Rajeshwar Mandal

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कचहरी

कचहरी

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तकरीबन बीस बरसों से कचहरी में काम कर रहा हूं।इस बीच कईयों पक्षकारों से नजदिकियां बढ़ी जो आज भी कहीं मिलते हैं तो हाल चाल पूछ ही लिया करते हैं।उनमें से कइयों ऐसे भी हैं जिनका मुकदमा बरसों पुर्व खतम हो गया है। परंतु आये दिन कचहरी में उनका दर्शन हो जाया करता है।

जिज्ञासा बस जब उनसे पुछते है कि फिर कोई मामला हो गया है क्या ?

पहले तो दांत चीयार कर हिहीयाते हैं फिर कहते हैं भगवान न करे दुश्मन को भी कचहरी का दिन दिखावे।फिर अगले ही पल कहते हैं बाजार आए थे कुछ मार्केटिंग के लिए तो सोचे जब एतना दूर से अईबे किये ही है तो कचहरीयो घूम लेते हैं।


फिर अगले दिन कोई दुसरे भूतपूर्व पक्षकार से भी मुलाकात होती है।उन्हें भी जिज्ञासा बस पुछते है कि फिर कोई मामला हो गया क्या

वो भी पहले हिहीयाते है फिर कहते हैं। नहीं नहीं सर, ये मेरे बगल वाले बिनेसर चचा है। उनका कुछ मसला है। हमहीं बोले चलो हम चलते हैं। हमारे जानपहचान के बहुत सारे लोग हैं काम करबा देंगे। इसलिए साथ आये है। जितने मुलाकातें उतने ही अलग अलग बहाने।


सुकुन की बात यह है कि जान पहचान वाले पेशकार साहब, अर्दली, मुंशी और वकील साहब जो भी मिलते हैं बिना चाय पुड़िया खिलाये पिलाये नहीं जाने देते ।उसके बाद वकालतखाना प्रांगण में कभी मदारी वाला कभी ताबीज वाला तो कभी रेडिमेड चश्मा बेचने वाले के पास टाइम पास करते हैं और अंत में पांच दस रुपए का मुढ़ी घुघनी खाते खाते फिर घर।निष्कर्ष यह कि कचहरी जहां एक ओर दुखियारियों का होम्योपैथिक दवा है वहीं दुसरी ओर एक नशा भी जो गाहे वगाहे एक बार किसी को लगा तो फिर परमानेंट हो गया।


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