Rupa Sah Rupali

Romance Classics

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Rupa Sah Rupali

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सावन

सावन

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नाम 'ज्वाला'.. मिजाज अपने नाम सा ही, कई वैरी पाल रखे थे उसने , परवाह रत्ती भर भी नहीं। वो तो मस्तमौला था। एक दिन एक ब्राह्मण के बेटे को उठा कर बस इसलिए पटक दिया क्योंकि वो एक मेंढक के पाँव में रस्सी बांध कर नचा रहा था । अब पटकने का कारण चाहे जो भी रहा हो पर ब्राह्मण टोली आजतक यही कहती है कि वो संथाल है न नीची जाती का इसलिए वैर रखता है हम ऊंची जाती वालों से। जब वो ये कहते तो जाने क्यूँ ये भूल जाते थे कि इसी नीची जाती के युवक ने उस दिन ऊंची जाती वाले के बेटे को डूबने से बचाया था।

रंग भले काला था उसका पर छवि कुछ ऐसी कि राह चलते को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेने की क्षमता रखती थी । ऊंचा कपाल, मध्यमाकर नाक, काले घुँघराले बाल, थोड़े मोटे होंठ , माध्यम कद का युवक था जिसे अपने परंपरागत कपड़ों से कुछ अधिक ही लगाव जान पड़ता था पेंट-शर्ट के जमाने में वो धोती-कुर्ता का शौकीन था। कानों में कुंडल, हाथों में टोडोर, और बाहों में सुंदर खांगा। इससे भी शायद उसका मन न भरता था तभी तो रंग-बिरंगे फूलों से कभी अपना गला तो कभी कान सजा लेता था।

आप अगर उसका ये रूप देख लेते तो उसके गुस्से का पैमाना मापने में स्वयं को असमर्थ सिद्ध कर देते। उस दिन उसने बनिए के दुकान से पूरी आलू की बोरी उठा कर कुछ दूर चरती गायों को दे डाला। गाँव वालों में उसकी विरोध करने की हिम्मत तो थी नहीं सो चुपचाप खड़े तमाशबीन बने रहे। एक बूढ़ा हिम्मत कर सवाल पुछने आगे आया भी तो उसने ये कह कर चुप करा दिया कि क्या दादा आप इस उम्र में अब पाप का साथ देने आगे आए हो। जानते हो पूरे गाँव को ठगता है ये। हम सबका राशन मार कर खुद सेठ बना बैठा है। क्या हुआ जो एक बोरी भूखी गईयों के आगे डाल दिया...।

ये सब तो उसके छोटे-छोटे कारनामे थे आजकल वो एक अत्यंत भावुक मुद्दे के बीच घिरा चर्चा का विषय बना बैठा था। लोग दबी जुबान में बातें करने लगे थे कि ये अपने से पाँच साल बड़ी एक ब्राह्मण विधवा के इश्क़ में गिरफ्तार हुआ बैठा है।

वो इस गाँव का नहीं था ...पूरे एक किलोमीटर दूर संथाली बस्ती थी जहां का ये अपने मन का राजा था।

आजकल इधर कुछ ज्यादा ही चक्कर काटने लगा था। रोज सुबह मंदिर के बाहर अपनी साइकिल खड़ी कर किसी न किसी से बतियाता नजर आ जाता था। बातें किसी से ध्यान किसी पर..। कई बार तो रास्ते पर पानी छिट बुहारते भी दिख जाता। एक दिन विमला मौसी बोली "लगता है सुधर गया है अब तू, मंदिर का रास्ता बुहार सेवा करने लगा है।"

"अब का करें मौसी अंदर तो घुसने न देते तुम लोग ! भगवान तो तुम सबके परदादा लगते हैं न? एतना अत्याचार करते हो, अब ऐसे ही उनको खुश करने का प्रयास कर लेते हैं।"

बुढ़िया को भी गुस्सा आ गया बोली "चुप कर बड़ा आया ये पूजा करने वाला...सब जानते हैं यहाँ प्रतिदिन आजकल कौन सी देवी पूजी जाती है।"

