जादुई दुनिया
जादुई दुनिया
"तुम हमेशा ऐसी ही रहती हो क्या... उदास ! खोयी-खोयी सी?" राज ने पूछा।
"उम्म...नहीं तो !" दिया जैसे होश में आई।
"देखो दिया अभी भी पूरे बारह दिन बचे हैं हमारी शादी में, अगर तुम इस शादी से खुश नहीं हो तो अब भी बता दो।"
"ऐसी बात नहीं है राज, मैं तो खुद को खुशकिस्मत समझती हूँ जो तुम्हारे जैसा जीवनसाथी मिलने वाला है !"
राज की दुविधा मिट गई और उसे फिर से दिया पर प्यार आने लगा। वो उसकी आँखों में देखकर बोला
"जीवनसाथी का अर्थ जानती हो.. वो जीवन भर साथ ही नहीं रहते बल्कि अब उनका हर दुख-दर्द भी साझा होता है। क्या मैं इस लायक नहीं कि तुम्हारी तकलीफ़ बांट सकूँ?"
दिया की आंखें भर आयी। अब उसका दिल भी यही कहता था कि उसका हर दुख-सुख अब राज का भी है। बहुत सोच कर वो बोली
"राज क्या तुम मेरे साथ वीरपुर चल सकते हो? मैं कब से वहाँ जाना चाहती हूँ पर वो इतनी दूर है कि अकेले जाने की हिम्मत नहीं जुटा पायी।"
"क्या काम है वहाँ? और घरवाले हमें साथ जाने की इजाज़त देंगे?"
"काम मैं तुम्हें रास्ते में बताऊंगी। तुम्हारे साथ कहूँगी तो जाने नहीं देंगे लेकिन किसी सहेली के घर कहकर मैं तीन दिन के लिए घर से दूर जा सकती हूँ।"
"ऐसा है तो मुझे कोई परेशानी नहीं मैं तो ऑफिस के काम से बाहर जाता रहता हूँ।" राज ने कहा।
दूसरे दिन घर के कुछ दूरी से राज ने दिया को अपनी कार में बिठाया और दोनों वीरपुर के लिए निकल पड़े। राज इंतजार कर रहा था वहाँ जाने के कारण को जानने का, उसे ख़ामोश देख दिया बोली
"मैं भी उस गांव के बारे में कुछ नहीं जानती राज बस इतना कि वहाँ कोई शांति है जो पिछले दस सालों से मेरे घर की शांति हर गयी है ! तुम नहीं जनाते राज पूरे दस साल हो गए मेरे मम्मी-पापा आपस में बात नहीं करते दोनों के बीच एक माध्यम मैं ही हूँ अगर उन्हें एक दूसरे से कुछ कहना होता है तो वो मेरा सहारा ही लेते हैं। मुझे डर है अब जब मैं चली जाऊँगी तो वो साथ रहेंगे भी या नहीं !" दिया उदास स्वर में बोली।
"पर ऐसा क्यों कोई तो कारण होगा न?" राज अचरज से बोला।
"तब मैं बहुत छोटी थी ज्यादा कुछ समझ नहीं आता था पर इतना जरूर समझती थी कि एक बार पापा कहीं गए थे जिससे मम्मी बहुत नाराज हुई उस दिन के बाद जब भी वो मम्मी से बात करने के लिए जाते वो उन्हें झिड़क देती थी और कहती मेरे पास आने की जरूरत नहीं है वीरपुर चले जाओ अब वहीं तुम्हें शांति मिलेगी।"
उन्हें वीरपुर पहुँचते हुए उन्हें शाम हो गयी। ये एक छोटा सा गाँव था जिसमें बस पंद्रह-बीस घर ही होंगे। राज चिंतित था इस छोटे से गाँव में वो रात कहाँ बिताएंगे। अभी वो लोग गाड़ी खड़ी कर उस गाँव को देख ही रहे थे कि एक ग्रामीण अपनी मवेशियों को हाँकता हुआ उधर आया उसे देखते ही दिया ने पूछा
"बाबा ये शांति का घर किधर है?"
