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S N Sharma

Abstract Classics Inspirational

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S N Sharma

Abstract Classics Inspirational

शिक्षक

शिक्षक

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आसमान में सूरज अपनी पूरी प्रखरता से चमक रहा था।

हांफती गौरैया अपनी चोंच खोलें यूकेलिप्टस की टहनी पर बैठी हुई शायद पीने के पानी के बारे में सोच रही थी।

ऐसी गर्मी में भी हरे पत्तों से भरे, लाल फूलों से लदे गुलमोहर के पेड़ के नीचे गन्ने के रस का ठेला लगाए रामदेव ग्राहकों का इंतजार कर रहा था।

तभी तभी कक्षा 12 की बोर्ड की परीक्षा के केमिस्ट्री का पेपर देकर अजय अपने मित्र जगन के साथ वहां से निकला ।दोनों हमेशा की तरह गन्ने के ठेले के पास जा पहुंचे और जूस का गिलास लेकर आपस में बातें करने लगे।

"तुम्हारा पेपर कैसा रहा" जगन ने पूछा।

"पेपर तो बहुत अच्छा आया था। लगभग सभी वही क्वेश्चन थे जो पापा ने सभी बच्चों के साथ मुझे भी समझाएं थे।"अजय ने मायूसी से कहा।

"तब तो भाई तुम्हारी बहुत अच्छी पोजीशन बनेगी अपनी क्लास में! "खुश होते हुए जगन ने कहा।

"क्या खाक पोजीशन बनेगी यार !मेरे पापा जी क्लास में और घर पर कोचिंग में लगभग सभी को इतने अच्छे ढंग से समझा देते हैं, कि सभी बच्चों के नंबर लगभग मेरे ही बराबर आएंगे। काश पापा केवल मुझे ही केमिस्ट्री समझा रहे होते, तो मैं निश्चित तौर पर सबसे आगे होता। "

"तो यार! तेरे पापा जो कोचिंग करते हैं तो उन्हें बहुत पैसा मिलता होगा। "

अरे कहां यार!! मुश्किल से एक दो लोग हैं!! जो ट्यूशन के पैसे देते हैं। बाकी सब को तो पापा बस मुफ्त में ही पढ़ा देते हैं ।काश।।। पापा सभी लोगों से पैसे ही ले लेते तो घर में कम से कम खुशहाली तो रहती। तुम तो जानते ही हो एक प्राइवेट स्कूल के टीचर्स की तनख्वाह होती ही कितनी है ।पर पापा तो हम लोगों की बात सुनते ही नहीं है।

सबको घर में भी फ्री में ही पढा देते हैं।" उदास मन से अजय ने कहा।

घर पहुंच कर अजय के पापा ने अजय से पूछा !

"बेटा पेपर कैसा रहा? मुझे पूरा विश्वास है कि तुम बहुत अच्छा करके आए होंगे। "

"पापा पेपर तो बहुत अच्छा गया !!पर अकेले मेरा थोड़ी ही अच्छे से गया होगा। आपने तो 12th के सभी बच्चों के लिए बहुत ही अच्छा पढ़ाया है। मेरी तो पूरी क्लास के ही बच्चों के केमिस्ट्री में बहुत अच्छे नंबर आने हैं। पर मेरी, इतने नंबर लाकर भी कोई रैंक नहीं बनेगी क्योंकि इतने नंबर तो सभी बच्चे लायेंगे।"

नरेंद्र जी अपने बेटे की पीठ थपथपाकर मुस्कुराते हुए अपने कमरे में चले गए।

कुर्सी पर बैठकर नरेंद्र जी अपने बचपन के दिनों में खो गए।

उनके पिताजी का स्वर्गवास तभी हो गया था जब वह कक्षा 4 में पढ़ते थे। घर में थोड़ी सी जमीन थी ।मां इस जमीन में मेहनत किया करती थी।और जो सब्जियां उगती थी। उन्हें गांव में बेच दिया करती थी। उसी से जो थोड़ा बहुत पैसा मिलता था, वह अपने इकलौते बेटे नरेंद्र के लिए स्कूल में पढ़ाने में खर्च करती रहती थी।

घर में एक सिलाई की मशीन भी थी। रात को देर तक मम्मी गांव के लोगों के कपड़े सिला करती थी। उससे जो पैसा मिल जाता था उससे ही किसी तरीके से खाने का काम चला करता था।

