Rupa Sah Rupali

Romance

4.2  

Rupa Sah Rupali

Romance

मेरी चारूलता

मेरी चारूलता

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"मैंने कहा न दूर रहो मुझसे, मैं तुम्हारी शक्ल भी नहीं देखना चाहती!" यही एक फेवरेट डायलॉग था जो वो दुहराती रहती थी।

ये एक दिन की बात नहीं थी ऐसा हमारी शादी के बाद से ही हो रहा है। पूरे छतीस गुण मिलाए गए थे शादी के वक़्त जाने कैसे, बाद में तो यही लगा वो जमीन और मैं आसमान। मैं खुले हाथ खर्च करने वाला, अगर कोई आकर जरूरत बता कुछ माँग ले तो मैं कभी मना नहीं कर पाता और वो दाँतों से रुपये पकड़ने वाली एक रुपया इधर-उधर हो जाये तो दिन भर हिसाब करने लगती । मैं अस्त-व्यस्त घर को अपना आराम गृह मानने वाला, वहाँ अपनी मर्जी से कैसे भी रहने वाला और वो घर को हमेशा शोपीस की तरह सजाकर रखने वाली। अक्सर हम टकराते थे " ये जूते ऐसे कैसे फेंक दिए, ये टॉवल इस्तेमाल कर फिर अच्छे से क्यों नहीं लटकाते जैसे पहले से रहता है। गीले पैरों से फर्श गिला क्यूँ किया और भी अनगिनत शिकायतें रहती थी उसे मुझसे।

आज तक कभी मेरी तारीफ़ के एक शब्द निकले नहीं मुँह से हाँ ये जरूर कहती रहती थी किस्मत फूटी थी मेरी जो यहाँ आ गयी।उसे खुश करने लिए बहुत कुछ करता था मैं पहली तारीख को उसके लिए साड़ी लेकर आया था देखते ही बोली

"हद होती है फिजूलखर्ची की, अभी तो दुर्गापूजा में नए कपड़े लिए थे न?"

मुझे लगा था मेरे कम वेतन के कारण बेचारी आज तक कोई गहना नहीं ले पायी। थोड़े-थोड़े पैसे जोड़ कर उसके लिए एक अंगूठी ली बहुत खुशी से घर पहुँचा और उसके पास जाकर बोला था "अपनी आँखें बंद करो, तुम्हारे लिए कुछ है मेरे पास।" उसने आंखें बंद की तो उसकी उंगली में डाल दी... देखते ही बोली थी ""मां पन्द्रह दिन से बीमार है मैं ये सोच कर उनसे मिलने भी नहीं जाती की पैसे खर्च कर दी तो महीना कैसे चलेगा। बिट्टू की फ़ीस कहाँ से लाऊंगी और तुम मुझसे पैसे छुपाते हो? "

मेरा इश्क़ हवा बनकर उड़ गया और मैंने सोचा लिया अब इसके लिए कभी कुछ नहीं लाऊँगा। बस यही नहीं मैंने भी ये मान लिया कि मेरी किस्मत फूटी थी जो ऐसी नीरस बीबी मिली है। प्यार के एक बोल नहीं, इसे बस मुझमें कमियां ही कमियां नजर आती है।

उसका स्वभाव समझ नहीं आता था मुझे.. सुबह उठने से लेकर मेरे सोने तक मेरी एक-एक जरूरत का ख्याल रखती मेरी पसंद का ही खाना बनता था मेरे घर में, उसकी पसंद क्या है ये तो मुझे आजतक ज्ञात नहीं! पर क्या जिंदगी भौतिक जरूरतों से ही कट जाती है क्या भावनात्मक कोई जिम्मेदारी नहीं।

ठीक है अगर तुम पैसे बचाकर, घर को सजाधजाकर और मुझे अनुशासन में रखकर ही खुश रह सकती हो तो यही सही।

मैं सुबह जल्दी घर से निकल जाता दोपहर को भी ऑफिस कैंटीन में कुछ खा लेता और रात को देर से लौटने लगा ये सोचकर कि शायद उसे मेरी कमी महसूस हो.. वो मुझसे मेरे देर से आने का कारण पूछे पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वो तो आज भी मेरे मोजों के गंध से परेशान थी, मेरे ऑफिस में खाने को फिजूलखर्ची बताती थी।

हम दोनों एक दूसरे के लिए बने ही नहीं थे। अगर हमारे बीच बिट्टू नहीं होता तो मैं कब का उसे छोड़ कर जा चुका होता। धीरे-धीरे उसे बदलने की कोशिश कम हो गयी। मैंने मान लिया ये मेरी बदरंग जिंदगी ऐसे ही कटेगी।

