शिवजी का आशीर्वाद.
शिवजी का आशीर्वाद.
करीब –करीब पंदहवीं सदी के अंतिम दशक में, एक टोली अपने सरदार के साथ, भ्रमण करते –करते, विदर्भ क्षेत्र के यवतमाल जिल्हे के उस स्थान पर पहुँच गयें थे। जहाँ वर्धा और बेभला नदी का संगम होता हैं। यहाँ ये दोनों नदियां, आपस मेँ मिलकर एक जान बनती हैं। इसके आगे, इन दो नदियों को सिर्फ वर्धा नदी के नाम से जाना जाता हैं। यहाँ ये दोनों नदियां कॉफी गहरी पाई जाती हैं। वर्धा नदी के द्रोणी में, दूर –दूर तक, गहरे पानी के कुंड हैं. जो कभी भी सुकते नहीं। यह स्थान पानी और खेती के लिहाज से कॉफी उपयुक्त उस समय समझा जाता था। आज के दौर मेँ उसकी अहमियत, कुछ ज्यादाही कम हो चुकी हैं॥ उस टोली ने, वहाँ अपने पैर जमाना शुरू किए थे। धीरे –धीरे, वह टोली वहाँ जम चुकी थी। वहाँ उन्होने अपनी खेती-बाड़ी करना शुरू कर दिया था। टोली के सदस्योंने धीरे –धीरे अपने पैर फैलाना शुरू किया था। धीरे –धीरे टोली का विस्तार होते गया। और उस टोली के सदस्य आजू –बाजू के गाँव मेँ बसाना शुरू हो गए थे। लेकिन उनका सरदार उसी गाँव मेँ रहता था।
उसका बड़ा सा बाड़ा, जो कॉफी ऊंचाई पर बना था। वह आस –पास के गाँवों से, उसकी चोटी दिखाई पड़ती थी। अगर उस टोली के सदस्यों के लिए, कोई खबर या संदेशा होता था। तो उस प्रकार का निषाण, उस चोटी पर लगा दिया जाता था। तभी सभी सदस्य उस संकेत को देखकर, हवेली मेँ जमा हो जाते थे। उस सरदार के परिवार का भी विस्तार हो रहा था। वे खेती –बाड़ी के साथ साहूकारी भी किया कराते थे। इसलिए वे बहूँत जल्दी कॉफी धनवान बन चुके थे। उनके पास सेकड़ों एकर जमीन थी। सरदार का वंश कई शाखाओं मेँ बट चुका था। लेकिन सरदार के वंश की प्रमुख शाखा और उसकी संताति अपनी धरोवर बराबर संभालकर चल रहे थे। संतति की पकड़ कॉफी मजबूत थी।
उस गांव मेँ,जहाँ दोनों नदियों का मिलन होता था। वह भूभाग कॉफी ऊंचा था। उसे के चोटी के ऊपर, एक हेमाड पंथी भगवान शिव का मंदीर बना था। महाराष्ट्र मेँ हेमाड पंथी मंदीर, जो काले चौड़े पत्थर की पटियां और चुने का उपयोग करके बनाएँ जाते थे। उनका निर्माण लगभग बारहवीं सदी से आरंभ हुआ था। उस मंदीर के परिसर मेँ कई साधु –संतों की समाधीयां भी मौजूद थी। शायद उस समय, वह एक साधना का केंद्र रहा हो !। जहाँ तपस्वी अपनी साधना करते होंगे !। उस मंदीर मेँ शिवलिंग की इतनी बड़ी पिंड हैं की उस में कम –ज्याद एक किंवटल के करीब ज्वार आ सकती हैं। टोली के सभी सदस्य भगवान शिव के उपासक थे। वह शिवाजी का जन्मदिन, बड़े उत्साह के साथ मनाते थे। लेकिन उस टोली मेँ कॉफी पैसे वाले परिवार भी थे। वे सभी भगवान शिव का जन्म दिन मनाना चाहते थे। इसलिए सभी इच्छूक परिवारों की सूची शायद बनाई गई होगी !। इसलिए वहाँ शिव जयंती का पर्व, सात दिन पहिले से ही मनाना शुरू हो जाता था। सभी परिवार अपने आवंटित दिन पर, आस –पास के देहातों के लिए सामूहिक भोजन का कार्यक्रम कराते थे। इस तरह वहाँ लग-भाग शिव जयंती का जलसा बड़े पैमाने पर मनायां था। उस टोली के सरदार के मुख्य वंशज का दिन, शिव जयंती के तीन दिन पहिले पड़ता था। वह परिवार भी अन्य परिवारों की तरहा अपना दिन बड़े उत्साह के साथ कई पीडीयों मना रहा था।
