रुनझुन
रुनझुन
रुनझुन और किसन का हाल ही में गौना (शादी ) हुआ है। निम्न आयवर्गीय परिवार है। खेती और मजदूरी से घर परिवार चलता है। दो महीने से किसन काम पर नहीं गया है। सो बचा खुच्चा जमा पूंजी सब खरच हो गया।
परदेश कमाने जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचा है।
इतने दिन माय बाप तो चुप थे। अब भी चुप ही है, मगर इशारे इशारे में संकेत दे ही देते हैं बेटा अब कुछ उपाय करना होगा। हमलोगों से इस उमर मे कमाई धमाई होने से रहा।
किसन शाम को रोज बाजार जाता है साग सब्जी लाने। आते वक्त अर्द्धांगिनी के लिए कभी रसगुल्ला तो कभी चाट पकौड़ी लाना नहीं भुलते। गांव घर की नवविवाहिता रसगुल्ला सिंघारा से ही खुश हो जाती है। पिज्जा बर्गर, नान तंदूरी रोटी न तो वह जानती है और न ही पसंद है। सो किसन के प्रति रुनझुन का इतने ही दिनों में अगाढ़ प्रेम हो गया है। रुनझुन के लिए किसन के बिना एक पल भी जीना मुश्किल हो गया है।
परदेश नाम की कल्पना मात्र से रुनझुन का बदन सिहर उठता है। मन असमंजस में है। दबे जुबान कई बार रुनझुन साथ ही परदेश जाने की बात कह चुकी है। किसन की भी हार्दिक इच्छा है। पर किसन की मौन संकेत दे रही है यह संभव नहीं है। एक तरफ निम्न आय तो दुसरी ओर माय बाप की सेवा सत्कार की चिंता।
कल गांव में एक शादी है। भोज भंडारा होगा रात में। परदेश में रहने के कारण बहुत दिनों से गांव के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सका है। मन करता है एक दिन और रूक जाएं इसी बहाने। मगर शाम में ट्रेन का रिजर्वेशन टिकट भी है। नहीं गये तो सब पैसा बर्बाद हो जाएगा। रुनझुन तो खुश हो जाएगी पर माय बाप अलग ही बात सोचेंगे।
महाअसमंजह। दिमाग काम नहीं कर रहा है। रुनझुन अलग रात से ही उदास बैठी पड़ी है। कहना बहुत कुछ चाहती है पर कह नहीं पा रही है। रोते रोते आंखें सूज चुकी है। किसन बार-बार बिन पूछे समझाने की कोशिश कर रहा है की अगली होली में आऊंगा तो फिर कभी नहीं जाउंगा। कुछ पैसे जमा हो जाए तो यहीं छोटा मोटा दुकान कर लूंगा गांव में ही गुजर बसर हो जाएगा।
रुनझुन रो भी रही है और किसन का बैग भी समेट रही है। घर से निकलने का समय हो चुका है। प्रणाम कर गले से लिपट कर फूट फूट कर रो पड़ती है।
किसन बैग कंधे में टांग कुलदेवता को प्रणाम कर घर से निकल जाता है। आंगन की डेहरी से रुनझुन किसन को तबतक निहार रही है जबतक की नजरों से ओझल नहीं हो जाती।
रुनझुन की सजल नयना और सुबकती होठ मौन है। पर ऐसा लगता है कि वह कह रही है:-
अपने त जाइछी प्रभु देश रे विदेशवा
से देश रे विदेशवा...
हमरा के कहां छोड़ले जाइछी ए गवनवा -2
और रुनझुन की कंपकंपाती होंठ से निकला एक अनुत्तरित प्रश्न सरकार से ?
आजादी के बाद कई सरकारें आईं गई। पर्याप्त संसाधन और मजदूरों का थोक उत्पादक बिहार झारखंड में आखिर आज तक बड़े उद्योग की स्थापना क्यों नहीं हो सकी ? १९७०--८० के दशक में जो भी नाममात्र का उद्योग था पेपर मिल और चीनी मिल समय के साथ वह भी विलुप्त हो चुका है। फिर इलेक्शन होगा। पांच किलो फ्री अनाज का प्रलोभन दिया जाएगा पर उद्योग धंधे पर भूल से भी चर्चा नहीं होगी।