दुकान में चांद
दुकान में चांद
"क्या आलतू फालतू लिखते रहते हो।" फोन रिसीव करते ही अधिकार के साथ झल्ला कर बोल पड़ी थी।
"आलतू फालतू । मतलब समझे नहीं ? इधर तो कुछ ऐसा वैसा नहीं लिखे हैं", प्रत्युत्तर में मैंने कहा ।
"तो ये कौन लिखा:-
"इस दुकान से उस दुकान
ढुंढने जमीन पर चांद
न रुह में चैन रातें बेचैन
है ये दीवानापन या है पागलपन "
"इसमें गलत क्या लिखा है।" मैंने पुनः पुछा।
"सवाल सही गलत का नहीं है। सवाल मर्यादा का है। एक समय था जब आपकी चांद मैं थी। परिस्थिति बदली अब जो भी जैसा भी है वह चांद है आपकी अर्द्धांगिनी। अब जो भी लिखते पढ़ते हैं उसमें कुछ सकारात्मक भाव होना चाहिए। अब न तो आपकी वैसी उम्र है और न आपके लेखनी को सुशोभित करता है। लिखिए खुब लिखिए लेकिन जो भी लिखिए उसमें उच्छृंखलता नहीं होना चाहिए। दुकान में चांद कबसे मिलने लगा बताइये जरा। मतलब जो मन में आयेगा वो लिख दीजिएगा।"
"ठ
ीक है मोहतरमा आप ही फ़रमाइये क्या लिखें जो आपको अच्छा लगे।"
"फिर वही बात। बोले न सवाल अच्छा खराब का नहीं है। सवाल आपके लेखनी के गरिमा और वजन का है साहेब।"
"हूं ऽऽ मतलब ये बात है। चलो इसे मिटाकर लिखते हैं:-
"मन से उतरने लगा है मन में बसने वाले
और भी बहुत कुछ है जिंदगी में गुलाब के अलावे"
अब ठीक हुआ मैडमजी।" मैंने मजाकिया लहजे में पूछा।
मोहतरमा फिर नाराज़ । एक गहरी सन्नाटा...............
फोन रखते हुए रुंधे आवाज में सिर्फ इतना कह पायी
"जानते थे हम ये बात । आपके दिलों दिमाग में मेरा कोई जगह न कभी था न है और न कभी रहेगा।
छोड़िए ! जो हुआ भगवान अच्छा किया। कहते थे आजीवन याद रखुंगा तेरी मेरी कहानी और आज लिखते हैं, मन से उतरने लगा है मन में बसने वाले । थैंक यू बाय......गुड नाईट ।"