एक दिन दोपहर को कैंटीन में बैठा सैंडविच खा रहा था। तभी सविता मेरे पास आई "क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ" उसने पूछा। "अरे बिल्कुल ये कैंटीन सबके लिए है" मैंने कहा।

"आपका घर यहाँ पास ही है न?" वो बोली।

अभी तीन महीने ही हुए थे उसे इस ऑफिस में आये और मेरे बारे में इतना जानती है मैं भीतर से खुश हुआ।

"हाँ..पास ही है।" मैं बोला। "फिर भी घर नहीं जाते खाने क्यूँ वाईफ कहीं बाहर गयी है क्या?" " बस समय बचा लेता हूँ " मैं बोला। हमने साथ-साथ कॉफ़ी पी।

उस दिन के बाद अक्सर हमारी बातें होने लगी थी। पारिवारिक जिम्मेदारी उठाते-उठाते वो पैंतीस की हो गयी थी अपना घर नहीं बसा पायी और अब बसाना भी नहीं चाहती थी। उसके इतने दिन हो गए थे यहाँ आये पर मेरा ध्यान कभी नहीं गया था उसपर अब जब रोज बातें होने लगी तो मैं उसके बारे में सोचने लगा।

वो घर से अपना टिफिन लेकर आती थी, अब जिद करके मुझे कैंटीन का खाने नहीं देती वो कहती मैं तुम्हारे लिए भी लेकर आई हूँ।" मैं सोचता इतनी मेहरबानी क्यूँ मुझपर वो और किसी के साथ तो कभी इतना घुलती-मिलती नहीं।

एक दिन बोली "जानते हो मेरा कोई मित्र नहीं न ही कोई पुरूष न कोई स्त्री... तुम पहले ऐसे इंसान हो जिसका साथ मुझे अच्छा लगने लगा है।" उसकी बातों ने धड़कनें बढ़ा दी थी मेरी... क्या मैं सच में इतना खास हूँ फिर चारु को क्यों एक भी गुण आजतक नजर नहीं आते मुझमें? कमी तुझमें नहीं उस घमंडी औरत में है ! मैंने खुद को समझाया और सविता की दोस्ती को दिल से स्वीकार कर लिया।

अब मैं उदास नहीं रहता था, अब कोई कमी नहीं लगती थी जिंदगी में... सुबह उठने के साथ ही जल्दी रहती थी ऑफिस पहुँचने की, जल्दी-जल्दी काम निपटाता और उसके बाद का सारा वक़्त मेरा बस सविता के लिए थे।

कई बार हम ऑफिस के बाद कॉफीशॉप में गए, पार्क की बेंच पर बैठकर घण्टों बातें की और एक दिन सविता ने साथ पिक्चर देखने का प्लान भी बना लिया। रविवार का दिन था मैं ऑफिस का जरूरी काम है बोलकर घर से निकल रहा था "रविवार को भी अब ऑफिस...पूरा दिन बिताकर भी पेट नहीं भरता क्या?" चारु बोली थी। पहली बार उसका ये ताना मुझे अच्छा लगा था ऐसा लगा वो मेरे साथ रहना चाहती है। एक बार तो ऐसा भी मन किया कि न जाऊँ पर सविता के साथ वक़्त बिताने की मेरी चाह को चारु का ये नया बदलाव रोक नहीं पाया और मैं चला गया।

हमने साथ-साथ पिक्चर देखी बीच में एक बहुत ही भावुक सिन था सविता ने मेरा हाथ पकड़ लिया।

एक तो ये रोमांटिक फ़िल्म और दूसरा पहली बार किसी नारी ने इतने प्रेम से मेरा हाथ पकड़ा था। मैं तो भावविभोर था उन पलों में एक बार भी मुझे चारु का ख्याल नहीं आया।

फ़िल्म देखने के बाद साथ खाना खाया, फिर पार्क के कोने वाले बेंच पर उसका हाथ थामे बैठा था। उसने अपना सिर मेरे कंधे में रख दिया।

