अनुपमा
अनुपमा
इस घर में आये मुझे दस दिन ही हुए थे पर इस परिवार से मैं ऐसे मिल गया था जैसे जाने कब से मैं इन सबको जनता हूँ। मेरा दोस्त विनीत, उसके माता-पिता, छोटी बहन सिम्मी, कांता बुआ इन सबको तो मैं बहुत अच्छी तरह जानने-समझने लगा था बस नहीं जान पाया था तो उसे... जो हर पल खामोशी की चादर लपेटे, चेहरे से हर भाव मिटा जाने क्यों नजरें चुराती रहती थी। भले उसके होंठ सिले हुए थे पर हाथ-पैर मशीन की तरह हमेशा चलते रहते थे। सारा दिन घर के किसी न किसी काम में लगी रहती थी। विनीत के बड़े भाई की धर्मपत्नी थी वो 'अनुपमा'। न जाने क्यों जब भी मेरी नजर उसपर पड़ती उसके बारे में और जानने की इच्छा होती थी कुछ तो था उसमें जो मुझे न चाहते हुए भी अपनी ओर खींचता था।
इस गाँव के स्कूल में मेरी पहली पोस्टिंग थी। यहाँ अपने रहने के लिए जगह तलाश रहा था जब कोई अच्छी जगह मिली ही नहीं तो विनीत ने अपने घर में आँगन के पीछे का दो कमरा मुझे दिखया जो उसके इतने बड़े घर में ऐसे ही खाली पड़ा था। मुझे जगह पसंद आ गयी और नई जगह में एक दोस्त के घर परिवार की तरह रहने से अच्छा भला क्या हो सकता है यही सोच अपने सामान के साथ मैं रहने आ गया था।
सोचा तो था कि अपनी रसोई खुद तैयार करूँगा पर विनीत की माँ जिसे मैं मासी कहता था वो ज़िद पर अड़ गई बोली जहाँ इतने लोगों का खाना बनता है वहाँ एक और बन जायेगा तो क्या हो जाएगा। उनकी जिद के आगे मैं ये सोच कर हार गया कि किराया ही बढ़ाकर दे दूँगा।
वो रविवार का दिन था मेरी छुट्टी थी सो सुबह-सुबह बरामदे पर खाट डालकर आराम से पेपर लेकर बैठ गया। मेरे लिए रोज सुबह की चाय लेकर सिम्मी ही आती थी। मैं पेपर पर नजरें गड़ाए बैठा था वो धीरे से आई पास रखा स्टूल खिंचा और उसपर चाय रखकर जाने लगी। सिम्मी की आदत थी आते ही गुड मॉर्निंग भैया कहने की, आज चुप क्यों जब मैंने देखा तो वो अनुपमा थी।
"आज आप ? गुड मॉर्निंग । कैसी हैं?" मैंने पूरे जोश से पूछा।
"सिम्मी अपने मामाजी के घर गयी है।" कहकर वो चली गयी।
बस इतना सा ही जबाब ! मैं सोचता रहा।
अब मैं वहाँ बैठा जरूर था मेरे हाथ में पेपर भी था पर मेरा पूरा ध्यान अनुपमा पर ही था। मुझे याद आया,एक दिन मैंने सिम्मी से पूछा था
"ये कभी हँसती नहीं क्या?"
"पहले हँसती थी, खुश भी रहती थी पर जब से भैया गए...!"
वो चुप हो गयी तो मैंने भी इस बारे में ज्यादा पूछना उचित नहीं समझा।
"वैसे अनुपमा खाना बहुत अच्छा बनाती है।" मैंने बात बदलते हुए कहा।
"भाभी को नाम से क्यों बुलाते हो अमित भैया?" वो बोली।"
"उम्र में तो मुझसे भी छोटी ही लगती है, भाभी बुलाने का मन ही नहीं करता।"
मेरी बात सुनकर सिम्मी मुझे उसके बारे में बिना पूछे ही बताने लगी
" माता-पिता बचपन में ही एक दुर्घटना का शिकार हो गए थे... मामा-मामी के घर रहती थी। सुना है मामी बहुत अत्याचार करती थी इनपर उससे ही बचाने के लिए इनके मामाजी ने कम उम्र में ही शादी करा दी थी इनकी, इधर भैया की भी सब जल्दी शादी करा देना चाहते थे सो बात पक्की होने के हफ़्ते भर बाद ही दोनों की शादी हो गई...
