सौंदर्य दीप से आगे

सौंदर्य दीप से आगे

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सौंदर्य दीप से आगे पिछली बार ध्यान में हमारी यात्रा सौंदर्य दीप में उलझ गयी थी। चले थे वहां के लिए जहां तक आज तक कोई पहुंचा ही न हो, लेकिन पहुंच गये सौंदर्य दीप और अब सौंदर्य दीप का दर्शन करने के लिये ध्यान करने की जरूरत नहीं है, अब तो वो याद में ही है और कभी भी वहाँ पहुँच सकते हैं। लेकिन अब उससे आगे जाने की तैयारी है और आज आगे चलेंगें। आज का दिन एक अप्रसांगिक दिन है और इस अप्रसंगिकता में ही कोई कह रहा है सौंदर्य दीप के आगे चलो अपने आंतरिक संसार में।

अभी हम ध्यान में ही यात्रा की तैयारी कर रहे हैं तो सौंदर्य दीप में-गुलाबी वातावरण, गुलाबी परिधान में ध्यान में बैठे हुये मनुष्य जिन्हें हम संसार में सन्यासी कहते हैं और इन्ही में से ध्यान लगाये एक लावण्यमयी काया के दिमाग से बाहर आ चुके हैं। अब परछाईं के आकर्षण से बाहर निकलने की युक्ति में है।परछाईं में खोया हुआ शहर, परछाईं के आकर्षण में बंधे हुये लोग-हम यहाँ एक ध्यान यात्री हैं और अब ध्यान में हैं।

अभी हमारी आंखे बंद हैं और हमारे मस्तिष्क पर ज्वलनशील नीले रंग के गुच्छों को कोई स्पर्श करा रहा है। एक बार चमकते नीले रंग के स्पर्श में आने के बाद दिमाग के चारों ओर छाया हुआ गुलाबी परिवेश छंटने लगता है और अब आकाश सा रंग हमारे सामने है। आसमानी रंग की चमकती हुयी चादर हमारे सामने है और हमारा यान हमारे सामने है और हम अपनी कलम और कागज़ छोड़कर बैठ गये हैं ध्यान के यान में। हमारे चारों ओर आसमानी रंग की परिधि बनी हुयी है और इस परिधि से दूर चारों तरफ गुलाबी चांदनी-गुलाबी हवायें-गुलाबी परिधान में ध्यान लगाये बैठे हुये लोग,अद्भुत दृश्य है और उसकी परिधि पर खड़ी है वो परछाईं जिसके सौंदर्य में खो हुआ था सौन्दर्यदीप में। जिसके आकर्षण में सौंदर्य दीप के लोग ध्यानवत हैं।

इस परछाईं का दर्शन हमें कई बार हुआ था-बिल्कुल वही मुस्कराहट-वही अभिवादन का अंदाज़। हमें याद आने लगती है एक कहानी। एक कुटी थी। कुटी तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी हुयी थी। पहाड़ी भी अपनी हरियाली में डूबी हुयी थी-आकाश को छूने के लिये मचलते हुये पेड़-फूलों की महकती हुयी झाड़ियां। कुटी के सामने थी एक झील-झील में क्रीड़ा करती हुई रंग बिरंगी मछलियाँ-पानी पर तैरते परिंदे-पानी को छूकर पहाड़ की ओर जाती हुयी हवा।इस मनोहारी नज़ारे के बीच कुटी में ध्यान लगाये हुये एक सज्जन बैठे हुये थे, औऱ उनकी बगल में एक दूसरा आदमी खड़ा था। वह ध्यान लगाये हुए आदमी से कह रहा था, ध्यान से बाहर आओ मुनि,जिसकी खोज में तुम ध्यान लगाये बैठे हो वो तुम्हारे पास खड़ा है। मुनि को ध्यान से बाहर निकालने की उसकी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं।

