Rupa Sah Rupali

Classics Inspirational

4.7  

Rupa Sah Rupali

Classics Inspirational

सर्दी की एक रात

सर्दी की एक रात

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वो दिसंबर की एक सर्द रात थी। सर्द भी ऐसी की लगता बाहर निकलो तो खून जम जाएगा। एक तो सर्दी का मौसम उसपर ये गरजती बरसती हवाएं। अपने घर की टूटी छत के नीचे पिंकी अपनी माँ के साथ फ़टी रजाई में घुसी हुई थी। बरसती बूंदे तो रुक गयी पर ठंड को दूना कर दिया था। माँ ने जब देखा इस रजाई से ठंड न कटने वाली तो उसने एक मिट्टी की छितरी हांडी में चूल्हे की बची आग निकाली और उसे लाकर खाट के नीचे रख दिया। अब वो फिर से खाट पर पिंकी के साथ लेटी थी।

"माँ दादी अभी क्या कर रही होगी?पिंकी ने पूछा।

"रात को सब सोते हैं और तुझे इससे क्या? चल अब चुपचाप सो जा।"

"माँ जानती हो वो पंद्रह दिन से बीमार खाट पर पड़ी है, किसी तरह उठकर एक बार कुछ पका लेती है फिर सारा दिन खाट पर ही पड़ी रहती है।"

"वो कुछ भी करे मुझे इससे क्या, न जाने आज ये मौसम भी कैसा हो रखा है... ये ठंडी हवा तो ऐसे टकरा रही लगता है छप्पर उड़ा देगी।" माँ ने बेटी को ठंड न लगे सोचकर खुद से चिपकाकर सुला लिया।

नीचे से आग की गर्माहट, उपर रजाई और एक दूसरे का साथ अब ठंड चाहकर भी उन्हें सताने की गुस्ताखी नहीं कर सकता था।

"जानती हो माँ उस दिन जब तुम घर में नहीं थी तो दादी चुपके से घर में आई थी..!"

"वो आयी थी ! क्यूँ? और ये तू मुझे आज बता रही है, न जाने क्या लेने आई हो.. तूने ठीक से देखा था न कुछ लेकर तो नहीं गयी?"

"माँ वो कुछ लेने नहीं देने आई थी ।"

"क्या देने आयी थी , तूने उनका दिया कुछ खाया तो नहीं न? उनका कोई भरोसा नहीं न जाने जहर ही दे दे। वैसे भी तेरे जन्म से ही वैर है उसे ।"

"जहर नहीं दी थी माँ नहीं तो मैं जिंदा कैसे होती। वो तो उस दिन बहुत रो रही थी मुझे गौद में बिठाया और खीर खिलाया... कहती थी आज तेरे बाबा का जन्मदिन है बड़ी याद आ रही है उसकी ! बड़ा अन्याय किया है भगवान ने तुम दोनों पर... जाने रधिया कहाँ मारी-मारी फिरती है इस पापी पेट के लिए। मुझे उठा लेते तो क्या हो जाता...क्यों मेरे हीरे जैसे बेटे को उठा लिया... मैं तुम्हें कभी माँफ नहीं करुँगी कहती हुई वो भगवान को कोसती हुई रो रही थी।

"ऐसा बोल रही थी वो ! मेरा नाम भी लिया अपने मुँह से ? ....माँ थी न ! कैसी भी हो अपने जने को कैसे भूल सकती है....अब इस उम्र में उन्हें हमारी परवाह भी होने लगी, सबके सामने तो यही कहती रहती हैं कि जब से इस कुलक्षिणी के कदम पड़े मेरे घर का सत्यानाश हो गया।"

"पर वो तो मुझे बहुत प्यार करती हैं माँ... जब तुझे काम से आने में देरी होती है कितनी बार अपनी कोठरी पर बुला कर अपने हाथों से खिलाती है। जब जाने लगती हूँ तो कहती है अपनी माँ से ना कहना।"

"माँ से न कहना ! जैसे मैं ही रोकती हूँ तुझे उससे मिलने से, दादी है तेरी मैं क्यों रोकूँगी? अरे मैं तो उनके गुस्से में कही बातों से ही डरती हूँ... कहती थी अगर दूसरी बार जो बेटी जना तूने तो दोनों को जहर देकर मार डालूंगी। अब क्या मारेगी खुद का बेटा ही नहीं रहा।" कहकर वो रोने लगी।

"बिन्नी की माँ कह रही थी अब तुम्हारी दादी ये जाड़ा न काट पायेगी !

"ज्यादा बीमार है क्या? मैं तो ये सोच कर भी डर से नहीं जाती की मुझे देखकर ही आग उगलने लगती है।"

"हां बहुत बीमार है और उनके पास तो रजाई भी नहीं है एक फ़टी सी गुदड़ी कितनी ठंड रोकेगी? रात को तो रसोई भी नहीं करती तो चूल्हे की आग भी न होगी उनके पास। तुम देखना वो जाड़ा न काट पाएगी।"

"कुछ भी कहती है चुप कर। अभी उम्र ही क्या है उनकी बस साठ की तो है, लोग तो सौ साल जीते हैं। एक काम कर तू ये चादर लपेटकर जरा देखकर आ तो वो ठीक है कि नहीं।"

