Rajeshwar Mandal

Abstract

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Rajeshwar Mandal

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शुभ दीपावली

शुभ दीपावली

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बचपन का दिवाली गांव में बीता। 

नया कपड़ा नहीं खरीदते थे। पुरनके कपड़ा को ५५५ ब्रांड के साबुन से पोखरा के चबूतरा पर घस घस कर एकदम से झकाश कर देते थे। 

आइरन का देशी जुगाड़ था, समतल पेंदी वाला लोटा। लोटा के अंदर आग भरकर मोचरायल कपड़ा को सीधा कर लेते थे।

उस जमाने में पटाखे का न तो एतना भेराईटी था और न ही प्रचलन। 

टीकली पटाखा मिलता था। दस पैसा में एक रील। बंदूक में रखकर फोड़ने वाला। 

नागिन और मुर्गा छाप का पटाखा बढ़िया होता था। बाकी फुसफुसीया।

हम बच्चों के लिए बंदूक महंगा होता था सो फिर देशी जुगाड़ लगाते थे। 

नट वोल्ट खोजकर लाते। नट बोल्ट के बीच में टीकली पटाखा कस देते थे और जोर से जमीन पर पटख देते थे। धराम से आवाज

दिवाली मुख्य रूप से प्रकाश पर्व है सो ऐसे सामग्री का जुगाड़ पंद्रह दिन पहले से हम बच्चे करने लगते थे। 

बांस के सुखे कपोलों को एक पतली छड़ी में बरीकी से पीरो पीरो कर लाइट कैंडल बनाते थे। और आग लगाकर हाथ से चारों ओर घुमाया करते थे।

सबसे ज्यादा प्रचलन कपड़ा गेंद का था। रद्दी कपड़े का गेंद बनाया जाता था। फिर उसे तार से बांध कर किरासन तेल में एक दूई घंटा डुबोकर रख देते थे। फिर उसमें आग लगाकर चारों तरफ घुमाते घुमाते गांव से खेत तक चले जाते थे।

 एक बात जो काॅमन थी ये यह कि हरेक दिवाली में एक-दो बच्चे का बारुद से हाथ पैर झुलसना तय रहता था। और उसपर से दादाजी का डांट अलग से।

आज बस इतना ही

शुभ दीपावली 


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