उसने कनखियों से देखा वो पूजा की साजी लिए मंदिर से उतर ही रही थी कि कानों में उनकी बात पड़ गयी, एक पल को ठिठक गयी वो..शायद उसे लगा, नहीं ये मेरा भ्रम है कोई मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकता है... और सच को भ्रम मान वो आगे बढ़ गयी। ज्वाला की आँखें उस पर टिकी थी और बुढ़िया की ज्वाला पर... एक के होंठों पर दिल को छू लेने वाली मुस्कान थी तो दूसरे की कुटिल ! पर उसने कब किसी की परवाह की थी वो तो देखता रहा तब तक जब तक कि वो ओझल न हो गयी। फिर अपनी मस्ती में गुनगुनाता चला गया।

आज एक अदभुत दृश्य देखा था विमला मौसी ने आँखें वितृष्णा के बोझ से दबी जा रही थी। जब तक कलेजे में ठंढे पानी का छिड़काव न कर लेती आँखों को करार न मिलता सो निकल पड़ी...गली-गली , घर-घर जहाँ जो मिला सब पर इस रस का छिड़काव करती ।

दूसरे ही दिन वो एक नई कहानी की नायिका बन चुकी थी जो कहानी से ही अनभिज्ञ थी। "बरसा" यही उसका नाम था,, मिजाज उसका भी पूरा नहीं तो कम से कम अपने नाम के ही अनुरूप था जो किसी को भी अपनी मधुर बोली से शीतल कर देने की क्षमता रखता था। भगवान से तकदीर में जो दर्द लिखकर भूल हो गयी थी ऐसा लगता था उसकी भरपाई रूप देकर कर ली थी उन्होंने। लंबा चेहरा, उजला रंग, गुलाबी पतले होंठ, लंबी-ऊंची नाक, रेशम से मुलायम बाल ...बिना किसी साज-सिंगार के भी वो अप्सरा लगती थी।

बातें पकने लगी तो प्रसाद के रूप में बटने भी लगी। अब सुबह-सुबह कुछ अधिक ही लोग जमने लगे थे मंदिर के आसपास। जो गलतियाँ करता था उसे कुछ कहने का पराक्रम था नहीं और जिसे बोल सकते थे वो तो कभी कोई भूल करती ही नहीं थी। बड़े बैचेन थे ये प्रसाद के लोभी। जल्द ही मौका भी मिल गया।

सावन आया था। हर ओर हरियाली ..ऐसा लगता धरती हरी मखमली चादर ओढ़े अपने भीतर कोई ऐसा रस तैयार करती थी जिसकी सौंधी खुशबू फिजा में घुल जाती थी। झाड़-पात से टपकते बूंदों की आवाज से साथ जब मेंढक का टर्र-टर्र, झींगुर की झीं-झीं का मिलन होता तो एक अद्भुत संगीत का जन्म होता था। बागों में झूले सजने लगे थे। जगह-जगह से कजरी के मीठे गीत कानों को तृप्त करने लगे थे। वो भी व्यस्त था..एक झूला बनाने में, ठान लिया था मेरा ही झूला सबसे सुंदर और मजबूत होगा। उसने ऐसा झूला बनाया जिसे देख गांव की हर युवती का मन ललचा गया। बेला, चंपा, गुड़हल, गुलाब, जूही, चमेली से सजा वो झूला कृष्ण-राधा और गोपियों के रूप में सजी गाँव की हर बाला को आकर्षित कर रहा था। पूरा बाग झूलों से सजा था सुहागनें झूल-झूल कजरी गा रही थी। लड़कियाँ नाच-गा रही थी। उसके झूले तक वो कितनी ही बार चक्कर लगा आयी जब उसने मना कर दिया तो आपस में बोली "छि: उस अछूत के झूले कौन झूलेगा।"

वो सोच रहा था जब गाँव की सारी औरतें आज बाग में है तो वो क्यूँ नहीं आती। देखने चला गया...घर के पीछे को गायों को खाना देती हुई सिसक-सिसक गईयों से कुछ बातें कर रही थी...