माँ बेटी दोनों अपने गर्म बिस्तर से बाहर निकल आई। बाहर निकलने के लिए जैसे ही दरवाजा खोला पूरा कमरा ठंडी हवा के झोंके से भर गया। माँ ने अपनी देह की चादर उतारकर बेटी के सिर और गर्दन पर लपेट दिया और बोली

"मैं यहीं दरवाजे पर खड़ी हूँ तू जा देख के आ।"

बस उनके दरवाजे से ही लगी थी वो कोठरी। पिंकी ने जाकर दरवाजा पीटा

"कौन है?" एक ठंढ़ी सी आवाज आई।

"दादी मैं पिंकी।"

"रुक आती हूँ।"

बहुत देर बाद दरवाजा खुला। वो भीतर गयी फिर भागकर वापस आयी

"वो तो पूरी तरह काँप रही है माँ और उनका बदन भी पूरा ठंडा हो रहा है दरवाजा खोलने में ही हाँफ गयी।"

दोनों भागती हुई कोठरी के अंदर गयी उसे देखते ही दादी दाँत किटकिटाती हुई बोली "पानी देने आ गयी...कितनी जल्दी है कोठरी हथियाने की, न जाने वाली इतनी जल्दी मैं... सुन लो कान खोलके।"

माँ तेजी से अपने हिस्से में चली गयी।

"देखा बिटिया कितनी तेजी है तेरी माँ को, ये न देखा मर रही हूँ ..जरा सा मन को शांत करने के लिए कुछ कह क्या दिया निकल गयी मुँह उठाके! बेटा न रहा तो कोई देखने वाला नहीं मुझे..हे भगवान अब मुक्ति दे दे।" कहकर वो रोने लगी।

" न सुनने वाले हैं वो आपकी चाहे जितना पुकार लो, पापी लोग इतनी आसानी से ऊपर नहीं जाते।" कहकर माँ ने अपने घर की रजाई लाकर उनके ऊपर डाल दी ।

"जा बेटा तू भी दादी की पास घुसकर सो जा इससे दोनों को गर्मी लगेगी तब तक मैं आग जला लेती हूँ।" कहकर वो चूल्हे में आग जलाने लगी। आग जल चुकी थी उसने अपने घर की वो हांडी उठाकर लायी उसमें जलते हुए कोयले डाले और उसे लेकर खाट के पास रख दिया। दूध गर्म करके उसे पिलाया। फिर सरसों का तेल गरम कर उसके पूरे शरीर की मालिस करने लगी।

"बड़ी देर से शांत हो दादी, अब तुम्हें कैसा लग रहा है?" पिंकी ने पूछा।

" लगता है यमराज के ठंडे हाथों में कसे मेरे प्राण अब छूट आये हैं।" वो रुक-रुक कर बोली।

"अपनी दादी से कह दो जब तक ठीक नहीं हो जाती ऐसे ही आराम करे कुछ दिन मेरी जैसी कुलक्षिणी के हाथ का खा लेगी तो धर्म भ्रष्ट न हो जाएगा...मैं चलती हूँ तू यहीं रह और इनका ख्याल रख।" माँ बोली और जाने लगी।

"ये गुदड़ी और सारी चादरें ले जा... और सुन आले में कुछ पैसे रखे हैं, पिंकी की शादी के लिए जमा कर रही थी उसमें से कुछ ले जा और कल एक कंबल खरीद लाना तुम दोनों के लिए...अब ये रजाई मैं वापस नहीं करने वाली।" दादी खाँसती हुई बोली।

"रख लो दादी वैसे भी फ़टी हुई है हमें तो नया कम्बल मिल जाएगा।" पिंकी खुश होते हुए बोली।

"आप पिंकी की शादी के लिए पैसे अभी से जमा कर रही थी! शादी की इतनी भी क्या चिंता की पैसे रहते जाड़े में मरे लेकिन खुद के लिए एक कम्बल भी न ले ?" माँ आश्चर्य से पूछ रही थी।

" और क्या तुझ पर तो आज भी भरोसा नहीं मुझे तभी तो इसके जन्म के बाद से ही एक-एक पैसा जोड़ रही हूँ... कहीं मैं मर गयी तो न जाने कैसे ब्याह करेगी तू इसका।"

"फिर आज क्यूँ खर्च कर रही हैं ये रुपये?"

" आज मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं फिर से स्वस्थ हो गयी थोड़े पैसे खर्च हो जाने दे मैं फिर से जमा कर लुंगी तू चिंता न कर।" वो पिंकी का माथा चूमती हुई बोली।

"अब कोई चिंता ना रही माँ...मौसम बदले या आपका मिजाज।" कहकर वो मुस्कराती हुई चली गयी।

दूसरे दिन नया कम्बल आ गया था। जिसे मां ने दादी को ओढ़ा दिया पिंकी से बोली आज से तू यहीं दादी के पास सोएगी और खुद फटी रजाई लेकर चली गयी। पिंकी बहुत खुश थी वो बोली

"दादी तुम और माँ दोनों एक दूसरे का इतना ख्याल रखती हो फिर ताना क्यूँ मारती रहती हो?"

"अब क्या करें बिटिया जैसे ये जाड़ा अच्छा नहीं लगता फिर भी आ ही जाता है न वैसे ही ई मिजाज भी है मेरा न चाहते हुए भी बदलते रहता है.... पर तू है न हमारे पास इन दोनों से बचाने वाली हमारी नरम-नरम कम्बल।"

कहकर दादी ने उसे अपने गले से लगा लिया।


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