संघर्ष
संघर्ष
बिरजू थका-मांदा घर लौटा था। चेहरा ऐसे उतरा हुआ था जैसे सुबह से कुछ खाया न हो। गमछे में बँधा स्टील का बर्तन लाजो को पकड़ाकर वो हाथ-पैर धोने चला गया। लाजो ने गमछा खोल कर देखा तो रोटी, साग, प्याज सब जैसे का तैसा पड़ा था।
"का बात है, शरीर ठीक नहीं का? चेहरा उतरा और खाना जस का तस !" उसने अपने पति से पूछा।
बिरजू ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि उनका पंद्रह साल का बेटा दीनू तेजी से आया और बोला
"मैं स्कूल नहीं जाऊँगा!"
"काहे नहीं जाएगा कुछ दिनों पहले तो जिद कर सिर पर बैठा था कि बड़े स्कूल जाना है.. जाना है, अब का हो गया ?" लाजो अचरज से बोली।
"देख मेरी ये चिप्पी लगी हाफ पैंट !" वो उनकी ओर पीठ करके खड़ा हो गया।
"हाँ तो का हो गया अभी दस ही दिन तो हुए हैं चिप्पी लगे हुए, छः महीने चलेगी तू परवाह न कर।" लाजो बोली।
"माँ तू बड़ी भोली है कभी हाइस्कूल देखी नहीं न तभी ऐसा कहती है...वो इस गांव के स्कूल जैसा नहीं है वहाँ सब फुलपैंट पहन के आते हैं और मैं ये चिप्पी सटी हाफ पैंट ! सारे बच्चे मेरा मजाक बनाते हैं वो हँसते हैं मुझपर ! मुझे बड़ी लाज आती है.. तू कहे तो मैं बाबा के काम में कल से हाथ बंटा दूँ पर स्कूल के लिए ना बोल।"
"तू खेत में काम करेगा ! अरे मेरे जैसी जिंदगी न जीनी पड़े इसलिए तो पेट काट कर तुझे पढ़ा रहा हूँ... पर तू है कि समझता ही नहीं। अरे कोई कुछ भी कहे हमें उससे क्या? देख बेटा पढ़-लिख कर जो कुछ बन गया न तो हजार पैंट होंगे तेरे पास... फिर किसी को याद भी नहीं रहेगा कि कौन किसपर हँसता था।
बाप की बात सुनकर दीनू चुपचाप एक ओर मुँह लटकाए खड़ा हो गया। उसकी किसी बात की विरोध करने की उसमें हिम्मत नहीं थी पर वो ताली बजाकर हँसते बच्चे उसकी आंखों से निकलते ही नहीं थे आंखें हार गई और पलकें भीग उठी। माँ ने बेटे को देखा, दर्द भी समझा पर अभी उसका पूरा ध्यान पति के उतरे हुए चेहरे पर था।
"आप कुछ कह रहे थे?" लाजो ने पति को अपनी अधूरी बातचीत याद दिलाई।"
"महाजन ने खेत पर आदमी भेजा था... कह रहा था साल भर हो गए पैसे नहीं लौटाए। जो तीन महीने से अब एक भी दिन देरी हुई तो जमीन उसके नाम लिखना होगा।
"अरे ऐसे कैसे जमीन लिखना होगा कोई दादागिरी है क्या? उधार लिए हैं तो चुका ही देंगे न कौन से हम मरे जा रहे हैं...! और जो जमीन ही उसे दे दिए तो हम क्या घर की मिट्टी खाएंगे?" लाजो गुस्से से बोली।
"तुम्हारी इन दलीलों को कोई नहीं सुनने वाला लाजो... ये सोच के कर्ज लिया था कि एक ही बेटी है उसे सुखी-सम्पन्न घर में दे दिए तो जिंदगी सफल हो जाएगी। हमारा कैसे भी उसके बाद खाना-पीना चल जाएगा पर बेटे को गांव के बाहर स्कूल क्या भेजने लगा सबकी छाती पर साँप लौटने लगा कोई ये नहीं देखता मेरा बच्चा स्कूल जाने के लिए रोज कितनी दूर अपने पैर घिसता है... लाजो मैं कैसा बाप हूँ रे इसे एक जोड़ी चप्पल भी नहीं दे सकता।" बिरजू के भरे गले ने बेटे के कलेजे को भीगा दिया जो दूर खड़ा उनकी बातें सुन रहा था। ये नमी इतनी अधिक थी कि बेटे का मासूम सीना ना संभाल पाया और बाप के सामने आकर आंखों से वही नमी बरसने लगी। कुछ देर बाद वो खुद को संभालता हुआ बोला