गरीबी के कारण नरेंद्र जी किसी भी विषय की ट्यूशन नहीं ले पाते थे ।कक्षा में ही जो टीचर समझा दिया करते थे, उसी के भरोसे वह पढ़ कर आगे बढ़ते रहे। जब वह कक्षा 10 में पहुंचे ,तो उन्हें मैथ्स और केमिस्ट्री बिल्कुल भी समझ में नहीं आती थी। इसका कारण यह था की यह दोनों शिक्षक अपने विषय को कक्षा में ढंग से पढ़ते ही नहीं थे ।इसके बाद बच्चे उनके घर पर ट्यूशन पढ़ाने जाते थे ,उन्हीं बच्चों को वह ठीक से पढ़ाते थे और उन्ही बच्चों के क्लास में सबसे अच्छे नंबर आते थे।उन्होंने मैथ्स और केमिस्ट्री के शिक्षकों से बहुत मिन्नतें की, कि वह या तो स्कूल में ही उन्हें विषय समझा दें या फिर उन्हें घर पर ट्यूशन करने के लिए आने दें। पर उनके पास ट्यूशन को देने के लिए पैसे नहीं थे ।इसलिए टीचर ने उन्हें घर पर नहीं आने दिया और क्लास में पढ़ाया नहीं।

परेशान होकर उन्होंने स्वयं ही दोनों विषय को ध्यान से पढ़ना शुरू किया। धीरे-धीरे उन्हें यह दोनों विषय समझ में आने लगे ।कक्षा 11 तक आते-आते उन्होंने अत्यधिक परिश्रम के बल पर मैथ्स और केमिस्ट्री में महारत हासिल कर ली। जब उन्होंने कक्षा 12 बोर्ड की परीक्षा दी तब उनके इस विषय में बहुत अच्छे नंबर आए।

इसके बाद उन्होंने  बीएससी की और फिर एमएससी की केमिस्ट्री में।

उन्होंने पहले ही निश्चय कर लिया था कि वह बड़े होकर टीचर ही बनेंगे। उन दिनों सरकारी नौकरियां तो निकल नहीं रही थी। इसलिए वो कस्बे के एक पब्लिक स्कूल में केमिस्ट्री के शिक्षक बन गए।

उन्हें तनख्वाह तो बहुत कम मिलती थी। पर पर उनका छात्रों के प्रति जो विशेष स्नेह था। उसी के कारण बिना किसी बच्चे से मारपीट किए अपने विशेष तरीके से समझाने के कारण उन्होंने केमिस्ट्री विषय को सारे बच्चों में लोकप्रिय कर दिया था। उनके किसी भी बैच में कोई भी बच्चा फेल नहीं होता था।

कुछ बच्चे घर पर ट्यूशन पढ़ने के लिए भी आते थे। उन बच्चों के साथ क्लास के सभी कमजोर बच्चों को वह फ्री में ही बुलाकर, इस तरह से समझा देते थे की बच्चे परीक्षा में बहुत ही अच्छे नंबर लाकर पास होते थे।

उनकी श्रीमती और बेटा दोनों ही इस बात से बहुत नाखुश रहते थे कि वह कई बच्चों से ट्यूशन के पैसे नहीं लेते।

वैसे तो वह अपनी पत्नी से कभी कुछ नहीं कहते थे ।पर एक दिन उन्होंने बताया रजनी तुम नहीं जानती, कि ये गरीब बच्चे जिनके पास पैसा नहीं होते ,कितनी आशा से मेरे पास आते हैं। यदि मैं पैसे की खातिर उन्हें पढ़ाने से मना कर दूं ,तो उनका दिल टूट जाएगा और वह जिंदगी में उन्नति नहीं कर पाएंगे।

ऐसा ही कभी मेरे साथ भी हुआ था ।मेरे पास पैसे नहीं थे। गरीबी के कारण मुझे शिक्षकों ने मेरी प्रार्थना करने के बाद भी ट्यूशन नहीं पढ़ाई। उस दर्द को मैं ही समझता हूं कि मैं कितनी मुश्किल से और किस तरीके से इस विषयों को समझ पाया।

मैं नहीं चाहता कि जो मेरे साथ हुआ,वह इन बच्चों के साथ भी हो ।इसी कारण में ऐसे सभी गरीब बच्चों को फ्री में ही पढ़ाता हूं। इससे मुझे आत्मसंतुष्टि मिलती है।

गहरी सांस लेकर नरेंद्र जी अपनी पुरानी यादों से बाहर आए और फिर से नए बच्चों के बैच को पढ़ाने का प्लान करने लगे

