्यूँ पश्चिमी जोड़ों में खुलेआम देखा जाता है। 

अपनी संस्कृति के स्मरण आ जाने से, मैंने अपनी भावनाओं को नियंत्रण किया था। मैंने अपना ट्राली बेग हैंडल, इनके हाथ में थमाया था। अपने कंधे पर टँगे बेग को व्यवस्थित किया था। फिर शालीनता से मैं, इनके कंधे से लग गई थी। इन्होंने, मुझे एक हाथ से हल्का सा अपनी ओर दबाया था। इस प्रेम भाव से हुए मिलन में मैंने इनके स्पर्श और इनके शरीर की गंध को अपने में रचाते - बसाते हुए परम सुख अनुभव किया था। 

फिर साथ हम प्लेटफॉर्म के बाहर आए थे। मैं, इनके साथ सामने खड़ी कार में पहुँची थी। मेरा सामान इन्होंने कार में रखा था। तब मैं इनके साथ साइड सीट पर बैठकर, हमारे प्रेम बसेरे की ओर चल पड़ी थी। 

सुशांत, ऑफिस से स्टेशन, मुझे घर तक छोड़ने के लिए आए थे। इन्होंने मुझे घर में अंदर छोड़ा फिर कहा - 

रमणीक, तुम खुद ही यहाँ की व्यवस्था समझना, मुझे ड्यूटी पर जल्दी पहुँचना है। मैं शाम को जल्दी आने की कोशिश करूंगा। 

कहते हुए इन्होंने मुझे अपने सीने से लगाकर हल्के से दबाया था। मैं इनसे ऐसे ही लगा रहना चाह रही थी मगर इन्होंने, मेरी दोनों पलकों को हल्के से चूमा था, फिर मुझे छोड़कर, बाय कहते हुए चले गए थे। 

मैंने निरीक्षण किया तो घर व्यवस्थित लगा था। तब डोरबेल बज उठी थी, खोला तो दरवाजे पर कुक था। शायद उसे, सुशांत ने मेरे बारे में बता दिया था। वह अभिवादन करके किचन में जाकर काम करने लगा था। फिर से दरवाजे पर कोई आया जानकर जब मैंने दरवाजा खोला तो इस बार एक साफ सुथरी, अधेड़ महिला मीरा थी। घर की साफ़ सफाई, बर्तन इनके जिम्मे था। महिला होने से ये, कुक जितनी शांत नहीं थी। मीरा, मुझसे कुछ कुछ कहते, पूछते हुए काम कर रही थी। मैं उसकी जिज्ञासा पर उत्तर देते रही थी। कुक काम करने के बाद, टिफिन लेकर जाते हुए बता गया कि वह, सुशांत के लिए टिफिन, ऑफिस गॉर्ड को देता जाएगा। उसने यह भी बताया कि आज वह, देर से आया है अन्यथा वह जल्दी आता है और सुशांत स्वयं अपना टिफिन ले जाते हैं।

ऐसे आने के बाद के दो घंटे में, मैंने यहाँ की सब व्यवस्था समझ ली थी। अब मेरे पास समय था। मैं वर्क फ्रॉम होम, माध्यम से अपनी ऑफिस की जिम्मेदारी निभाने लगी थी। संध्या के समय सुशांत आ गए थे। फिर रात्रि से अगली सुबह तक का पूरा समय नितांत हमारा था। 

अगले दिन से हमारी यही दिनचर्या बन गई थी। हम लव बर्ड्स की तरह अपने बसेरे में प्रेम से रह रहे थे। 

ओवुलेशन के लिए पिछले दो मासिक चक्र के अपने प्रयोग एवं अध्ययन से मुझे अंबाला आने के पाँचवे दिन ओवुलेशन संभावित लगा था। उस दिन से अगले पाँच दिन मैं, पतिदेव से कुछ कहे बिना, विशेष रूप से सजग-सावधान रही थी। 

ये दिन मेरे चाहे अनुसार बीतने के बाद मेरी जिज्ञासा, बच्चों को लेकर सुशांत उपयुक्त समय क्या मानते हैं, यह जानने की हुई थी। मैंने उस रात इनसे, इस विषय की चर्चा छेड़ते हुए पूछा - जी, क्या, अब हमें अपनी सयुंक्त अनुकृति संसार में लाने की सोचना नहीं चाहिए?