समय के साथ हर समाज, परिवार हिचकोले खाते रहता हैं। कुछ परिवार समय के साथ पिछ्ड रहे थे। उनकी आर्थीक हालत डोलने लगी थी। कुछ अच्छे अवसरों के तलाश मेँ अपने पूर्वजों का आशीयाना छोड़कर, नयें घोसले के खोज मेँ पलायन कर चुके थे। इस कारण कुछ परिवार। सिमित संसाधोंनो के अभाव मेँ, अपना दिन सिमित मात्रा मेँ मनाने लगे थे। कुछ परिवारों ने मनाना छोड दिया था। लेकिन मुखियां के वंशज, उसे उसी उत्साह से अपने दिन को मनाते चले आयें थे। मुखियां के परिववर मेँ तीन लड़के और एक बहन थी। उसका बड़ा लड़का अन्य भाईयों से कॉफी तेज था। उसने परिवार को कॉफी बुलंदी तक पहुंचायां था। वह अपने पूर्वोजों के धरोवर को अच्छी तरह संभाल रहा था। लेकिन नियतिकों शायद उस परिवार का इंतिहान लेना था। विश्र्व भर में, पैर फैलानीवाली, स्पेनिश फ्लू महामारीने उस गाँव में भी दस्तक दी थी। उस बीमारीने, उस परिवार के मुखियाँ को जखड़ लिया था।
और वह उस बीमारी का शिकार हूँआ था। परिवार पर मानो आसमान टूट पड़ा था। उसे दो लड़के और एक लड़की थी। अब कारोबार संभाल ने की ज़िम्मेदारी, उसके दोनों भाईयों पर आ पड़ी थी। महामारी से समूचा देश बदहाली में पहुंच चुका था। सभी समस्यायें एक साथ खड़ी हो गई थी। इन परिस्थितियों का, वो दोनों भाई समाधान नहीं कर सके थे। परिवार चलाने और खेती बाड़ी में होनेवाले नुकसान का सामना, उन्होने अपनी संपत्ती को गिरवी रखकर करना शुरू किया था। नतीजा उनके ऊपर कॉफी कर्जा चढ़ चुका था। किसी जमाने में सावकारी करनेवाले, तब कर्ज में गले तक डूब चुके थे। जब उनके भतीजे बड़े हूँये थे। तब संपत्ती का बटवाँरा किया गया था। लेकिन उन्हे, वह संपत्ती दी गई थी। जीस पर कर्जा था। इस बातका भंडा-फोड़ तब हुआ था,जब सावकार अपना कर्जा वसूलने आयें थे। लेकिन वह परिवार तब लाचार था। उन्होने सभी सगे-साबंधीयों से मदत की गुहार लगाई थी। लेकिन, उन्हे हर तरफ से निराशा मिली थी। चाँदी का चमच मुंह में लेकर पैदा हूँ थे,लेकिन वो दोनों भाई अर्श से फर्श पर आ चुके थे। ऐसे कठिन परिस्थितीयों में भी छोटे लड़के ने अपनी शालान्त परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
उनके मायूसी के दिन अचानक खत्म हूँ थे, जब उनके एक चाचा, जिन्हे कोई संतान नहीं थी। उसका और उसके पत्नी का किसी बीमारी से स्वर्गगमन हूँआ था। वारसा कानून के तहत, उन्हे उनकी करीब सत्तर एकर जमीन मिली थी। परिवार के सभी सदस्यों की शादीयां हो चुकी थी। वह परिवार इतने मुसीबतों के बावजूद, शिव जयंती अपने दिन पर उसी उत्साह और शान के साथ अखंड मनाता चला आया था। देश आझादी की लढाई लढ रहा था। आनेवाले समय में, उसे आझादी मिलना तय था।