मैं सिम्मी से उसके भैया की शादी जल्दी क्यूँ कराना चाहते थे पूछना चाहता था पर तभी बुआ ने सिम्मी को पुकारा और वो चली गयी।
मैंने देखा वो नहा कर आयी थी आँगन में तुलसी को जल देने भीगे बालों को तौलिए से कस रखा था। बादामी साड़ी, फ्रील वाला नीला ब्लाउज, हाथ में लाल चूड़ी, माँग में सिंदूर...चेहरे पर लटकती एक गीली लट...पर चेहरे पर वही सूनापन और हमेशा की तरह सिले हुए होंठ।
पूजा खत्म कर वो अपने कमरे में चली गयी कुछ देर बाद बाल बना कर निकली और रसोई घर में पहुँच गयी। पहले नाश्ता बनाना, फिर दोपहर का खाना सबको खिलाकर ..अपने काम निबटाकर करीब तीन बजे वो बुआ के साथ बैठी कपड़े पर कोई कढ़ाई करने में व्यस्त हो गयी।फिर शाम होते ही घर के कामों में लग गयी। रात को जब वो अपने कमरे की ओर जा रही थी तो मैंने देखा ग्यारह बज चुके थे।फिर सुबह पाँच बजे जग कर कल यही रूटीन दोहराएगी मैं सोच रहा था।
दूसरे दिन जब मैं दोपहर के खाने के लिए घर पहुँचा तो ऐसा लगा जैसे सब अभी एक जगह बैठकर कोई मातम मना रहे थे पर मुझे देखकर नकली मुस्कान सजा ली चेहरे पर। मैंने देखा अनुपमा नहीं थी वहाँ।
"आज बहु की तबियत ठीक नहीं तो रसोई न बन पाई कुछ रूखा-सूखा दे देने से काम चला लोगे क्या?" मासी बोली।
"जी कोई बात नहीं...। मैं बोलने वाला था कि "रसोई तैयार है" अनुपमा आकर बोली।
सब उसे ऐसे देखने लगे जैसे पता नहीं क्या हो गया हो पर वो आज भी वैसी ही थी तठस्थ।मैं अकेला ही खाना खा रहा था ऐसा लग रहा था जैसे कोई भी आज खाने के मूड में नहीं था।
"कोई बात है क्या बुआ सब उदास लग रहे हैं?" बुआ को अकेला देख कर मैंने पूछा।
"अरे ना तो बस ऐसे ही...।" कहते हुए बुआ ने बात बदल दी।
खाना खाते हुए एक नजर मैंने अनुपमा पर डाली उसकी आँखें लाल थी ऐसा लग रहा था जैसे बहुत रो चुकी हो।कई दिनों तक अनुपमा का वो उदास चेहरा मेरे मन में घूमता रहा।
एक दिन स्कूल के बाद जब लौटा तो देखा घर में सब एक संन्यासी को घेरे बैठे थे। मासी तरह-तरह का पकवान उसे अपने हाथों से खिला रही थी। मैंने औपचारिकता बस उन्हें प्रमाण किया और अपने कमरे की ओर बढ़ गया। रात को मैं सबके साथ ही खाना खाता था पर आज बुआ मेरा खाना मेरे कमरे में ही पहुँचा गयी। रात करीब एक बजे मेरी नींद खुली। मेरे कमरे के पीछे से रोने की आवाज आ रही थी। जब वहां पहुँचा तो देखा मासी और अनुपमा साथ थी। न जाने क्यों मैं एक पेड़ के पीछे छुपकर उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगा।
अनुपमा रोती जा रही थी
"कब तक ऐसे यहाँ बैठी रहेगी अरे तुम्हें तो खुश होना चाहिए तुम्हारा पति लौट आया है और आज इस खुशी के दिन तुम रो-रो कर मनहूसियत फैला रही हो !!" मासी बोली।