वो आश्चर्य से जम गया आज इतनी खुशी के दिन ये क्यूँ रो रही है !! छुपकर सुनने लगा.., वो बछड़े को सहलाती हुई कह रही थी...सावन सबका एक सा क्यूँ नहीं होता, कोई प्रेम के गीत गा रहा तो कोई वियोग में जल रहा। अच्छा है जो तू गईया है तुझे नहीं इन त्योहारों के दर्द सहना पड़ता। बहुत तकलीफ देता है ये सावन !! मैं भी कभी ऐसी ही चहकती थी कजरी गाती थी। ये हरा सबसे पसंदीदा रंग हुआ करता था मेरा। सोलह सोमवार व्रत रख जिस देवता को माँगा था उसने व्रत के दिन ही मेरा साथ छोड़ दिया। अपने शादी के पहले सावन की खुशी में झूमती मैं, हरियाली तीज का व्रत रख पूरे बदन को हरे रंग से सजा रखा था..हरी साड़ी, हरी चूड़ी, हरी बिंदी, हरी ओढ़नी..मैं प्रकृति बनी अपने आराध्य का बाट जोह रही थी...पर आया खून के लाल रंग में लिपटा उनका शरीर !! ऐ हेमा (गाय का नाम) लोग कहते हैं तेरे शरीर में 33 कोटि देवता निवास करते हैं जरा पूछ के बता न अइसन का पाप किये थे हम जो वो हमको छोड़ चले गए। वो गाय से बतिया ही रही थी कि पुवाल का बीड़ा धप से नीचे गिरा...

"कौन है?"

"मैं ज्वाला।"

"कोई काम था?"

"सारे गाँव वाले आज बाग में जमा हैं आप न आईं?"

" मेरा वहाँ क्या काम?"

"झूलना नहीं है, सब नाच-गा रही हैं , झूम रही हैं.. कजरी की लहर बह रही है आज बाग में..मर्द लोग भी न रोक पाए खुद को, बच्चे बने बैठे ताक रहे हैं, चलकर देख आओ !! एक झूला भी खाली है आपके लिए।।"

"मैं नहीं झूल सकती!!"

"काहे?"

"विधवा हूँ न!!"

"आप डरती हो लोग क्या कहेंगे... ? अरे किसकी हिम्मत जो ज्वाला के रहते कुछ कह दे!! एक बार चलकर तो देखो।"

वो मुस्कुराई और बोली "बड़े भोले हो तुम ज्वाला नहीं समझते कि मैं खुद ही नहीं जाना चाहती, अब इन चीजों से मुझे कोई लगाव न रहा, तुम जाओ मुझे काम करने दो।"

वो चला जा रहा था बाँसुरी बजाता, मदहोश...कानों में बस यही बार-बार गूंज रहा था...."तुम बड़े भोले हो ज्वाला"..वह मुस्कुराता बढ़ता जा रहा था। विमला मौसी ने आवाज दी सब बाग में जमा हैं यहाँ तुम बहु के घर के पिछवाड़े का कर रहे थे। वह अनसुना कर अपनी धुन में बढ़ता चला गया।

वह गुस्से से फुफकार उठी। आज पकड़ा गया बेटा !! एक तो सोंतार उस पर इतना भाव!! ब्राह्मण की बहू को फास रखा है आज बताती हूँ। चिल्ला-चिल्ला कर पूरे गाँव को जमा कर लिया। गरज-गरज कर पुकारने लगी "बरसा बाहर निकल, समझ क्या रखा है इस गाँव को..तू कुछ भी करेगी हम सहते रहेंगे! अरे हमें अपनी बेटियां न ब्याहनी है क्या?"

सारे गाँव के बीच आज बरसा अपराधी बनी सिर झुकाए खड़ी थी। अनगिनत अस्तित्वविहीन सवाल जिनका उसके पास कोई उत्तर न था। लोकलाज और बदनामी के बौझ तले वो दबी जा रही थी। तभी किसी ने जाकर उसे उसका ये हाल बता दिया हाथ में हंसिया लिए वो उसके सामने आकर खड़ा हो गया। "जो बोलना है हमको बोलो इनको अगर एक शब्द भी बोला तो गला काट के रख देंगे , क्या गलती है इनका?" वह गरजा।

"एक विधवा प्रेम करे,, छिप-छिप के अपने यार से मिले, इसे का तुम बड़ा पुण्य समझते हो?" विमला मौसी बोली।

"ये कहाँ मुझसे प्रेम करेंगी, मैं इनके लायक हूँ क्या? देखती नहीं ये चमकता चाँद और मैं काला बादल!! ये तो ये भी नहीं जानती कि मैं इनको कितना चाहता हूँ ...!!