मुनि का ध्यान नहीं टूटता है। आदमी निराश होकर कुटी के अंदर जाने के लिये बनायी गयी सीढ़ियों पर बैठ जाता है। सामने है फुलवारी। लगता है संसार भर के सारे सुंदर सुंदर फूलों को चुन चुनकर फुलवारी में लगा दिया गया है। आदमी फुलवारी के सौंदर्य में अपनी निराशा को तिरोहित करने की कोशिश कर रहा है। तभी उसे एक स्त्री आती हुयी दिखायी पड़ती है। फूलों के बाग से निकल कर वो स्त्री धीरे धीरे उस आदमी की तरफ ही आ रही है।

आदमी ध्यान से उस स्त्री को अपनी ओर आता हुआ देख रहा है और स्त्री उसके और नज़दीक आती चली आ रही है और जब इतनी नज़दीक आ जाती है कि उसे पहचाना जा सके तो वो आदमी उसे पहचान कर चौक जाता है और अकस्मात उसके मुंह से निकल पड़ता है,अरे तुम माँ सीता। सीता माँ ही हो न तुम माँ।

मुझे याद है मैंने तुम्हें आखिरी बार जंगल मे ही देखा था। जब तुम्हारी ही प्रार्थना से द्रवित होकर पृथ्वी फट गयी थी और तुम उसके अंदर समा गयी थी। इतने दिनों बाद इस घोर कलियुग में यहाँ क्या कर रही हो माँ, यहाँ क्या ढूंढ रही हो। स्त्री ने कहा तुमने मुझे ठीक पहचाना। मैं सीता ही हूँ, भगवान राम की धर्मपत्नी। दुख की भी सीमा होती है। तुम तो थे जंगल में। जानते ही हो राम के साथ अयोध्या से वनगमन, फिर रावण द्वारा मेरा अपहरण, एक भयानक युद्ध,अग्नि परीक्षा, फिर बनवास और यहां एक और युद्ध की संभावना थी। लवकुश ने बांध दिया था उनके अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा, लवकुश द्वारा राम भक्तों की दुर्दशा अब एक और युद्ध सम्भावित था और इस युद्ध में पिता और पुत्र आमने सामने होते या मनुष्य और भगवान आमने सामने होते। देखा नहीं जा सकता था मुझसे वो युद्ध तो मैंने पृथ्वी से प्रार्थना की माँ मुझे थोड़ी सी जगह दो और माँ ने मुझे अपनी गोद में ले लिया था।

हाँ यह सब तो मैं जानता हूँ आदमी ने कहा फिर इतने दिनों बाद तुम्हें यहाँ देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। शांति और सकून की तलाश में माँ की गोद में चली गयी थी लेकिन अब शांति वहाँ भी नहीं है। माँ को बुखार है और उसके श्वांसे अनियंत्रित है। बुखार से कांपती हुयी माँ को छोड़कर शांति की तलाश में माँ की गोद से बाहर निकल पड़ी हूँ। मैं एक इंसान की तलाश में हूँ जो मुझे शांति प्रदान कर सकता है। आदमी स्त्री की बात सुनकर थोड़ा बेचैन हो उठता है और अपनी जगह से उठकर जाने लगता है। फिर एक आश्चर्यजनक घटना घटी माँ सीता उस आदमी के अंदर विलिन हो गयी ठीक वैसे ही जैसे वो पृथ्वी के अंदर समाहित हुयी थीं और आश्चर्य तो और घनीभूत होता है जब कुटी के अंदर ध्यान लगाए बैठा हुआ मुनि भी अपनी जगह से उठकर आता है और सीता की तरह ही उस आदमी में विलीन हो जाता है और वह आदमी इन घटनाओं से बेखबर धीमे धीमे अपने गंतब्य की तरह चल पड़ता है और दूर पहाड़ियों पर खड़ी परछाईं इस दृश्य का अवलोकन कर उस मनुष्य का मुस्कराकर अभिवादन करती है।