रात को जहाँ मैं मुँह लटकाए घर आता था वहीं मैं गुनगुना रहा था। चारु ने भी मुझे एक बार भी किसी काम के लिए नहीं टोका। रात को वो बड़े कोमल स्वर में मुझसे बोली "ऑफिस में आजकल बहुत काम होता है क्या"? " हाँ आजकल काम ज्यादा ही हो रहा है थोड़े ज्यादा पैसे तुम्हें दे पाऊँ इसलिए ओवर टाइम करता हूँ।" "कोई जरुरत नहीं इतना काम करने की कम खर्च में चलना मुझे आता है, कल से पाँच बजे ही ऑफिस से निकल जाना। मैंने कहा "देखता हूँ अभी बहुत काम ले लिया है सिर पर खत्म करना भी तो जरूरी है।" वो मुझसे लिपटकर सो गई। मैं रातभर सोचता रहा.. ये अच्छी है या बुरी ! जब मैं इसके साथ वक़्त बिताना चाहता था तो इसके मुँह से दो मीठे बोल के लिए तरस गया और आज ये खुद...कहीं इसे मुझपर शक तो नहीं ! मैं डरकर काँप उठा। क्या होगा अगर इसे पता चल गया मेरे और सविता के रिश्ते के बारे में... ये तो घर से ऑफिस तक मुझे बदनाम कर देगी। इसके गुस्से का कोई भरोसा नहीं कहीं सबके सामने हाथ न उठा दे फिर क्या इज्जत रह जायेगी मेरी मैं तो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाऊंगा। मैं सोचकर ही इतना डर गया कि वो मुझे बगल में लिपटी नागिन लगने लगी जो किसी भी पल मुझे डस सकती थी। मैंने डरकर उसे दूर किया और दूसरी ओर मुँह करके सो गया।

दूसरे दिन जब सविता मुझे मिली तो बहुत उदास थी। मैंने पूछा तो कहने लगी " कब तक किराए के घर में रहूँगी एक जमीन देखी है सात लाख की मेरे पास कुल मिलाकर दो लाख ही हैं अगर बाकी तुम मदद कर देते तो... जमीन के साथ-साथ मैं भी तो तुम्हारी ही रहूँगी न?"

"वो तो ठीक है सविता पर मेरे पास इतने पैसे नहीं, बीस हज़ार की नोकरी में तुम तो समझ ही सकती हो घर कैसे चलता होगा इस शहर में.. कुछ दिन इंतजार क्यूँ नहीं कर लेती?"

"पहली बार कुछ माँगा था और मना कर दिया.. बस टाइम पास समझ के रखा था न मुझे, घर में बीबी और बाहर मैं... बहुत गलत सोच है तुम्हारी, तुम चाहते तो दे सकते थे जानती हूँ गांव में बहुत जमीन है तुम्हारी!"

"हाँ है पर वो चारु कभी मुझे बेचने न देगी... वो तो पुरखों की निशानी मानती है उसे।"

"मैं कुछ नहीं जनती कैसे भी करके मुझे पैसे दो नहीं तो मैं ये सारी तस्वीरें तुम्हारे घर भेज दूँगी... अगर तुम मेरे नहीं तो मैं क्यों बनी रहूं तुम्हारी !" कहकर सविता ने ऑफिस , पार्क, थियेटर की कई तस्वीरें सामने पटक दी किसी में मैं उसका थामे था तो किसी में उसका सिर मेरे कंधों में। मैं अवाक सा बैठा था वो आगे बोली "इन तस्वीरों के साथ एक चिट्ठी भी डाल दूँगी की कैसे तुमने मेरे घर में रात बिताई है।" "पर मैंने तो आजतक बस तुम्हारा हाथ ही पकड़ा है।" मैं डरकर बोला।

"ये बस हमदोनों जानते हैं चारु नहीं।" कहकर वो हँसती हुई चली गयी।

अब जान देने के सिवा कोई चारा नहीं सोचता हुआ मैं घर की ओर बढ़ रहा था। एक आखरी रात बिट्टू और चारु के साथ बिता लेता हूँ सुबह जो निकलूंगा तो फिर वापस न लौटूँगा। चारु के हाथों मरने से अच्छा है चुपचाप मर जाऊँ।

मैं घर पहुँचा, मन बहुत उदास था खाना भी नहीं खा पाया बस बिट्टू को सीने से लगाये बैठा रहा। चारु भी न जाने क्यों आजकल मुझे किसी बात के नहीं कोसती। आज ऐसा लग रहा था वो मुझे खूब खरी-खोटी सुनाए चाहे तो मुझे दरवाजा बंद कर के खूब पीटे...न जाने क्यों आज भी सबके सामने मार खाने से डर रहा था मैं।

रात बीत रही थी बिट्टू भी सो चुका था मैं आंखें खोले घर्र-घर्र करते पंखें को एकटक देख रहा था। मुझे लगा था चारु सो गई है।