"चटाक !!" एक जोर का थप्पड़ उसकी गाल में पड़ा।

"तूने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा... वो धड़ाम से जमीन पर बैठ गयी औऱ एक हाथ माथे पर टिकाये जोर-जोर से रोने लगी।

पर वहाँ कोई सुनने वाला न था। कुछ लोग जो जानते थे इसमें इसकी कोई गलती नहीं है वो भी ज्वाला से आज बदला लेने का मौका नहीं छोड़ना चाहते थे। देखते-देखते संथाल समुदाय भी जमा हो गया। ब्राह्मणों ने बरसा को अपने गाँव से बहिष्कृत कर दिया और ज्वाला को उसके समुदाय वालों ने अंतिम चेतावनी देकर छोड़ दिया। क्योंकि गुनाह का कोई सबूत नहीं था।

वो धीरे-धीरे चलती जा रही थी और वो उसके पीछे आ रहा था। परेशान होकर चिल्लायी "सब तो छीन लिया,, गाँव , घर, अब का जान लेकर ही रुकोगे?" दिनभर की भूखी प्यासी इतना रोई की बेहोश होकर गिर पड़ी। जब होश आया तो खुद को गांव से दूर एक झोपड़े में पाया।

"क्यूँ लाये मुझे यहाँ?"

"आपके साथ मुझे अपने गाँव में रखने से मेरे गांववालों ने भी मना कर दिया। बड़ी मुश्किल से गाँव के बाहर ये झोपड़ा देने के लिए मैंने मनाया।"

"मैं यहाँ तुम्हारे साथ रहूँगी ?"

"आपको कोई कष्ट नहीं होगा ..वो खेत मुझे मिला है घर से, पूरे गांव में मुझे छोड़ कोई गुलाब की खेती नहीं जानता , आजकल शहर में बड़ी माँग है इसकी। आप देखना कुछ ही दिनों में मैं इतने पैसे कमा लूँगा कि आपको कोई तकलीफ न होगी। बस कुछ दिन कष्ट सह लो।" देखो ये आम का पेड़ भी अब आपका है।"

"मैं नहीं रह सकती तुम्हारे साथ!!"

"मैं आदिवासी हूँ ...नहीं जानता आपको कैसे रखना है, पर पूजा कैसे करते हैं ये जानता हुँ, रोज आपको देख के ही सीखा है। आज से ये टूटा-फूटा झोपड़ा मंदिर है मेरा, मंदिर के भीतर आने की इजाजत नहीं हमें। मैं वहाँ आम के नीचे मचान डाल लूँगा। आज से आपका सेवक हूँ। दिल करे तो बाहर दो रोटी डाल देना।"

वो रोती हुई भीतर चली गयी। करती भी क्या,कोई आसरा भी नहीं था। कुछ ही दिनों में वहां उसकी जरूरत की हर वस्तु थी। उसके एक आवाज में वो दरवाजे पर खड़ा हो जाता था। उससे बस उतनी ही बातें करता जितनी कि जरूरत थी। पूरे दिन अपने खेत में हाड़तोड़ मेहनत करता शाम को अपने मचान पर बैठ बंसी बजाता। दोपहर वो आधा घूंघट काढ़े खेत पर खाना रख आती थी और शाम को मचान पर रखकर चुपचाप चली जाती एक शब्द न बोलती थी। वो भी पहले जिसे आँख भर-भर निहारता था अब बस नजरें उसके पैरों में ही रहती थी। वो देवी थी उसकी और वो उसका अछूत सेवक। एक दिन जब खेत पर आई तो पैर नंगे थे। घर के बाहर देखा तो चप्पलें पड़ी थी एक टूटी हुई। चुपके से थैली में भर वो उसे ठीक करा लाया नई लाने के पैसे नहीं थे उसके पास, सुबह जब वो निकली तो उसके सामने रख दिया। इतने दिनों में पहली बार वो मुस्कुराई थी पर वो देख न पाया, निगाहें जो जमीन पर थी।