वही परछाईं एक बार फिर उसी मुस्कराहट के साथ अभिवादन करती है। मैं समझ नहीं पाता हूँ उस परछाईं से मेरा क्या रिश्ता है। वो परछाईं हमारा अभिवादन करती है यात्रा के लिये विदाई सा अभिवादन-प्रसन्न मुद्रा-खिलखिलाकर हंसती हुयी हंसी के साथ।अद्भुत दृश्य दिख रहा है परछाईं के आकर्षण में मौनवत ध्यान में बैठे सौंदर्य दीप के लोग-परछाईं का आग्रह मेरी परछाईं से बाहर निकलो-स्थिरता में गति का स्पंदन हो नहीं पा रहा है। बीच में आसमानी रंग का घेरा-घेरे के बाद गुलाबी परिवेश-बीच में परछाईं और हमारा ध्यान यान। एक सुंदर आकर्षक परिवेश से हम दूर जा रहे हैं और कान में आवाज आती है, तुम मनुष्य हो-तुम मनुष्य हो,दो चार दोस्त बनाओ-आवाज़ देने वाला दिखाई नहीं पड़ रहा है-बस आवाज़ गूँज रही है। सुना था आवाज़ हवा में तरंगों की तरह उठने वाले स्थान से चारो ओर फैलती है किंतु यहाँ तो हवा है ही नहीं फिर कहीं से कोई आवाज हम तक कैसे पहुंचती रही है।लेकिन अब बोलने वाले की तरह आवाज़ भी गायब है-बस हमारा ध्यान का यान सामने फैली हुई आसमानी चादर की तरफ बढ़ रहा है। अगर चादर दीवार की तरह सख़्त होगी तो है भगवान हमारे यान का क्या होगा। बस एक तेज़ आवाज़ होगी और हमारा यान टुकड़े टुकड़े होकर परिवेश में बिखर जायेगा। तब हमारा क्या होगा। इस अनजान दिशा की अंतर्यात्रा में कोई ठिकाना तो है नहीं। यात्रा में सबसे बड़ा अधूरापन तो यही रह गया है कि यान में हमारी जिज्ञासा हमारे साथ नहीं है इस बार ।अगर साथ होती तो सामने दिख रहे ग्रह की ओर अंगुली उठा कर कहती देखो यह वह वही ग्रह है जिसपर धर्मगुरु ने आर्यमन को छिपाकर शक्तिमान बनाया था। मैं तुम्हें उस आवास को दिखा सकती हूँ जिसमें धर्मगुरु रहते हैं। लेकिन यह सब तो ख्याल की बात है जिज्ञासा तो छूट गयी है पृथ्वी पर उस पर तो मनुष्य की सुरक्षा का भूत सवार है। अभी तो हमारा यान उस आसमानी चादर की ओर बढ़ रहा है और हां अब हमारा यान आसमानी चादर की परिधि से बाहर निकल रहा है। कपड़े के महीन पर्दे की तरह हल्की आसमानी चादर अपने आप सरक जाती है और हमारा यान पर्दे से पार होकर एक दूसरे परिवेश में प्रवेश करता है और इस निर्वात स्थान में भी एक सज्जन खरामा खरामा आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। शक्ल सूरत से तो राजा महाराजा लग रहे हैं और उनके माथे पर मुकुट चमक ही रहा है। आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ते हुये मुड़ मुड़कर पीछे भी देख रहे हैं।जैसे कोई उनका पीछा कर रहा हो।

अगर हमारे साथ हमारी जिज्ञासा होती तो हमसे कहती उन्हें देख रहे हो, भगवान विष्णु हैं। कलिकाल के डर से पृथ्वी छोड़कर भाग रहे हैं। उनकी सारी शक्तियां शैतान ने उनसे छीन ली है और अपनी सत्ता कायम कर लिया है और अब तो भगवान विष्णु को भी ठिकाने लगाना चाहता है। मजेदार बात तो यह है कि भगवान विष्णु ने ही उसे अभय दान दे रखा है, जाओ तुम्हारा कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। फिर जिज्ञासा कहती इन्हें मनुष्य ही बचायेगा। इस बार भगवान विष्णु की रक्षा मनुष्य करेगा। उनकी कृपाओं का प्रतिफल इस बार मनुष्य ही देगा उन्हें।

