सब कुछ अनिवार्य व सापेक्ष है
सब कुछ अनिवार्य व सापेक्ष है
कहते हैं कि "अच्छे पत्ते जिसे मिले हों वह कभी नहीं कहेगा कि पत्ते गलत बांटे हैं।"
यह उन ताश के पत्तों के खेल की बात की गई है जिसमें ताश के पत्तों को बिना देखे बिना चुनाव किए खिलाड़ियों को बांटा जाता है। किसी के हिस्से में ज्यादा अच्छे पत्ते आते हैं और किसी के हिस्से में कम अच्छे पत्ते आते हैं या किसी के हिस्से में बिल्कुल ही साधारण से पत्ते आते हैं। इस उक्ति के माध्यम से खेल ही खेल में जीवन के बहुत बड़े मनोविज्ञान को समझाने की कोशिश की गई है। इस उक्ति के कई मनोवैज्ञानिक अर्थ होते हैं। इस सूक्ति में व्यक्ति के अचेतन अवचेतन और चेतन के स्तर का पूरा का पूरा मनोविज्ञान समाया है। अर्थात इसमें पास्ट प्रेजेंट और फ्यूचर की सभी स्मृतियों का विज्ञान समाया हुआ है। मनुष्य के अवचेतन अचेतन में उसके अतीत की सभी स्मृतियां समाई हुईं हैं। मनुष्य अवचेतन और अचेतन के द्वारा अधिकांशतः समझने में सहज सक्षम होता है। कुछ चीजें यदि उसके अवचेतन अचेतन में होंगी तो ही वह उन चीजों को समझ पाएगा, अन्यथा नहीं समझ पाएगा। यदि चेतन मन को सुशिक्षित भी किया गया हो, यह उसको नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया गया हो तो भी वह कुछ नहीं कर पाता। अवचेतन और अचेतन के सामने चेतन मन की शक्ति केवल दश प्रतिशत ही है। अवचेतन और अचेतन की शक्ति नब्बे प्रतिशत होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम बाहरी स्थिति या परिस्थिति को, व्यक्ति या वस्तु को ठीक उसी परिमापन (तुलना) में समझ सकते हैं जितना हमारा खुद का (अवचेतन अचेतन चेतन) व्यक्तित्व होता है। हम किस वस्तुस्थिति को उसके सही सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में देखने समझने की योग्यता रखते भी हैं या नहीं; यह सब यूं कहें कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने अपने दृष्टिकोण पर ही निर्भर होता है।
इसके अंतर्निहित मनोवैज्ञानिक अर्थ को एक एक करके समझेंगे। पहला - जो व्यक्ति पहले से ही स्वयं अच्छी स्थिति में है, जिसने कभी अतीत में भी गलत स्थिति का अनुभव नहीं किया है, वह दूसरों की गलत स्थिति को नहीं समझ सकता। वह सदा स्वयं की स्थिति के आधार पर ही परिस्थिति के बारे में अच्छे गलत के परिणाम निर्धारण करेगा। दूसरा - जो व्यक्ति स्वयं पहले से ही सुखासीन है, जिसने कभी अतीत में दुखों का अनुभव नहीं किया हो वह दूसरों के दुखों को नहीं समझ सकेगा। जो व्यक्ति का खुद का ही अनुभव नहीं है तो वह किस आधार पर दूसरों के बारे में निर्णय कैसे कर सकेगा। तीसरा - जिस व्यक्ति में सही गलत को समझने की चेतन रूप से बौद्धिक योग्यता ही नहीं है वह समझ ही नहीं सकता है कि सही क्या है और गलत क्या है। अच्छा क्या है और बुरा क्या है। सकारात्मक क्या है और नकारात्मक क्या है। चौथा - जिस व्यक्ति को कभी अतीत में किसी परिस्थिति विशेष का अनुभव ही नहीं हुआ है वह उस परिस्थिति को यथार्थ रूप से कैसे समझेगा। पांचवां - कभी परिस्थिति ऐसी भी हो सकती है जब पत्तों के बांटते समय बांटने वाले ने अनैतिक बर्ताव किया गया हो, तो उस समय यदि व्यक्ति जानते हुए या ना जानते हुए भी यही सोचता है कि मेरे पास तो अच्छे पत्ते हैं तो मैं क्यों कहूं कि पत्ते गलत बांटे हैं। वह कभी नहीं कहना चाहेगा कि पत्ते गलत बांटे हैं। वह यही सोचता है कि मेरा तो सब ठीक ठाक चल रहा है, मैं तो ठीक स्थिति में हूं, मुझे क्या जरूरत है सही गलत या नैतिक या अनैतिक बातों को कहने की। जीवन ने लम्बी यात्रा की है। सुदूर अतीत में यह मनोविज्ञान दृष्टिगोचर नहीं था। लेकिन चलते चलते यह भी एक मनोविज्ञान बन गया है कि हर व्यक्ति पहले अपने ही हित की बात सोचता है, दूसरों के हित की नहीं।