उसकी मेहनत रंग लाई थी, पूरा खेत लाल गुलाब से भरा था। सुंदर-सुंदर फूलों को बांछ उसने एक गुलदस्ता बनाया और लाकर अपनी देवी के चरणों में रख दिया।

उसके फूल अच्छी कीमत पर शहर के व्यापारी खरीदने लगे। अब वो बहुत खुश रहने लगा था पर उसकी खुशी का कारण पैसा नहीं कुछ और था... अब वो अकेले मचान पर बैठ नहीं खाता था, नीचे पीढ़ा डाल वो भी बैठती थी। आजकल तो बंसी सुनाने की फरमाइश भी करती थी। झोपड़े के भीतर से उसके गुनगुनाने की आवाज भी आती थी।

ऐसे तो वो कितनी ही बार बरसात में भीगा भी पर कभी परवाह न की। आषाढ़ की बारिश में दिन-रात उसे भीगता देख देवी का मन पसीज गया बोली

"ज्वाला भीतर आ जा, बीमार पड़ जाएगा।"

"क्या?" हवा और पानी की आवाज का असर था या वो विश्वास ही नहीं कर पाया जो उसने अभी सुना।

वो हाथ के इशारे से उसे बुला रही थी ये बूत बना खड़ा था। अचानक वो दौड़ती हुई आयी और उसे नन्हें बालक की तरह खिंच कर भीतर ले गयी। खुद अँगोछा ले उसका सिर और चेहरा पोंछने लगी। वो हतप्रद ये क्या हो रहा है। उसदिन से वो अछूत न रहा। प्रेम से अब सामने बिठा अनुग्रह कर जिमाती थी। वो भी अब पैरों को छोड़ फिर से चेहरे पर ध्यान टिकाने लगा था। हँसी-मजाक भी सुनाई देता था।

अब वो उसके लिए फूलों के आभूषण बनाता जिसे वो प्रेम से देह में सजा लेती।

"ज्वाला तू शादी नहीं करेगा क्या? पूरी जिंदगी मेरे पीछे बिगाड़ लेगा।" एक दिन वो प्रेम से बोली।

"नहीं !! ये जिंदगी आपके नाम कर दी है।"

"क्यूँ इतना प्रेम करता है मुझसे, जो बर्बाद कर लिया खुद को।"

"बर्बाद नहीं किया , आपके साथ से बढ़ कहीं आनंद नहीं आता मुझे।"

"पर मैं तो विधवा हूँ। तुमसे ब्याह भी नहीं कर सकती।"

"इतनी बड़ी बात क्यों कह दी आपने? ये तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता। आप देवी मैं सेवक..."

कुछ दिन बीते एक दिन वो बोली " ज्वाला सावन आने वाला है...मुझे हरी साड़ी, हरी चूड़ियां और सिंदूर ला दे...!!

वह चोंका, आज तक सफेद रंग में ही देखा था उसको। बिना कुछ कहे सब लाकर सामने रख दिया। वह जब तैयार होकर निकली तो वो उसे देखता ही रह गया अवाक...उसने सिंदूर की डिब्बी आगे कर दी.."ले जब जिंदगी मेरे पीछे बर्बाद करने की ठान ही ली है तो अच्छे से कर ले।"

"पर इससे तो आप भी बर्बाद...!!"

"जब बंजर धरती पर हरियाली छाने लगे तो वो बर्बाद होती है या आबाद ?"

सावन फिर से आया था...उनकी शादी का पहला सावन !! जहाँ आम के नीचे मचान रहता था वहाँ एक गुलाबों से सजा सुंदर झूला था जो धीरे-धीरे डोल रहा था। बरसा धानी चुनर में लिपटी कजरी गुनगुना रही थी और ज्वाला एक हाथ से बंसी मुँह को लगाए दूसरे से धीरे-धीरे झूला झुलाता प्रेम का कोई संगीत बिखेर रहा था।

हम उन्हें अब उनकी छोटी सी दुनिया में अकेला छोड़ यहाँ से चलते हैं...।


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