मैं कहता जिज्ञासा इन्हें अपने यान में बिठा लो इन्हें भी अपने साथ वहां लिए चलो जहां आजतक कोई पहुंचा ही नहीं। जिज्ञासा बोलती ये तुम्हारे यान में बैठने वाले नहीं हैं समझेंगे तुम और तुम्हारा यान शैतान की ही कोई कारिस्तानी है। अब भागते हुये भगवान विष्णु भी पीछे छूट चले हैं और हमारा यान सरकता हुआ आगे बढ़ रहा है। वो आसमानी रंग की चादर बहुत पीछे छूट चुकी है जिससे गुजरता हुआ हमारा यान यहां तक आ गया है और अभी आगे ही बढ़ रहा है-आगे है खुला आसमान-दूर दूर तक किसी भूखण्ड का अता पता नहीं है। जिधर भी निगाहें डालो शून्य,निर्वात,शून्य और उस शून्य में ही बिहार करता हुआ हमारा यान। यहाँ अब हमें सौंदर्य दीप की याद आ रही है। गुलाबी परिधान में ध्यानवत मनुष्य कितने अच्छे लग रहे हैं अभी हम सौंदर्य दीप की याद में ही खोये हुये थे कि यान के रुकने का संकेत मिलता है। सचमुच हमारा यान उस शून्य में स्थित एक भूखण्ड पर रुक गया है। पैर यान से बाहर रखता हूँ तो ज़मीन शरीर से भी अधिक कोमल है जिज्ञासा होती तो कहती तुम भगवान की शरीर पर खड़े हो। स्पर्श करके देखो यहाँ की धरती मनुष्य की चमड़ियों की तरह ही कोमल है मुलायम है। देखो भगवान सो रहे हैं और तुम उनके शरीर पर खड़े हो। चिन्ता मत करो अगर तुम्हें कुछ गड़बड़ सा लगता है तो वह गड़बड़ी ठीक होने वाली नहीं है। जहाँ भी जाओगे तुम्हें भगवान का शरीर मिलेगा। खेलो भगवान की गोद में, उससे बाहर थोड़ी जा सकोगे। अब हम ध्यान के यान से बाहर हैं और हमारी आंखे खुली हुयी हैं। हम अपनी आँख से वहाँ का नज़ारा देख सकते हैं।। मगर दिखता कुछ नहीं है दूर तक फैली हुयी रौशनी के सिवाय। जिधर भी नजर डालिये वही झिलमिलाती हुयी रौशनी और उस रौशनी में नाचते हुये धूल के कण। हां आवाजें सुनाई पड़ रही हैं। मैं गधा हूँ, मैं कुत्ता हूँ, मैं साँप हूँ, मैं शैतान हूँ, मैं देवता हूँ, में पेड़ हूँ, मैं फूल हूँ, मैं फल हूँ, मैं झरना हूँ, मैं नदी हूँ, मैं सागर हूँ, मैं परिंदा हूँ। पर आवाज़ देने वाले कहीं दिख नहीं रहे हैं। ये आवाजें कहाँ से आ रही हैं कुछ पता नही चल पा रहा है। बस आवाजें आ रही हैं हर वो चीज जो पृथ्वी पर हम लोग देखते हैं उनके अंदर से आवाजें आती हैं। मैं ये हूँ, मैं वो हूँ। मगर यहाँ वो चीज दिखती नही है जो बोल रही है मैं ये हूँ, मैं वो हूँ। बस दूर तक दिखती है फैली हुयी रौशनी। सिर्फ रौशनी और रौशनी में झलमिलाते हुये कण।