"माँ आप से विनती करती हूँ आप जाईये यहाँ से... अगर संभव हो तो कोई और कमरा दे दीजिए मुझे नहीं तो यहीं कुँए के चबूतरे पर पड़ी रहूँगी। मर जाऊंगी पर उस कमरे में नहीं जाऊँगी।"
"तो मर यहीं।" उस ठंडी रात में उसे वैसे ही रोती छोड़ मासी चली गयी।
मैं खुद को रोक नहीं पाया और उसके पास पहुँचा
"आप मेरे कमरे में चली जाईये मैं विनीत के पास चला जाता हूँ, बाहर बहुत सर्दी है।"
मुझे देखकर वो अपना चेहरा छुपाने लगी ताकि मैं उसके आँसू न देख पाऊँ। मैं इंतजार करता रहा पर वो वहाँ से नहीं उठी। कुछ देर बाद वो खामोशी को तोड़ती हुई बोली
"मैं नहीं चाहती इस वक़्त यहाँ कोई आपको मेरे साथ देख ले, हाथ जोड़ती हूँ चले जाइये यहाँ से।"
मैं बिना कुछ कहे अपने कमरे में चला आया पर उस रात ने मुझे झकझोर कर रख दिया था।मैं जानता था दूसरे दिन सब मेरे सामने ऐसे पेश आएंगे जैसे कुछ हुआ ही न हो और मेरे जाते ही जाने क्या होगा इस घर में।
दूसरे दिन स्कूल में मेरा मन नहीं लग रहा था बार-बार उसका वो रोता हुआ चेहरा सामने आ जाता। मैं सोच रहा था आज आधे दिन की छुट्टी लेकर घर चला जाऊं तभी सिम्मी भागती हुई आयी और बोली
" भैया मुझे आपसे कुछ बहुत जरूरी बात करनी है।मैं उसके साथ बाहर निकल आया तो वो बोली
"भाभी...भाभी घर छोड़ कर जा रही है। घरवाले रोक रहे हैं पर वो आज किसी की मान ही नहीं रही। विनीत भैया भी घर पर नहीं हैं मुझे समझ ही नहीं आ रहा क्या करूँ? आप चलकर उनको समझाओ न।"
"मैं.... ?"
"देर मत करो जल्दी चलो।" ये कहकर सिम्मी भागने लगी।
"पर ये तो बता दो वो जा कहाँ रही है?
"उस दो बच्चों के बाप के पास, कहती हैं अब उसी के साथ रहेगी।"
"तू रुक यहाँ पहले पूरी बात बता।"
"आप बड़े भैया से मिले न ? उनकी शादी उनकी मर्जी के खिलाफ जबरदस्ती करायी गयी थी। वो बचपन से ही घर छोड़ जाने की बात करते थे पर तब कोई उनपर विश्वास नहीं करता था पर जैसे-जैसे बड़े होते गए वो साधु-सन्यासियों के साथ अपना वक़्त बिताने लगे। एक बार एक साधु का ऐसा संग किया कि पाँच दिन तक घर ही न लौटे। उन्हें घर से बांधे रखने का सबको एक ही रास्ता नजर आया।
जब वो वापस आये तो घर से दूर ले जाकर जबरदस्ती उनकी शादी करा दी गयी। सबको विश्वास था वो बदल जाएंगे पर तीन महीने बीत गए उन्होंने एक बार भी भाभी से बात नहीं की और एक दिन जब घर से बाहर गए तो फिर लौटे ही नहीं। बहुत खोजबीन के बाद भी उनका कुछ पता न चला। साल भर बाद किसी से सुनने में आया था कि वो साधु बन गए हैं।
लोगों के अनगिनत तानों से भाभी रोज गुजरती रही। समाज में सब यही कहने लगे थे कि जरूर इसी में कोई कमी होगा नहीं तो नई शादी के बाद कोई ऐसे अपनी ब्याहता को छोड़ कर भाग जाता है क्या?