"सविता से झगड़ा हो गया है क्या इतने उदास हो?" वो मुँह फेरकर बोली।

मुझे लगा अभी मेरा दिल उछल कर हाथ में आ जायेगा इतना डर गया मैं। लाख कोशिश के बाद भी आवाज नहीं निकल रही थी।

"कुँवारी है न वो, साथ रहना चाहते हो क्या?" वो बोली।

"नहीं तो ऐसा क्यों बोल रही हो?" मैंने मरी हुई आवाज में पूछा।

"तुम्हें ऐसे नहीं देख सकती मैं, तुम्हारी खुशी के लिए तुम्हें छोड़ भी सकती हूँ... इतना डरने की जरूरत ना है मुझसे, खा नहीं जाऊँगी"

"अगर इतना प्यार करती हो तो कभी दिखाया क्यूँ नहीं, क्यों कभी मेरी भावनाओं की कद्र नहीं करती... तुम्हें पता है कितना दुखी रहता था मैं, आज जो भी हुआ उसकी जिम्मेदार तुम हो! मैंने तो सदा तुम्हें खुश रखने की कोशिश ही की है।" मैं रोते- रोते बोला । मैं चाहता था उसे मुझपर दया आ जाये।

"जानती हूँ सारी गलती मेरी ही है। " उसने आसानी से मान लिया। "बचपन से सदा अपने पिता को माँ को दबाते हुए ही देखा था, उनकी हर छोटी सी छोटी गलती पर वो उन्हें मारते-पीटते थे। माँ हमेशा डरी- सहमी रहती थी। मैं माँ पर गुस्सा करती तुम चुपचाप क्यों सहती हो तो कहती पहली बार ही गलती कर दी थी जो इन्हें रोका नहीं था नहीं तो आज ये मेरे साथ ऐसा कभी नहीं कर पाते।

मैंने सोचा लिया था जो मेरे घर में होता था वो अपने घर में नहीं होने दूँगी इसलिए बहुत प्यार करते हुए भी कभी जताया नहीं तुम्हें। पर जब तक मुझे मेरी गलती समझ आयी तुम दूर जा चुके थे। मैं बिट्टू को लेकर पार्क गयी थी वहीं देखा था उसे.. तुम्हारे कंधे पर सिर रखे बैठी थी। बाद में पता की तो पता चला तुम्हारे ऑफिस में ही काम करती है।

"मुझे माँफ कर दो चारु ।" मैं हाथ जोड़ कर रोता हुआ बोला।

"क्या चाहते हो, जो चाहोगे वही होगा।"

"मैं तो कल भी तुम्हें ही और आज भी... वो मुझे ब्लैकमेल कर रही है।" कहकर मैंने उसे सारी बात बता दी।

"जब बोल दिया कि जो तुम चाहते हो वही होगा तो वो होती कौन है डराने वाली, कल से उसकी हिम्मत नहीं होगी तुम्हें आँख उठाकर देखने की।" चलो अब आराम से सो जाओ।

"तुम क्या करने वाली हो?"

"ये जान कर क्या करोगे और दुबारा किसी की ओर देखा तो...!" वो आँखें दिखाकर बोली।

"तुम नहीं बदल सकती अब भी डांट रही हो देखो... तुम प्यार करोगी तो कसम खाता हूँ किसी को नहीं देखूंगा।"

"कल घर में रहकर बिट्टू का ख्याल रखना, मुझे कहीं जाना है कहकर उसने मुझे गले से लगा लिया। आज उसकी बाहों से ज्यादा सुकून मुझे जन्नत मिल जाने से भी नहीं मिलता। जिंदगी की सबसे मीठी नींद थी जो उस रात मैंने ली थी।

सुबह उठा तो वो जा चुकी थी। न जाने कहाँ गयी सोच कर मैं डर रहा था। दो घण्टे बाद वो लौट के आई और बोली " अब तुम्हें कोई परेशान ना करेगा।"

"क्या किया तुमने?"

"करना क्या था बाल पकड़ कर घसीटते हुए पुलिस थाने ले जाने लगी तो मेरे पैर पकड़ लिए रो-रो कर कहने लगी मुझे बदनाम न करो मैं कल ही शहर छोड़ कर चली जाऊँगी... अब जब चली ही जाएगी तो हमें क्या! मैं वापस आ गयी।" वो आराम से बोली।

मुझे पहली बार ऐसी खरतनाक बीबी मिलने पर गर्व हो रहा था। मैंने भगवान को ढ़ेर सारा धन्यवाद दिया और अपनी चारुलता को गले से लगा लिया



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