मरघट
मरघट
हमेशा की भांति आज भी मनोहर कंधे पर तोलिया लटकाए हुए श्मशान घाट की ओर एक अर्थी को कंधा दिए हुए चला जा रहा था। हर कदम पर उसके मुंह से बोल फूट उठते थे "राम नाम सत्य है !राम नाम सत्य है! सत्य बोलो गत्य है।"
मैंने अपनी दुकान पर काम करते हुए अनेकों बार उसे लोगों के अंतिम यात्रा में सम्मिलित होकर उन्हें अपने अंतिम गंतव्य तक पहुंचाते हुए देखा है। हर बार उसके चेहरे पर एक निर्विकार भाव होता है ना कोई गम ना कोई खुशी।
एक दिन वह मेरी दुकान पर आया। कुछ जरूरी सामान खरीद रहा था ।सामान देते देते मैंने पूछा "मनोहर भाई क्या बात है ?आप लगातार लगभग हर जान पहचान के व्यक्ति की अंतिम यात्रा में शामिल अवश्य होते हुए दिखते हैं। क्या आपको श्मशान घाट जाते हुए बुरा नहीं लगता कोई घबराहट नहीं होती या दुख नहीं होता। "
मनोहर ने मेरी ओर देखते हुए कहा। "नहीं भाई! मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगता !!बस मुझे इस बात का एहसास होता है कि हम किसी को उसके अंतिम गंतव्य तक छोड़ने नहीं जा रहे हैं बल्कि वह मुर्दा व्यक्ति हमें अपने अंतिम गंतव्य को दिखाने हमें ले जा रहा है, कि हमारा अंतिम अंजाम यही होना है!"गहरी सांस लेकर मनोहर नजर आसमान की ओर नजर उठा कर बोला।
"कल की खबर नहीं है समान 100 बरस का ।भाई मैं तो इसीलिए सिर्फ वर्तमान में जीता हूं"
उसकी यह बात सुनकर मेरी आंखें खुल गई।