सुशांत ने ‘अनुकृति’ प्रयुक्त शब्द से हमारे बच्चे वाला, मेरा आशय समझ लिया था। वे हँसते हुए बोले - 

निकी, इसमें सोचने वाली कोई बात कहाँ है। हम जब भी मिलकर साथ रहे हैं, हमने कोई साधन प्रयोग किया ही नहीं है। इससे स्वतः स्पष्ट है कि हम दोनों में परस्पर सहमति रही है। सहज ही हमारी अनुकृति का जन्म, जब ईश्वर चाहे हम तैयार हैं। 

मैं लजा गई थी। मुझे समझ आ गया था, मेरे पतिदेव भोले नहीं हैं। चूंकि मैंने कभी (साधन प्रयोग की) अन्यथा कोई बात नहीं कही थी। अतएव इन्होंने भाँप लिया था कि मैं, हमारी संतति शीघ्र संसार में लाने की इच्छुक थी।

मैंने फिर कुछ नहीं कहा था। अपना चोर भाव, पकड़े जाने की शर्मिंदगी छुपाने के लिए मैंने, अपना चेहरा इनके सीने से सटा दिया था। सुशांत, कभी हास्य के लिए किसी कमजोरी का लक्ष्य नहीं करते हैं। तब भी विनोदी स्वभाव अनुरूप उन्होंने मुझे छेड़ते हुए कहा था - 

अब और नहीं बाबा! मुझे कल ऑफिस ड्यूटी के लिए भी तो अपनी शक्ति बचाए रखनी है। 

मैंने लजाते हुए कहा - कुछ भी! मैंने ‘और के लिए’ कब कहा है। 

सुशांत ने कहा - निकी, क्या मुख से निकली वाणी ही कुछ कह सकती है? तुम्हारा स्पर्श भी तो मुझसे कुछ कुछ कहता लगता है। 

मैंने कहा - फिर तो आप इस स्पर्श के भाव समझने में भूल कर गए हैं, पतिदेव जी!

इन्होंने तब प्यार से कहा - हो सकता है। मैं, इस शारीरिक हाव-भाव की भाषा (body language) का विशेषज्ञ नहीं हूँ। 

फिर हम सोने की चेष्टा करने लगे थे। सुशांत यह नहीं जानते थे कि उनसे गोपनीय रखते हुए मैंने अपना मंतव्य सिद्ध कर लिया था। जिसकी सफलता-असफलता का परिणाम लगभग पच्चीस दिनों में पता होने वाला था। यह सुखद बात थी कि तब तक मुझे, इनके साथ रहने का अवसर मिलने वाला था। 

ड्यूटी, सुशांत की और वर्क फ्रॉम होम से मेरी भी, चलती जा रही थी। सुखद दिन व्यतीत हो रहे थे। फिर जब समय पर, मेरे पीरिएड्स नहीं आया, तब मुझे आशा बँध गई कि अब शायद मुझे अपने मंतव्य में सफलता मिल गई है। उचित प्रतीत हो रहे दिन, मैंने सुशांत से कहा - जी सुनिए, ड्यूटी से लौटते हुए आप, प्रेगनेंसी टेस्ट किट लेते आइएगा। 

इन्होंने मुझे अपने आलिंगन में लिया और कहा - लगता है आपकी खुशी के माध्यम से मुझे खुशी मिलने वाली है। 

मैंने ओंठों पर प्यार भरी मुस्कान बिखेर कर, मौन उत्तर दिया था। तब ये ऑफिस चले गए थे। 

रात्रि, मैं सोने के ठीक पहले सोच रही थी कि प्रातःकाल बिना इन्हें डिस्टर्ब किए चुपचाप टेस्ट करूंगी। ताकि यदि टेस्ट नेगेटिव रहा तो मेरे मुख पर तुरंत संभावित उदासी और मेरी व्यथा के भाव, ये देख न पाएं। 