"बाबा मेरे शिक्षक कहते हैं किसान तो देश की आत्मा है। वही तो धरती के विष्णु हैं जो अन्न उपजाकर सबकी पेट भरते हैं आप खुद को इतना कमजोर क्यूँ समझते हैं और मुझे भला चप्पल की क्या दरकार.. ? अरे आप नहीं जानते झाड़-पात, कंकड़-पत्थर पर चलने से हमारे आंखों की रोशनी बढ़ती है।"
बेटे की बात सुनकर बिरजू के पिचके गालों के गड्ढे और गहरे हो गए अपने पपड़ी वाले होंठों को और बड़ाकर वो बोला
"देख रही है रे लाजो... तेरी गुदड़ी में कैसा लाल चमक रहा है। आज मुझसे बड़ा हुआ जाता है अपने बाप को चराता है।"
पति को मुस्कुराता देख लाजो का चेहरा खिल उठा उसने बाप-बेटे दोनों की बलैया ले ली।
"बाबा कल रेडियो में सुना था इस बार मानसून जमकर बरसने वाला है... देखना अबकी धान लहलहायेगी और हम महाजन का कर्जा उतार देंगे।" दीनू खुश होकर बोला।
"सच बोल रहे हो क्या? अगर ऐसा हो गया तो सबसे पहले एक गाय और एक बकरी बिटिया के ससुराल पहुँचा आएंगे दहेज बाकी रखना अच्छा नहीं लगता और इसके बाद ही तो वो भी बिटिया को हमारे घर आने देंगे न... साल भर हो गए उसका मुँह भी न देखने दिया जाने कैसी होगी मेरी चिड़याँ !" एक बार फिर इस घर की लाडली की याद में सबकी आंखें भर आयी।
दो बार बाप-बेटे दोनों विदा कराने गए पर वहाँ से ये कहकर उन्हें बेटी से बिना मिले लौटा दिया गया कि जब तक वादे के मुताबिक गाय और दो बकरी उनके आँगन में नहीं बांध जाते तब तक बेटी की विदाई भूल जाएं।
जिस साल बेटी का ब्याह किया था उस साल खूब अच्छी फसल लहलहा रही थी। अच्छे बीज, अच्छी खाद सब इस्तेमाल किया था। बिरजू को पूरा यकीन था कि इस बार फसल बहुत अच्छी होगी तभी तो जब बेटी के ससुराल वालों ने बिना पूरा दहेज लिए बेटी को साथ ले जाने से इंकार कर दिया तो उसने भी उनकी मांगों को झट से मान लिया और जोश में सबके सामने वादा भी कर दिया कि अब तो आपके आँगन में गाय और बकरी बांधने के बाद ही बेटी को विदा करा ले जाऊँगा।
पर उसका अपना ही किया वादा उसपर भारी पड़ा। मॉनसून की भविष्यवाणी सटीक न बैठी। बरसने के इंतजार में पति-पत्नी आकाश निहारते रहे पर जिसे न बरसना था वो न बरसा। गाँव वालों ने महाजन से किराए पर पम्पिंग सेट लाकर अपने-अपने खेतों को पाटा पर उसने तो अभी-अभी बेटी के ब्याह के लिए कर्ज लिया था। फिर भी कोई और उपाय न देखकर मुँह लटकाए महाजन के पास पहुँचा पर उसने एक बार फिर से उधार देने से मना कर दिया। उसकी आंखों के सामने ही कुछ ही दिनों में लहलहाती धान की धानी चुनर पीली पड़ने लगी, जो भी सुनहरी इठलाती बालियां निकली वो अब ऐसी प्रतीत होने लगी थी जैसे उसने भी आकाश से उम्मीद छोड़ सहारे के लिए धरती की ओर झुकना शुरू कर दिया हो...!