उस परिवार का छोटा लड़का खेती में विशेष पारंगत नहीं था। वह अकसर नुकसान झेलता था। उसने मन बना लिया कि परिवार के उत्थान के लिए, उसे शहर में जाकर बसाना चाहिए और नौकरी करके परिवार का वह सही परवरीश कर सकता हैं। उस में उसे सफलता भी मिली थी। उसके बच्चे पढ़ –लिखकर अच्छी जिंदगी जीने लगे थे। उसके बड़े भाई ने भी छोटे के नकशे कदम पर चलकर, अपने बच्चों को दूसरे शहर में पढ़ने रखा था। वह खुदकी और छोटे भाई की जमीन देखा करता था। जरूरत पड़ने पर, या अच्छी फसल होने पर, वह कुछ आर्थीक मदत भी किया कराता था। उसके परिवार के बच्चे भी पढे थे। दोनों भाईयों ने कभी भी पूर्वजों के चले आयें प्रथा को खंडित नहीं होने दिया था।
उसी मुख्य धारा के एक वंशज निसंतान था। उसे कॉफी बुरी आदते लगा चुकी थी। लेकिन अंतिम क्षणों में, उसे सदबुध्दी मिली, और उसने मरने के पहिले अपनी संपाती शिवजयंती को मनाने के लिए मंदिर को दान दी थी। परिवार के कुछ निकट के रिश्तेदार, नदी के दूसरे छोर में बसे थे। उस वंशज की जमीन उनके एक निकट के रिश्तेदार को संभालने के लिए दी थी।और उससे होनेवाले आमदाणी से शिवजयंती मनाने का दायीत्व उस परिवार को दिया गया था। लेकिन जब देश में किमान कृषि कानून लागू हुआ था। तब उसने मंदीर की कुछ जमीन को सरकार को दे दी थी। ताकी उसके संपत्ती यथावत रहे !। जब इस बात का संज्ञान मुख्य परिवार ने लिया था। तब बची हूँई जमीन को,एक ट्रस्ट बनाकर सुरक्षित किया गया था। उस ट्रस्ट को होनेवाली आमदानी से, हर साल शिव जयंती को, वहाँ यात्रा का आयोजन होता हैं। और उस में महाप्रसाद का वितरण भक्तों को किया जाता हैं।
मुख्य धारा के कुछ वंशज, अभी भी वहाँ कायम या अस्थाई त्यौर पर रहते हैं। वे सभी मिला जुलकर, अपने सुविधा के हिसाब से, अपना योगदान देकर, उनका शिव जयंती का दिन उसी उत्साह से हर साल मनाते आ रहे हैं। उस में सबसे बड़ा योगदान गाँव में बसे वंशज का होता हैं, जो इस कार्यक्रम को सफल बनाने में अपनी क्षमता और अर्थ का सक्रिय योगदान करता हैं। वह गाँव और आस -पड़ोस के गाँववालो को गाँव भोजन कराता हैं। अभी मुख्य गाँव, अपने स्थान से बाढ़ के कारण उठकर दूसरे स्थान पर बसायां गया हैं। अभी उस स्थान पर जाने के लिए नांव की व्यवस्था करनी पड़ती हैं। फिर भी गाँव वाले, उस वंश के वंशज साथ, बड़े धूम-धाम से अपनी शिवजयंती मनते हैं। कुछ परिवार के सदस्य सीमित मात्रा में, अपना शिव जयंती का पर्व,अपने दिन पर मनाते आ रहे हैं। कुछ परिवारोंने अपने पूर्वजो के प्रथा को तोड़ दिया हैं।
यह बात दु:ख के कहना पड़ता हैं कि जिस परिवारने मंदीर को दान कि गई जमीन का दूर उपयोग किया था। उस परिवार का, कोई न कोई सदस्य निश्चित अंतराल के बाद,शिव जयंती के आस –पास कर्क रोग से मर जाता हैं। यह बडा दूर्भाग्य उस परिवार का हैं। लेकिन मुखी परिवार के बच्चे, अच्छी पढ़ाई कर के, डॉक्टर, इंजिनीयर, अधिकारी बनाकर, देश-विदेश में अपनी काबिलीयत दिखाकर अमन-चैन और सुकून की जिंदगी जी रहे हैं। शायद उन पर भगवान शिव की ही कृपा समझना सही होगा !। उस वंश के वंशज, वह प्रथा कब तक आगे जारी रखेंगे, यह तो समय ही तय करेगां या शिव जी ही बता पाएगें !