जिज्ञासा होती तो कहती ये प्रति पृथ्वी है। पृथ्वी पर वैज्ञानिक ढूंढ रहे हैं प्रति पदार्थ और यहाँ पूरी प्रति पृथ्वी ही है। हम यहाँ काउंटर मैटेरियल की खोज नही कर रहे हैं हम यात्रा में है और यात्रा में ही यात्रा का आंखों देखा हाल सुना रहे हैं। यहाँ के दृश्य का हम सिर्फ हाल सुना सकते हैं। हम यात्रा में हैं और विस्मय में हैं कि आवाजें कहाँ से आ रही हैं। आवाज़ आ रही है मैं झरना हूँ तो चलते हैं आवाज़ की दिशा में, पर कहीं झरना दिखता नहीं है वही रौशनी में झिलमिलाते हुये कण दिख रहे हैं। मैं प्रार्थना करने लगता हूँ है बोलने वाले सामने तो आओ अपनी झलक भी दिखाओ। यहां निर्जन में आवाज़ से अपनी उपस्थिति दिखाकर कहाँ छिप जाते हो। समझ में नही आ रहा है कि झरना बोल रहा कि कोई आदमी बोल रहा है। मैं झरना हूँ यह आदमी बोल रहा है कि झरना बोल रहा है। जिज्ञासा होती तो बोलती, झरना बोलता है, सागर बोलता है, नदी बोलती है, देवता बोलते हैं। तब मैं उससे पूछता ये बोल कर छिपता कौन है। तब वह कहती बोलने वाला बोल रहा है और तुम उसे देख नहीं पा रहे हो। ये धूल की तरह उड़ते हुये कण प्राण हैं प्राण। झरने का प्राण, नदी का प्राण, सागर का प्राण, परिंदों का प्राण,देवताओं के प्राण। ये सब प्राण हैं और इन्हें वहां शरीर मिलता है। शरीर मिलता है तो नदी बहती है, सागर उमड़ता है, झरना झरता है, परिंदा चहचहाता है। एक मुक्कमल संरचना होती है इस प्रतिपृथ्वी के कणों को पृथ्वी पर शरीर मिलने के बाद।दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं। परस्पर अन्तर्सम्बन्ध दोनों में। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पृथ्वी पर आप झरते हुये झरने में नहा सकते हैं, उसके कल कल की आवाज़ सुन सकते हैं-पर झरने का प्राण तो यहां है बोल रहा है मैं झरना हूँ। पृथ्वी पर मनुष्य का शरीर है और यहाँ है उसका प्राण है जो बोलता है मैं मनुष्य हूँ। प्राण के सम्पर्क में आने के बाद ही लगता है कि शरीर बोलता है। प्राण देखता भी है सोचता भी है, कार्य को भी सम्पादित करता है। पृथ्वी की सूक्क्षतम घटनाओं को भी प्राण देखता है फिर धारण करता है एक शरीर एक लंबी यात्रा के बाद । जिज्ञासा होती तो उससे पूछता है ये प्राण कहाँ से आ जाता। यहाँ पर अब हम सोच रहे हैं कि अगर सौंदर्य दीप में किसी का ध्यान टूटा होगा तो वो हमें देख रहा होगा। आदमी अजनबी सा है और यहाँ क्या कर रहा है। कागज़ पर कलम रख कर खामोश पड़ा है। अब हमें वापस चलना चाहिये और हम वापस आ जाते हैं अपनी कलम और कागज़ उठाकर अपने झोले में रखते हैं।

आप को याद होगा हम ध्यान के यान में सवार होकर सौंदर्य दीप से आगे आये थे और सौंदर्य दीप से उन भूखंडों की तलाश में यहां प्रति पृथ्वी तक आये थे, जहां आज तक कोई आया न हो तो पृथ्वी से प्रति पृथ्वी की यात्रा वाया सौंदर्य दीप अपने आंतरिक आकाश में एक टहल थी-लेकिन मूल उद्देश्य वहां जहां आदमी आजतक पहुंचा ही नही-अधूरा ही है अभी पूरा होना है। पहले सौंदर्य दीप में उलझे फिर प्रति पृथ्वी में, लेकिन हम हारने वाले आदमी नहीं हैं। अगर अवसर मिला तो आगे भी कोशिश करते रहेंगे और यात्रा का वृतांत आप तक पहुंचाएंगे। हां अब सौंदर्य दीप की तरह प्रति पृथ्वी देखने के,ध्यान की जरूरत नही पड़ेगी। याद ही काफी है।


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