इस विषय को केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी समझते हैं। क्योंकि मनोविज्ञान केवल कर्मों तक ही सीमित रखता है। जबकि अध्यात्म विज्ञान हमें कर्मों से भी पार ले जाता है। अध्यात्म विज्ञान के अनुसार कर्मों से ऊपर एक चीज है। उसे अध्यात्म विज्ञान अनादि ड्रामा कहता है। कर्म का सिद्धांत एक निश्चित सीमा तक जाता है। उससे आगे नहीं जाता। उससे आगे जाने के लिए वह मना कर देता है। जब कर्मों के सिद्धांत के तर्क को हम और आगे बढ़ाते जाते हैं तो सिर्फ "अनादि अविनाशी विश्व ड्रामा" ही सामने आता है। इस "ड्रामा" के पार या इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। इसका यह अर्थ हुआ कि कर्मों से भी ऊपर ड्रामा या ड्रामा की शक्ति खड़ी हुई है। जिस बात या जिस विषय का उत्तर कर्मों आदि किस भी प्रकार के सैद्धांतिक ज्ञान या विज्ञान के पास नहीं है उसका उत्तर ड्रामा के पास है। अर्थात ड्रामा सर्वोपरि है। इसे ही रहसदर्शियों ने सम्पूर्ण अस्तित्व कहा है। परमात्मा भी ड्रामा अर्थात अस्तित्व के अन्दर ही हैं।
अध्यात्म विज्ञान की दृष्टि में "अनादि अविनाशी ड्रामा" का विषय अत्यन्त गूढ़ है। अध्यात्म को दिव्य दृष्टि से अनुभव करने वालों ने इस ड्रामा विषय के बारे में सिर्फ इशारे मात्र दिए हैं। इसे पूरा ना कोई समझ पाया है और ना कोई समझा पाया है। कर्म और ड्रामा इन विषयों का विस्तार करते चले जाएं तो ये दोनों ओत प्रोत नजर आएंगे। ड्रामा होगा तो कर्म होगा। कर्म होगा तो ड्रामा होगा। कर्म और भाग्य के विषय का विस्तार किया जाए तो ये दोनों भी ओत प्रोत नजर आएंगे। कर्म होगा तो भाग्य होगा और भाग्य होगा तो कर्म होगा। इसमें कौन सा पहले आता है और कौन सा बाद में आता है यह किस आधार पर निर्णय किया जा सकता है? यह इसी आधार पर निर्णय किया जा सकता है कि यदि कर्म एक निश्चित दूरी तक ही जाता है और उसके बाद (आगे) ड्रामा आता है। ड्रामा के बाद (आगे) कुछ नहीं आता। तो इसका अर्थ हुआ पहले ड्रामा/भाग्य आता है, उसके बाद कर्म आता है।
इस विषय का सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन से भी है। व्यक्ति के जीवन में पत्ते कैसे भी बांटे गए हों। ऐसे बांटे गए हों या वैसे बांटे गए हों। किसी के हिस्से में कैसे भी पत्ते आए हों और कैसे भी नहीं आए हों। वह सब कुछ ड्रामानुसार ही है। ड्रामा के आगे कोई विषय बचता ही नहीं है तो सवाल कहां बचेगा। पत्ते कैसे भी हिस्से में आए हों वे तो ड्रामा (अदृश्य शक्ति) ने बांट दिए। दिव्य अनुभव ये कहते हैं कि पत्ते (रोल/भाग्य) बांटते समय ड्रामा कुछ भेदभाव नहीं करता। भाग्य कैसा भी हो। ड्रामा (रोल) कैसा भी हो। वह सब कुछ ड्रामा के ही अधीन था/है। इसमें कोई भी कुछ नहीं कर सकता। सम्पूर्ण अस्तित्व के ड्रामा से ऊपर कोई शक्ति नहीं है। ड्रामा को यह नहीं कह सकते कि पत्ते गलत बांटे हैं। सबको अलग पत्ते क्यों आए हैं? आदि आदि।
इसलिए ड्रामा में सब कुछ महत्व का है। सम्पूर्ण अस्तित्व (ड्रामा) में किसी एक कण को (आध्यात्मिक कण को) भी कम महत्व का नहीं कह सकते। इस अस्तित्व में ( ड्रामा में) कुछ भी अन्यथा नहीं है। अर्थात प्रत्येक व्यक्ति का ड्रामा (रोल) कैसा भी हो या इसे दूसरे शब्दों में कहें कि व्यक्ति का भाग्य कैसा भी हो वह सभी महत्वपूर्ण है। या इसे दूसरे शब्दों में कहें कि जिसको जैसा भाग्य प्राप्त है या जिसको जैसा रोल (पार्ट) प्राप्त है वह सब का सब महत्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति का ड्रामा (भाग्य) महत्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने ड्रामा (भाग्य) के अनुसार जिस जिस प्रकार का कर्म करता है वह सभी महत्वपूर्ण है। उसकी अपनी कर्म श्रंखला शुरू होने के बाद प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने रोल (कर्म) से कैसी और क्या प्रालव्ध (ड्रामा/भाग्य) बनाता है, वह सभी कुछ महत्वपूर्ण है। किसी एक को भी अन्यथा नहीं लिया जा सकता।