जितनी उम्मीद थी उसकी आधी भी उपज नहीं हुई। सपने भी अधूरे रह गए। अब तो घर चलना मुश्किल था फिर भी एक बकरी खरीद वो बेटी के ससुराल पहुँचा और कुछ दिनों के लिए विदा कराने को कह अपने हाथ जोड़ लिए। पर उन्होंने तो उसका किया वादा ही उसे याद दिला दिया। यहाँ तक कि बेटी की शक्ल भी न देखने दी। माँ-बाप का कलेजा बेटी का हाल जानने के लिए फटता था। साल भर होने को आये थे। जिससे मदद माँग सकता था सबके सामने हाथ जोड़े पर गांव के लगभग हर किसान की हालत एक सी थी किसी तरह साल भर चलने लायक ही वो जुटा पाते थे... किसी को उधार देना महाजन को छोड़ और किसी के बस का नहीं था और महाजन के पास जाने की उसकी हिम्मत नहीं थी।
इस साल पूरे परिवार ने जी-जान लगाकर मेहनत की न दिन देखा न रात। दीनू भी अपने स्कूल के बाद का पूरा वक़्त खेत को ही दिया। मेहनत रंग लाई थी पूरा खेत लहलहा रहा था इस बार वर्षा भी उम्मीद के मुताबिक ही हुई। अपनी मेहनत का फल देखकर बिरजू फुला न समाता था। वो अपनी खेत की रक्षा में पूरा दिन वहीं बिताता। सुनहरी बालियों से खेत लद गया। उसके लहलहाते खेत को देखकर पूरे गाँव का मन ललचा जाता। बात महाजन तक भी पहुँच गयी। उसने अपने आदमी भेजकर कहलवाया कि सबसे पहले वो उसका ही कर्ज चुकाए। उसने भी हाथ जोड़कर स्वीकार किया। खेत देख उसे अंदाजा था कि महाजन का कर्ज उतार कर भी इतने तो पैसे बच ही जाएंगे जिससे वो गाय और एक बकरी खरीद सके। और फिर उनके जीने का क्या एक वक्त खाकर तो एक वक्त चबेना में ही काट लेंगे। बस सिर पर किसी का कोई उधार न रहे। लाजो मन ही मन खुश होती आखिर भगवान ने सुन ली, ओला-पाला सबसे बची रही फसल और इंद्रदेव ने भी इस बार रहम बरसाई। फसल कटकर खलिहान तक पहुँच चुकी थी। अब तो बस इंतजार था मड़ाई के बाद मंडी तक ले जाकर बेचने की। फसल खलिहान से चोरी होने का डर था इसलिए वो खलिहान से हिलता भी न था। पर जाने कैसे उसे अचानक तेज बुखार चढ़ गया। बाहर बहुत सर्दी थी और ऐसी हालत में खलिहान पर खाट डाल कर सोना उसके लिए खतरनाक था। लाजो ने उसे खलिहान पर जाने से मना किया तो बोला
"अरे लोग ऐसे ही वक़्त का तो इंतजार करते हैं लाजो । जो एक रात नहीं गया तो आधी फसल भी न बेचेगी।" अपनी तम्बाकू की डिब्बी उठाकर वो खाँसता हुआ आगे बढ़ने लगा तो बेटा सामने आकर खड़ा हो गया।
"खाली धान ही अगोरना है न तो मैं चला जाता हूँ, यहाँ घर में भी सोता हूँ वहाँ भी सोना ही है। आप घर में रहो आराम से, मेरे होते कोई उधर फटक भी न पायेगा।" कहकर उसने अपनी कुछ किताबें ली और कांच की बोतल से बनी छोटी सी ढिबरी उठाकर माँ को आवाज लगाई
"माँ जरा सलाई की डिब्बी दे दे।"
माँ हाथ में पकड़े फटे कम्बल को उसे पकड़ाती हुई बोली
"सलाई का करेगा? और ये ढिबरी ना लेग ये तो खतरा है, ले ये टॉर्च ले जा।"
"अभी इतनी जल्दी नींद ना आएगी माँ। तीन दिन बाद परीक्षा है मैं थोड़ी पढ़ाई कर लूँगा।" कहकर उसने माँ के हाथ से कम्बल ले लिया।
"मुझे ये ठीक नहीं लगता बेटा कल दिन भर पढ़ लेना पर रात को तो तुझे खाट पर गिरते ही नींद आ जाती है कैसे संभालेगा तू ये ढिबरी ?" माँ ने शंका जताई।
"अरे माँ तू भी न! मैं इसे बुझाकर ही सोऊंगा तू फ़िकर ना कर।" बेटे के जिद के आगे हारकर माँ ने उसे माचिस की डिब्बी पकड़ा दी और वो गुनगुनाता हुआ खलिहान की ओर निकल गया।
बिरजू का माथा तप रहा था तो लाजो उसी के खाट के पास बैठी उसे पानी की पट्टियां देने लगी। बिरजू की आंखें बंद थी अचानक उसे मुस्कुराता देख लाजो विस्मित हुई कहीं ज्वर ज्यादा तो नहीं चढ़ गया जिस कारण होश खोकर ये इस हाल में मुस्कुराने लगे वो उसे हिलाकर पूछने लगी
"एजी ठीक तो लग रहा है न? होश में तो हो? ना तो मैं जाती हूँ वैद जी को हका लाऊंगी।"
"अरे ना री लाजो... बिटिया का वो मासूम चेहरा नजर आ रहा था। हाथ फैलाये बाबा कहती हुई दौड़ी आ रही थी मेरी मुन्नी ! अब बस कुछ दिन और रे...!"