वो उन्हें आश्चर्य से देखने लगा कभी उन्हें देखता कभी उनकी गाड़ी। उसे देख राज ने फिर से पूछा
"यहाँ कितनी शांति रहती है?"
"शांति तो एक ही है लेकिन क्या तुम लोग उससे ही मिलने आये हो?"
"हाँ उसी से, उनका घर कहाँ है?" दिया अधीरता से बोली।
उसने उँगली उठा कर एक ओर इशारा किया और बोला
"वो पपीते का पेड़ देख रहे हो न उसी घर में रहती है पर वो किसी से नहीं मिलती उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं है।"
"क्या यहाँ रात को रुकने के लिए कहीं जगह मिलेगी?" राज ने उससे पूछा।
"ये तो गाँव है... आपके रहने लायक मुखिया का घर छोड़ और कोई जगह नहीं...पर मैं देख रहा हूँ आपके साथ लकड़ी भी है और रात भी होने वाली है अगर वहाँ जगह न मिली तो ये सामने वाला घर मेरा है अगर रूकना चाहो तो बरामदे में दो खाट डाल दूँगा।" वो बोला।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। कम से कम सर छुपाने के लिए छत तो मिल जाएगी। वो मुखिया के घर का रास्ता बता कर चला गया।
दोनों शांति के घर पहुँचे। दरवाजे के सामने गाड़ी खड़ी कर दरवाजे की ओर बड़े तो पूजा की घण्टी और आरती की आवाज आ रही थी।
"वो तो कह रहा था इसकी दिमागी हालत ठीक नहीं है पर ये तो संध्या पूजन कर रही है।" दिया हैरानी से बोली।
उन्होंने पूजा खत्म होने पर दरवाजे को खटखटाया।
एक चालीस-पैंतालीस साल की औरत ने दरवाजा खोला और उन्हें देखकर बोली
"कौन हो?"
"मैं दिया और ये राज !"
"काम?"
"आपसे मिलना था।"
"मुझे किसी से नहीं मिलना जाओ यहाँ से।" कहकर उसने उनके मुंह पर ही दरवाजा बंद कर दिया।
"देखा वो कहता था न पागल है।" राज धीरे से बोला।
"इतना सुंदर चेहरा, सलीके से पहनी साफ-सुथरी साड़ी... ये कौन से एंगल से पागल लगी तुम्हें?"
"अब क्या करें?"
"एक बार और देखती हूँ।" कहकर उसने फिर से दरवाजा पीटा।
उसने गुस्से से दरवाजा खोला बोली
"दरवाजा क्यूँ पिट रहे हो अंदर मेरा भाई सोया है न, जाग जाएगा।"
"मैं बिल्कुल आवाज नहीं करूँगी, मैं तेजनारायण की बेटी हूँ क्या आप उन्हें जानती हैं?"
वो उसे आश्चर्य से देखने लगी और बोली
"तेज की बेटी ! वो सोनपुर वाला तेज?"
"हाँ वही।"
वो हाथ पकड़ कर अंदर ले गयी और खाट पर धुली साफ चादर बिछा कर उन्हें प्यार से बिठाया। कुछ ही देर में वो उनके लिए चाय-नाश्ता भी ले आईं। पहले उनको दिया फिर अपने भाई को देकर वो उनके पास आकर बैठ गयी।
"क्या वो उठ गए?" दिया ने पूछा।
"अभी नहीं पर उठते ही उसे चाय चाहिए। अच्छा ये छोड़ो तुम पहले मुझे बताओ तेज कैसा है? उसकी घरवाली?" उसने बड़े प्यार से पूछा।
"सब अच्छे हैं मासी।" जब दिया ने उसे मासी कहा तो उसने प्यार से उसके माथे को चूम लिया।
"मासी आप पापा को कब से जानती हैं?"