अगली सुबह, इस तय बात से विपरीत बात हुई थी। ये नितदिन से उलट, मुझसे पहले जाग गए थे। जब मैं वॉशरूम जाने को उठी तो ये भी मेरे साथ उठ गए। इन्होंने कहा - निकी, डोर खुला रहने दो। 

मैं ऐसा नहीं चाहती थी, मगर इनके कहने का विरोध मुझे कभी उचित नहीं लगता था। दो मिनट पीछे ये वॉशरूम में आए थे। तब तक लिया गया सैंपल, कार्ड पर मैं अप्लाई कर चुकी थी। इन्होंने मुझे अपने पास खींच कर मेरे कन्धों पर अपनी बाँह रख दी थी। मुझे इनके साथ होने से टेस्ट नेगटिव का भय भी लग रहा था मगर इनका साथ भा भी रहा था। हम दोनों निरंतर कार्ड पर टकटकी लगा कर देख रहे थे। तब कार्ड पर कंट्रोल एवं टेस्ट वाली दोनों लाइन उभर आईं थीं। अर्थात मेरी प्रेगनेंसी, पॉजिटिव आई थी। 

मैंने अपनी प्रसन्नता इनसे छुपाने के लिए, अपना चेहरा इनके सीने में छुपा लिया था। इन्होंने समझा कि मैं लजा रही हूँ। अपनी विनोदप्रियता अनुरूप इन्होंने मेरा मजा लेते हुए कहा - निकी, बात इस हद तक पहुँचने के बाद भी मुझसे लजा रही हो। क्या जीवन भर यूँ ही लजाती रहोगी, मुझसे!

मैंने अपना मुखड़ा उनके सीने पर रखे हुए ही बहाना करते हुए कहा - नहीं जी, अभी हमने दाँत ब्रश नहीं किए हैं। इसलिए मैं, आपसे छुप रही हूँ।

तब इन्होंने मेरे ऊपरी हिस्से पर दबाव बढ़ा कर, मुझे अपने सीने से भींचा फिर कहा - तो निकी आप, मेरी बधाई ऐसे लीजिए। 

मैंने भी उनकी नकल में ऐसा ही किया और कहा - जी आपको भी बधाई। 

मुझे इनकी खुशी का अनुमान तो नहीं था, मगर अपने नित्य कर्म करते हुए मैं अत्यधिक आनंदित थी। 

उसी दिन से, हमारे अंश से मेरे गर्भ में आया जीव भी, हमारी चर्चा में प्रमुख एवं प्रिय विषय हो गया था। 

उस रात्रि मैंने कहा - हमारी, कुलज्योति अब मेरे गर्भ में है। 

इन्होंने कहा - निकी, इतने विश्वास से कैसे कह रही हो, कुलदीपक भी तो हो सकता है। (फिर मुझे छेड़ने के लिए) ऐसा भी तो हो सकता है कुलज्योति और कुलदीपक दोनों एक साथ हों।

मैंने यह तो सोचा ही नहीं था। इनके कहने से जब मुझे यह कल्पना हुई तो मेरे हर्ष की सीमा नहीं रही। तब भी प्रत्यक्ष में, मैंने दिखावटी शिकायत के स्वर में इनसे कहा - 

चलो जी, आपको ऐसा कहते हुए मुझ पर दया नहीं आती! मैं कश्मीर की नाजुक सी कली, कैसे इतना सह पाऊँगी। 

सुशांत ने मुख पर समर्पण भाव लाते हुए कहा - निकी, चलो ठीक है, अपनी बात क्षमा सहित मैं वापस ले लेता हूँ। मगर मुझे यह तो बताओ कि आपने, गर्भ में अपनी कुलज्योति होने की घोषणा कैसे की है?

मैंने तब राज खोलते हुए इन्हें बताया - जिस सुबह मुझे अंबाला के लिए रवाना होना था, उसके दो रात पहले मुझे एक स्वप्न आया था। जिसमें मैंने देखा कि हमारी प्यारी छोटी सी एक बेटी है। वह आपको अपनी बाल सुलभ मधुर वाणी में कह रही है - 

‘मेरे पापा’ ….           



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