उसकी बात सुन लाजो के होंठ मुस्कुराए और आंखें संग-संग भीग उठी कुछ सोच कर बोली
"हाँ जी...उसे खबर भिजवा दिया है। कल बिन्नी अपने ससुराल जा रही थी तो उसी से मैंने कहलवा दिया कि इस बार उपज बहुत अच्छी हुई है। धान बिकते ही बाबा तुझे लिवाने आएंगे।"
"अच्छा किया.. अब तो वो भी मेरी राह तकती होगी। जिस बेटी को पहला निवाला खिलाये बिना मैं खाना नहीं खाता था आज उसका हाल भी मुझे मालूम नहीं ना जाने वो सासरे में ठीक से खाती भी होगी कि नहीं ! बिन्नी से कुछ ना पता चला क्या वहाँ का हाल?"
"ससुराल दोनों का एक ही गांव में है पर वहाँ कभी ना मिली दोनों। बिन्नी तो कहती थी वो तो पनघट में भी कभी ना आती। हाँ उसकी सास अक्सर उसके घर चक्कर लगाती पहुँच जाती है और यहाँ का हाल-चाल पूछती रहती है।"
"चलो अच्छा है अब अच्छी फसल की बात सुन सब खुश होंगे। महाजन का कर्ज उतारकर सबसे पहले मैं अपनी बेटी को घर लाऊँगा।"
"सुनो जी तीन साल हो गए दीनू के लिए एक कपड़ा नहीं खरीदा एक फुलपैंट भी ला देना बच्चे का। अब छोटा ना रहा, चिप्पी वाली पैंट देख बच्चे हँसते हैं पर अब बेचारा घर के हाल देख कुछ बोलता भी नहीं।"
"जरूर लाऊँगा लाजो तू चिंता ना कर और तेरे लिए एक ऊनी चादर भी, तू भी तो साड़ी लपेटे ठंड से ठिठुरती रहती है पर मुँह से कभी कुछ कहती नहीं।"
"अरे मेरी छोड़ो....!" अभी लाजो बोल ही रही थी कि दरवाजे पर धप-धप होने लगी।
"इस वक़्त कौन होगा?" कहती हुई वो दरवाजे तक गयी और बिना खोले ही भीतर से पूछा
"कौन है?"
"जल्दी आओ तुम्हारे खलिहान में आग लगी है।" बाहर गांव के रामदीन की आवाज थी।
"हाय माँ.. ये क्या हुआ जी।" कहती हुई वो पागलों की तरह खलिहान की ओर भागी। उसके पीछे अपने बुखार को झाड़ता हुआ बिरजू भागा।
जब वहाँ पहुँचे तो दोनों ने माथे पर हाथ रख लिया। आधी से अधिक फसल जल चुकी थी। कुछ ही देर में सारा गांव जमा हो गया। लोग बाल्टी भरभर कर पानी डालने लगे। कुछ देर में आग तो बुझ गयी लेकिन अपने संग सारे सपने के जलते दीपों को भी बुझा गयी।
लाजो ने दीनू को एक के बाद एक कई चाटे मारे पर वो बुत बना खड़ा था। वो अपने आप को अपने घर की बर्बादी का जिम्मेदार मान रहा था। मन ही मन उस पल को कोस रहा था जब उसे नींद आ गयी। जाने कब और कैसे ढिबरी खाट से नीचे गिरी और आग पकड़ ली। काश वो उस पल को रोक पाता ! उसके महीने भर की नींद लेकर भी कोई उस बीते वक़्त में वापस ले जाये तो वो पूरी घटनाक्रम ही बदल दे। पर उसके मन की ये इच्छा अब पूरी न होने वाली थी। तभी तो आज उसे अपने माँ के हाथ की मार भली लग रही थी। अचानक उसकी नजर उठी तो लोगों को एक जगह जमा होते देखा। देखा तो उसके बाबा गिरे पड़े थे। वो भागकर वहाँ पहुँचा। सबने मिलकर बिरजू को उठाया और उसके घर पहुँचा आये। सब उसे ही कोस रहे थे
"ये होता है ज्यादा पढ़-लिख लेने का नतीजा ! खलिहान में ढिबरी बारके कौन सोता है?"