"हम साथ ही पढ़ते थे बेटा सोनपुर में। वहां मेरा नाना घर है। माँ-बाप एक बस हादसे के शिकार हो गए उसके बाद मैं अपने भाई के साथ वहीं रहती थी। पर नानाजी के देहांत के बाद मामा-मामी के सिर का बोझ बन गए तो उन्होंने चोरी का इल्ज़ाम लगा कर हमें घर से निकाल दिया। तब हम अपने इस गाँव में लौट आए। घर-द्वार तो सब गिरा पड़ा था वो तेज ने आकर...!" वो कहते-कहते रुक गयी।
कुछ देर बाद वो रात की रसोई करने चली गयी।
" बुरा मत मानना दिया पर मुझे लगता है दोनों के बीच कोई गलत रिश्ता रहा होगा जिसे शायद तुम्हारी मम्मी जान गई इसलिए वो नाराज रहती हैं।" राज ने धीरे से फुसफुसाकर कहा।
दिया चुप थी वो भी समझ रही थी पर इस बारे में बात कैसे करे और बात करके भी क्या?"
परिचय के बाद वो राज को दामाद जी कहकर बुलाने लगी। रात को कहीं भी जाने देने से उसने इनकार कर दिया, दो अलग-अलग कमरों में बिस्तर बिछा दी और खुद अपने भाई के ही कमरे में सो जायेगी बोली।
रात को दिया उदास थी यहाँ आकर भी कुछ नहीं हुआ। वो सोच रही थी सुबह ही लौट जाएगी। रात बीत रही थी पर उसे नींद ही नहीं आ रही थी तभी किसी ने उसके ऊपर हाथ रखा। वो डरकर पलटी तो देखा शांति मुस्कुरा रही थी।
"आप?"
"मैं तुम्हारे साथ सो जाऊँ... तुम्हें भी नींद नहीं आ रही और मुझे भी।"
"हाँ.. हाँ.. क्यूँ नहीं।" दिया खुश होकर बोली। उसे लगा इससे वो उससे कुछ बातें भी कर सकेगी।
"तेज कैसा है ?" वो लेटते ही एक ठंडी आवाज में बोली।
"वो अच्छे हैं।"
"तुम मुझसे मिलने कैसे आ गयी ! वहाँ सब ठीक है न तुम्हारी माँ?"
"वो भी अच्छी है... उनसे पूछकर ही यहाँ आयी हूँ।" दिया ने झूठ बोला।
"सच्ची ! दस साल हो गए ! कोई खबर नहीं मुझे तो लगा था अब इस जन्म में उसकी कोई खबर नहीं मिलेगी।"
"आप पापा से बहुत प्रेम करती थी न?" दिया ने अचानक ही पूछ लिया।
"ऐसा तो कुछ नहीं बस हम अच्छे दोस्त थे।" वो थोड़ा असहज होकर बोली जिसे दिया समझ गयी।
"मुझे माँ ने आपके बारे में सब बता है।"
" अच्छा ! लगता है तेज ने उसे सब बता दिया लेकिन कैसे क्या वो जनता है?"
दिया कुछ नहीं बोली बस उनके आगे कहने का इंतजार करती रही।
" अपने बाबा को कभी गलत ना समझना बेटा... उसकी कोई गलती नहीं। सच कहूं तो प्रेम या क्या था मैं खुद नहीं जानती पर जो उससे था वो किसी और से न हुआ।"
कहकर वो गंभीर हो गयी।
"आप लोग अलग कैसे हो गए?"