अपने देखा होगा कि चक्की के दो पाट होते हैं। दोनों ही पाट महत्वपूर्ण और अनिवार्य होते हैं। एक पाट ऊपर रहता है और दूसरा पाट नीचे रहता है। नीचे वाला पाट निष्क्रिय रहता है और ऊपर वाला पाट सक्रिय रहता है। अब यदि ऊपर वाला पाट अपनी उच्चता के पार्ट पर इतराता रहे और नीचे वाले पाट की उपेक्षा करे या उस नीचा हीन माने कि देखा यह तो निष्क्रिय रहता है, यह मैं ही हूं जो सक्रिय रह दिन रात दौड़ता हूं। वह स्वयं में उच्चता की ग्रंथि (superiority complex) बना ले और नीचे वाले पाट से प्रथक हो जाए तो उस ऊपर वाले पाट का महत्व भी दो कौड़ी का रह जाएगा। अर्थात उसका कुछ भी महत्व नहीं रह जाएगा। यहां इस ड्रामा में सक्रिय भी अनिवार्य है और निष्क्रिय भी अनिवार्य है। सक्रिय भी उपयोगी है और निष्क्रिय भी उपयोगी है। यहां ना ही केवल सक्रिय ही उपयोगी है और ना ही केवल निष्क्रिय ही उपयोगी है। यहां इस पूरे ड्रामा में नीचे वाले भी उतने ही अनिवार्य और उपयोगी है जितने ऊपर वाले अनिवार्य उपयोगी है। पारस्परिक के बिना कुछ भी नहीं हैं। यह है ही द्वैत की दुनिया। ऊपर वाला पाट का उसकी प्रथकता में उसका कुछ भी उपयोग नहीं है। उस ऊपर वाले पाट की उपयोगिता है ही नीचे वाले पाट की उपयोगिता के साथ। संसार में सबका पार्ट (रोल) महत्वपूर्ण है। फिर भी वर्गीकरण तो सामाजिक दृष्टिकोण से करना ही पड़ता है। समाज में सभी स्तर के लोग होते हैं। संसार की अधिकांश समस्याओं में यदि आप कोई अहम तत्व पाओगे तो वह यही मिथ्या दंभ ही है कि ऊपर वाले वर्ग के लोगों का अर्थात बहु आयामी रूप से ज्यादा सक्रिय रहने वाले लोगों का नीचे की श्रेणी के लोगों के बीच शिष्टाचार समाप्त हो गया है। ऊपर वाले वर्ग ने नीचे वाली श्रेणियों को विभिन्न प्रकार से अपने शोषण का शिकार बनाया हुआ है। उन्हें यह बोध नहीं रहा है कि यहां सापेक्षता के दृष्टिकोण से या विश्व ड्रामा के दृष्टिकोण से कुछ नीचे ऊपर के वर्ग की बात नहीं है। यहां सब एक दूसरे से आगे हैं अर्थात सब पारस्परिकता के अस्तित्व में हैं और एक दूसरे से सम्बंधित हैं। यहां सब महत्वपूर्ण हैं।
भावार्थ यह हुआ कि हमारी पारस्परिक सापेक्षता ही हमारा जीवन है। सापेक्षता के आधार पर मूल्य और उपयोगिता निर्धारित होती है। उपयोगिता और मूल्य बिना सापेक्षता के हो नहीं सकते। इसे यदि शायरी अंदाज में समझें तो जैसे चमन में यदि रंग ही रंग हों खुशबू ना हो तो भी चमन का कोई खास मूल्य नहीं होता। यदि चमन में खुशबू ही खुशबू हो और कोई भी रंग ना हो तो भी चमन चमन जैसा नहीं लगता। रंग और खुशबू की सापेक्षता से चमन को वाकई चमन की संज्ञा दी जा सकती है। इसलिए संसार के प्रति द्वैत दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए ही यह कहा गया है कि हम ही हम हैं तो क्या हम हैं, तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो। निष्कर्ष यह हुआ कि अनादि ड्रामा के अनुसार जो कुछ है उसे समझें। सापेक्षता के सिद्धांत को समझें। सबकी अनिवार्य उपयोगिता को समझें। केवल मनोविज्ञान को ही नहीं, अपितु अध्यात्म विज्ञान को भी समझें। केवल कर्म को ही कर्मों से भी ऊपर ड्रामा की शक्ति को भी समझें। केवल कर्मों को ही नहीं बल्कि भाग्य को भी समझें। केवल परमात्मा को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व (ड्रामा) को व उसके अनादि नियमों को भी समझें। केवल रोल (अभिनय) को ही नहीं बल्कि रोल के अनादि स्रोत ड्रामा को भी समझें। केवल अपने रोल को ही नहीं बल्कि सबके रोल की अहमियत अनिवार्यता को भी समझें। आत्मा और परमात्मा का दिव्य अनुभव कर लेने से, समझ लेने से यह सब कुछ सहज समझ लिया जाता है।