उसे खुद से इतनी ग्लानि हो रही थी कि एक बार तो मन में आया कि नहर में कूदकर अपनी जान दे दे पर ये सोच सब सहता रहा कि उसके बूढ़े माँ-बाप की जिम्मेदारी उसके ऊपर है।
कुछ देर बाद सब अपने-अपने घर लौट गए। बिरजू को होश आ गया था। लाजो माथे पर हाथ रखकर अपने भाग्य को कोस रही थी। दीनू काँपता हुआ दोनों के पास आया और धीमी आवाज में बोला
"माँ मैं कल शहर चला जाऊँगा रघु के पास। वो कहता था वहाँ फैक्टरी में काम करने से साठ रुपये दिन मिलते हैं।"
दोनों में कोई कुछ न बोला तो वो रोता हुआ वहाँ से चला गया।
दूसरे दिन उनके उठने से पहले ही वो गाँव छोड़कर चला गया था। गरीब किसान के बेटे का एक बड़ा ऑफिसर बनने का ख्वाब धरा का धरा रह गया। माँ-बाप बेटे की जुदाई से बिलख उठे पर उनके सामने अभी नई समस्या मुँह फाड़े खड़ी थी।
बची फसल से जो भी पैसा मिला वो महाजन को देने के लिए ही पर्याप्त नहीं था। कुछ दिनों बाद ही बेटी के ससुराल से खबर आयी.... अब हम और इंतजार नहीं कर सकते आकर हमेशा के लिए अपनी बेटी ले जाओ। अपने बेटे के लिए हमने कुछ बेहतर सोच लिया है।....
बेटी के घर उजड़ने की बात सुन लाजो दहाड़ मारकर रोने लगी तो बिरजू बोला
"मत रो लाजो... अभी एक उपाय है रे।"
पति की बात ने लाजो को सबल कर दिया वो भागती हुई आयी और बोली
"अब कौन सा उपाय बचा है जी?"
"खेत बेच देते हैं... इससे दोनों जगह का उधार चूक जाएगा !"
"का कह रहे हो खेत बेच दोगे तो करोगे क्या?"
"अरे सब किसान खेत वाले ही होते हैं क्या? मजूर किसान भी तो होते हैं न? मैं भी दूसरों की खेत में मजूरी कर लूँगा !"
लाजो जानती थी अब इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं वो आगे कुछ न बोली।
महाजन ने ही औने-पौने दाम में उसके सारे खेत खरीद लिए और अपना उधार काटकर बाकी का पैसा उसके हाथ में रख दिया।
उसने खुशी-खुशी एक गाय और बकरी खरीदी, थोड़े पैसे की मिठाइयां ली और अपनी बेटी को विदा कराने पहुँचा। जब उसके घर पहुँचा तो दरवाजे पर भीड़ थी। क्या बात है सोचकर वो तेजी से आगे बढ़ा तो देखा दरवाजे पर ही उसकी बिटिया पड़ी थी मुँह ढाँके ! उसकी सास रोती हुई सामने आयी और बोली " बड़ी देर कर दी समधी जी आते-आते। बिटिया को लगता है आप पर विश्वास न रहा तभी तो इंतजार ही छोड़ दिया और सल्फास खाकर अपनी जान दे दी।
बिरजू धम्म से जमीन पर बैठ गया। गाय-बकरी दोनों हाथ छुड़ाकर जाने लगी तो बेटी के ससुराल वालों ने थाम लिया।
देश की आत्मा.. अन्नदाता किसान जमीन पर पड़ा आज अपनी आंखों की धार से धरती सींच रहा था पर उस अभागे को ये नहीं मालूम कि जिस जगह को वो सींच रहा है वो तो बंजर है। शायद आकाश को भी आज उसके ऊपर दया आ रही थी तभी तो उसका साथ देने वो भी बेमौसम बरसने लगा।