"अरे जब कभी जुड़े ही नहीं तो अलग क्या होना ! या ऐसे जुड़े की अलग ही नहीं।"
"मैं कुछ समझी नहीं।"
"जब हम ही न समझे तो तू क्या समझेगी बिटिया। कच्ची उम्र में जुड़ा रिश्ता था कच्चा सा ही ...उसे प्यार से अधिक दया आती थी मुझपर।
एक दिन कक्षा में शिक्षक ने मुझे हाथ आगे करने को कहा जब मैंने हाथ आगे किया तो मेरे हाथ में पहले से फफोले थे। उनकी तो नजर नहीं पड़ी उसपर पर तेज ने देख लिया। मार खाने के बाद भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा था मैं तो आदि हो चुकी थी इसकी पर वो कोमल दिल का मालिक तड़प उठा। स्कूल के बाद उसने मुझे घर से बाहर बुलाया और मेरे हाथ में दवा लगा दी।
"तू इतना क्या काम करती है जो हाथ में फफोले हैं।" उसने पूछा।
"गर्म दूध गिर गया था।" मैं बोली
"ख्याल रख अपना!" कहकर वो चला गया।
उसने भले ये मुझपर दया करके ही किया था पर इस तरह मेरा ख्याल रखने वाला मेरे भाई को छोड़ और मेरा कोई नहीं था।
उसके बाद मैं हर जगह उसके पीछे फिरती थी, स्कूल, गाँव .. हाट हर जगह।
धीरे-धीरे हमारी दोस्ती गहरी हो गयी।
घर में जब भी कुछ अच्छा बनता मैं उसके लिए थोड़ा छिपा लेती।
हम दिन भर में कम से कम एक बार जरूर मिलते थे न मिल पाते तो किसी काम में मन न लगता।
एक दिन मैंने हाट में देखा वो दूसरे गाँव की एक सुंदर सी लड़की पर नजरें गड़ाए था। मैं उसके पास गई बोली
"तेज पसंद आ गयी क्या?"
"ऐ शांति इसे पहले तो कभी नहीं देखा पता कर न कौन है।" वो बोला।
"कहो तो शादी ही पक्की कर आऊँ।" मैंने भी मजाक में कह दिया।
कुछ देर में वो चली गयी पर तेज को उदास कर गयी।
"जा मुझसे बात मत कर... लड़की होकर एक लड़की से बात न कर सकी।" कहकर वो गुस्से से चला गया।
मैं नहीं समझ पायी थी वो सच में उसे इतना पसंद आ गयी है। तेज की नाराजगी मेरा चैन ले जाती थी। मैं घर न जाकर उसके तलाश में निकल गयी। बड़ी मुश्किल से उससे दोस्ती की और दूसरे दिन उसे अपने साथ अपने गांव भी ले आयी। वो शहर से आई थी अपने किसी रिश्तेदार के घर शादी में।
मैंने तेज और उसकी दोस्ती कराई। जितना कर सकती थी उससे भी अधिक उसके सामने तेज की तारीफ़ करती थी जिसका असर ये हुआ कि दो दिन में ही उसे तेज भा गया। दोनों के बीच चिट्ठी- पत्री का माध्यम मैं ही बनी थी मैं दोनों ओर से राजदार थी। दोनों ने मिलकर कितने ही कसमें-वादे खाये पर शादी खत्म हुई और वो चली गयी। फिर दोनों के बीच कोई सम्पर्क न रहा। तेज उसकी जुदाई में आंसू बहाता और रोने के लिए मैं उसे अपना कंधा देती थी। तुम समझ सकती हो कैसा रिश्ता था अपना। उन दिनों मैंने उसका बहुत खयाल रखा।
इस तरह धीरे-धीरे बचपन की देहरी लाँघ हमने जवानी में कदम रखा। दुनिया जहान के सामने मैं एक डरी सहमी सी लड़की थी पर तेज के सामने बिल्कुल अल्हड़ झल्ली।
तेज की नौकरी के लिए मैंने पूरे छः महीने व्रत रखा था। अपनी पहली तनख्वाह से उसने सबसे पहले मेरे लिए ही साड़ी ली थी।
नौकरी के बाद घर में उसकी शादी की बात चलने लगी। जब भी कोई तस्वीर आती वो छुपा कर लाता और मुझसे पूछता
"कैसी है?"