इसी तरह साल दर साल नरेंद्र जी बच्चों को पढ़ाते रहे।

       एक बार नरेंद्र जी किसी कार्य से आगरा गए थे।वहां बाजार से कुछ सामान लेकर घर आ रहे थे कि तभी एक ट्रक ने उन्हें पीछे से टक्कर मार दी। नरेंद्र जी गंभीर रूप से घायल हो गए ।उन्हें होश नहीं था ।कुछ लोगों ने उन्हें उठाया और इमरजेंसी में पास के ही एक बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल में ले गए।

इसी बीच किसी ने उनके घर पर खबर कर दी। उनका बेटा अजय और श्रीमती जी दोनों अपने कस्बे से आगरा के लिए चल पड़े। किसी तरह गिरते - भागते हुए वे अस्पताल पहुंचे।

नरेंद्र जी के सिर में लगी चोट काफी गहरी थी और वे कोमा में चले गए थे। इसका कारण उनके इलाज में बहुत खर्च होना था। इतना पैसा नरेंद्र जी के परिवार के पास था ही नहीं।

तभी उस अस्पताल के बड़े डॉक्टर मिस्टर सिन्हा राउंड पर आए। जैसे ही उन्होंने नरेंद्र जी को देखा तो वह अपने गुरु को तुरंत पहचान गए। उन्होंने कहा।

" इन को कैसे चोट लग गई। "

अजय ने सारा घटनाक्रम बताया और यह भी बताया कि उनके पापा को इस अस्पताल से रिलीव कर दिया जाए ताकि वह उन्हें सरकारी अस्पताल में ले जा सके। क्योंकि उसके पास प्राइवेट अस्पताल में इलाज करने के लायक पैसा है ही नहीं।

डॉक्टर् सिन्हा ने कहा।

" नहीं!! सर को कहीं भी ले जाने की जरुरत नहीं है!!!, मैं सर का एक पुराना स्टूडेंट हूं।आज मैं जो भी हूं,इनकी ही बदौलत हूं। सर का इलाज यही होगा और जो भी खर्च आएगा मैं अपनी तनख्वाह में से उसे जमा कर दूंगा।

लगभग 6 दिन के उपचार के बाद,जब नरेंद्र जी को कुछ होश आया तब उनको चेक करने डॉक्टर सिन्हा आए। नरेंद्र जी ने उनसे कहा!

" डाक्टर साहब आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने मेरी जिंदगी बचा दी।"

डॉक्टर साहब नरेंद्र जी के पैर छूकर बोले

"मुझे शायद आपने पहचाना नहीं। मैं वही देवेंद्र सिन्हा हूं, जो शासकीय हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ता था ।और मुझे केमिस्ट्री थोड़ी भी समझ में नहीं आती थी ।इसी कारण मैं आपके पास केमिस्ट्री का एक सवाल लेकर समझने आया था। मैं पिता विहीन बहुत ही गरीब छात्र था। न मेरे पास ट्यूशन को देने के लिए पैसे थे और न ही किताब कॉपी पर खर्च करने के लिए।

आपने मुझे उसी दिन से अपने ट्यूशन के बैच में बिना पैसे लिए, मुझ पर विशेष स्नेह करते हुए ,मुझे हर दिन पढ़ने के लिए आने का कह दिया था।"

भावनाओं से भरे डॉक्टर ने आगे कहा।

"और आपको याद है न सर, मेरे उस वर्ष 12th की बोर्ड परीक्षा में केमिस्ट्री में 99 नंबर आए थे ,तथा उसी वर्ष मेरा एमबीबीएस के लिए सलेक्शन हो गया था। मेरी मां ने खेती की जो थोड़ी सी जमीन थी उसे बेचकर मुझे मेडिकल की पढ़ाई की फीस जमा कर दी थी। कुछ स्कॉलरशिप भी मिल गई थी। इस तरह मैं डॉक्टर बन गया। और इसके बाद भी मैने आगे की पढ़ाई जारी रखी।

    जब मैंने जब मैं आपको यहां आगरा के इस अस्पताल में भर्ती देखा तो तभी मैंने निश्चय कर लिया था कि मैं मेरे गुरु की जी जान से सेवा करूंगा और ईश्वर ने मेरी मेहनत सफल कर ली।"

अपने छात्र का अपने प्रति आदर और स्नेह देखकर नरेंद्र जी की आंखों में नमी आ गई और उनके बेटे अनिल को आज ये एहसास हो गया कि उसके पिता का सेवामार्ग गलत नहीं है।


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