"बेकार!" मैं कहती।
उसने मुझे पाँच लड़कियों की तस्वीर दिखाई और मैंने सबको बेकार कह दिया।
उसके बाद एक दिन वो बोला
"देख आज तू इसे बेकार नहीं बोल पाएगी।"
"वो बचपन वाली मिल गयी क्या?" मैंने मजाक किया।
"नहीं रे ये तो उससे भी अच्छी है।"
जब उसने कहा तो मैं खुद को रोक न पायी और भागकर वो तस्वीर छीन ली। मेरा दिल धक से रह गया ! वो मेरी तस्वीर थी।
"अब बोल बेकार ! अरे चुप क्यों है अब बोल न बेकार।"
"आज तू बता न कैसी है?" मैंने अपने दिल को संभालते हुए पूछा।
"सबसे अच्छी... इसके जैसी कोई हो ही नहीं सकती, भगवान ने एक ही पीस बनाई और बनाना भूल गए।"
कहकर वो तो चला गया लेकिन मुझे अशांत कर गया। मैं सोचने लगी क्या ये संभव है? क्या सच में तेज मुझे पसंद करता है? मेरे मन ने कहा क्यूँ नहीं संभव है कहीं तो उसकी शादी होनी है न फिर तुझसे क्यों नहीं? और क्या पता कल जिससे उसकी शादी हो वो तुम दोनों को मिलने ही न दे! इस ख्याल से भी मैं काँप गयी। मैंने तय कर लिया मैं दूसरे दिन ही उससे बात करुँगी।
उस दिन मैंने पहली बार खुद को गौर से आईने में देखा था तेज कहता है ऐसी कोई नहीं हो सकती आखिर ऐसा क्या है मुझमें खुद को देखते हुए मैं सोचने लगी। उस दिन मैंने मन से श्रृंगार किया था। वही साड़ी पहनी जो तेज ने मुझे दी थी और उससे मिलने निकली। जाने कितनी तैयारी की थी मैंने मन ही मन ये कहूँगी वो कहूँगी पर उसे देखते ही सब भूल गयी।
"क्या बात है शांति आज तो जो भी तुम्हें देख लेगा उसकी शांति हर जाएगी।" उसने मजाक में ही मेरी तारीफ़ की।
"तुम तो सही सलामत हो।" मैंने भी मजाक में कहा।
"हाँ इसलिए क्योंकि मेरी शांति किसी और ने हर ली है !"
"किसने?"
"देख बेकार मत बोलना नहीं तो बहुत मारूंगा।"
"नहीं बोलूँगी दिखा तो !" मुझे लग रहा था वो मेरी ही तस्वीर लेकर मुझसे मजाक कर रहा है। पर जब देखी तो मेरे पाँव डगमगा गए। वो कोई और थी। मैंने खुद को संभाला और मुस्कराती हुई बोली
"ये अच्छी है।"
"हे भगवान तुझे कोई पसंद तो आई। चल मैं चलता हूँ घर जाकर हाँ भी तो कहनी है न।"
वो चला गया....!
उसकी शादी में मैं हर वक़्त उसके साथ रही। जब दुल्हन घर आई तो उसे सजाने की जिम्मेदारी भी उसने मेरे ऊपर डाल दी। हँसते हुए मैंने सब स्वीकार किया। उसकी खुशी में ही मेरी खुशी थी। और अपने नसीब को तो मैं बचपन से जानती थी वो इतना अच्छा कैसे हो सकता था !
वो किसी और का हो चुका था। कुछ महीनों बाद उसका ट्रांसफर हो गया और वो दूसरे शहर चला गया।
मुझे याद नहीं मैं कैसी थी उसके बाद ! अच्छी थी बुरी थी मैं नहीं जानती। पर ऐसा लगता है वो कोई और दुनिया थी एक जादुई दुनिया ! घने बरगद के नीचे एक नदी का किनारा था जहाँ बहुत सारे खुशबूदार फूल थे और उन फूलों पर मंडराती अनगिनत रंग-बिरंगी तितलियां। पास ही कोई पहाड़ था शायद, जहाँ से किसी झरने की आवाज आती थी। बरगद के तने से बंधा एक फूलों का झुला था। और वहीं नीचे बिछी थी फूलों की सेज।
वो हमारी दुनिया थी मेरे और तेज की दुनिया। वो मेरा फूलों से श्रृंगार करता। मेरे माथे को , बालों को , गले को ... मेरे पूरे देह को वो रंग बिरंगे फूलों से सजाता। मैं आँखे बंद करती तो वो होंठ रख देता। वो मुझे बहुत प्यार करता... इतना जितना कभी किसी ने किसी से नहीं किया। सब तो अलग होते हैं न हम तो एक पल के लिए भी अलग नहीं होते थे। हम एक थे बस एक !
मैं चिढ़ जाती जब वहाँ से कोई मुझे बुलाता। मैं डरती थी तेज के खो जाने से। एक पल के लिए भी उसे अपने पलकों से दूर नहीं जाने देती।
पर ये दुनिया वाले मेरे दुश्मन ! मुझे पागल-पागल बोल मेरी जादुई दुनिया को भस्म कर देना चाहते थे।
मुझे घर से निकाल दिया। मैं अपने भाई के साथ रास्ते में आ गयी, कुछ पल के लिए तो मेरा भाई भी भटक गया था मुझसे । लोगों ने कहा कब तक पगली के साथ रहता चला गया ! पर मैंने उसे फिर से पा लिया। जाने कैसे तेज को पता चल गया वो आया और मेरे इस घर को सजा कर वापस चला गया। जाते ही मैंने फिर से उसे वहाँ बुला लिया। अब यहाँ मुझे कोई परेशान नहीं करता। दिन के तीनों पहर बस भाई के खान-पान की ही जिम्मेदारी है। उसे खिलाकर खुद खाती हूँ और फिर खो जाती हूँ अपनी उस जादुई दुनिया में। ये पागल दुनिया वाले समझते ही नहीं मुझे ही पागल कहते हैं !" कहकर वो चुप हो गयी।
"मैं समझती हूँ मासी... पर आप मुझसे नाराज तो नहीं न, मैंने आपको आपकी दुनिया से बाहर लाया।"
"अरे रानी बिटिया... तू तो मेरी बिटिया है न। तू जितना कहे उतना वक़्त दूँगी तुझे तू चिंता न कर मैं तेज को समझा दूँगी। अब तू सो जा मैं भाई से मिल के आती हूँ... क्या करूँ मुझे कभी नींद ही नहीं आती।" कहकर वो दूसरे कमरे में चली गयी।
सुबह ही दिया ने वहाँ से निकलने की सोची। शांति चाहती थी वो और रुके पर उसने कहा वो एक दिन के लिए ही घर में कहकर आयी है।
दूसरे दिन सुबह बाहर राज कार को झाड़ कर साफ कर रहा था।
वो निकलने वाली थी कि उसे याद आया बोली
"एक बार आपके भाई से मिल लूँ।"
"हाँ..हाँ क्यूँ नहीं आओ न।" वो कमरे तक लेकर गयी।
"पर यहाँ तो कोई नहीं है?"
"ओह्ह मैं तो बताना ही भूल गयी उस दिन जो खोया था न उसके बाद यहाँ मिलता ही नहीं एक और जादुई दुनिया है राखियों से भरी... तरह..तरह की राखी! सजी हुई थाली। जहाँ मैं उसकी आरती उतारती हूँ राखी बांधती हूँ... उसे पकवानों का बहुत शौक था पर मामी देती ही नहीं थी। मेरी दुनिया में मनचाही मिलती है। जो चाहो हाथ बढ़ा कर ले लो....।"
दिया ने गले लगा लिया और बोली
"मैं चलती हूँ मासी आपको आपकी दुनिया में छोड़कर पर वादा करती हूँ मिलने जरूर आऊँगी।"
कहकर वो वहां से निकली और दोनों कार में बैठ गए चलते समय वो चिल्लायी
"मैं बुलाऊंगी मेरी दुनिया में जरूर आना बिटिया।"
दिया ने हाँ में सिर हिलाया और वहाँ से निकल गए।
रास्ते में राज बोला
"इसकी दिमागी हालत खराब तो नहीं लगी फिर वो ग्रामीण ऐसा क्यों बोल रहा था?"
"क्योंकि उसने कभी कोई जादुई दुनिया सजाई ही नहीं! घर जाकर माँ को बहुत कुछ समझाना है राज चलो जल्दी चलते हैं।"
अब वो जल्दी घर लौटना चाहती थी।