इन सब से गुजरती हुई वो धीरे-धीरे पत्थर बनती गयी और ऐसे ही जीना सीख गई थी पर गड़बड़ तब हो गयी जब हम अपने एक रिश्तेदार के घर शादी में गए थे।उस दिन सब शादी की मस्ती में डूबे थे तभी आवाज आई एक बच्ची सीढ़ियों से नीचे गिर गयी है जब हम भागते हुए वहाँ पहुँचे तो पता चला सबसे पहले उसे गिरते भाभी ने ही देखा था और वो उस बच्ची को उठाकर उसके पिता के साथ अस्पताल चली गयी थी। उस बच्ची की एक जुड़वां बहन भी थी जो अपनी बहन को गिरता देख और अपने पिता से दूर होने के कारण बस रोती जा रही थी। अस्पताल में दाखिल कराने के बाद जब वो लौट रही थी तो उसके पिता ने भर्राए गले से कहा था " मैं यहाँ इसे छोड़ कर नहीं जा सकता मेरी दूसरी बेटी मुझे न पाकर बहुत रो रही होगी...बिन माँ की बच्ची है जब तक मैं यहाँ हूँ तब तक अगर आप उसका ख्याल...।"
"आप बिल्कुल चिंता न कीजिए मैं आपसे वादा करती हूँ उसका पूरा ख्याल रखूँगी आप बस इसका ख्याल रखिये।" कहकर वो लौट आयी थी।
इसके बाद वो भूल गयी कि वो शादी वाले घर में आईं हैं उनका एक ही काम था बस उस बच्ची का ख्याल रखना। शादी बीत चुकी थी हमें छोड़कर सारे अतिथि जा चुके थे। इन दस दिनों में मैंने भाभी को जितना खुश और हँसते हुए देखा था उतना पहले कभी नहीं देखा। कुछ ही महीनों पहले उस बच्ची ने अपनी माँ को खोया था। ऐसा लग रहा था अब वो भाभी के भीतर ही अपनी मरी माँ को तलाशने लगी थी। एक पल भी वो उसकी आँखों से ओझल होती तो वो परेशान हो उठती थी। दोनों एक दूसरे के साथ अपना हर दर्द भूल बहुत खुश थे।
दस दिन बाद जब उसके पापा उसकी बहन के साथ लौटे और उसे घर ले जाना चाहा तो वो ज़िद पर अड़ गयी "मैं इन्हें भी साथ लेकर जाऊँगी।"
बहुत समझाने के बाद भी वो नहीं मान रही थी तो उसके पिता गुस्से से खींचकर उसे अपने साथ ले गए पर घर जाने के बाद वो हँसना ही भूल गयी। बस रोती रहती थी। पिता के गुस्से के डर से खिलाने से कुछ खा जरूर लेती थी पर पूरा दिन ऐसे ही गुमसुम एक जगह ही बैठ कर गुजार देती थी।एक पिता से अपनी बेटी की ये हालत नहीं देखी गयी। वो जानते थे भैया भाभी को छोड़ गए हैं इसलिए शायद वो भाभी से शादी का प्रस्ताव लेकर हमारे घर आये थे।
सबने उनका बहुत अपमान किया ये कहकर की मेरे बेटे के जीवित रहते आपकी हिम्मत कैसे हुई हमारे घर आकर ऐसी बात कहने की। वो वापस लौटकर जा रहे थे तभी.. कभी किसी के आगे सिर न उठाने वाली भाभी सबके सामने आकर बोली थी " मैं इनसे विवाह के लिए तैयार हूँ।"
सब ऐसे चोंक गए जैसे अभी-अभी यहाँ कोई बम फटा हो।माँ और बुआ भाभी को खींचकर ले गयी और कमरे में बंद कर दिया। वो भी उदास वहाँ से ये कहकर लौट गए कि "मैं अनुपमा का इंतजार करूँगा अगर कभी आपके विचार बदले तो मुझे जरूर याद कीजियेगा।"घर में भाभी को प्यार से , गुस्से से जिसे जैसा लगा सब अपने-अपने तरीके से समझा रहे थे। भाभी का कोई वश नहीं चला और एक बार फिर से उसने इसी तरह जीना स्वीकार कर लिया।
पर जब भैया लौट आये हैं और माँ उन्हें उनके कमरे में भेजने पर तुली हैं तो आज उन्होंने भी रौद्र रूप अपना लिया है...!"
"तुम क्या चाहती हो?" मैंने सिम्मी से पूछा।
"मैं बस उन्हें खुश देखना चाहती हूँ भैया !"
"तो रोक क्यों रही हो अपने भीतर की उस औरत को जो जानती है सही क्या है गलत क्या है?"
सिम्मी कुछ देर सोचती रही फिर मुझे छोड़ वो तेजी से घर की ओर बढ़ रही थी। मैं भी उसके पीछे चल पड़ा।
अनुपमा आज सिर उठाये आँगन में खड़ी थी और सब दरवाजा रोके उसे खूब खरी-खोटी सुना रहे थे आज पहली बार उसने नजर उठाकर मेरी ओर देखा था शायद इस विश्वास से की मैं उसकी मदद करूँगा पर मेरी मदद की जरूरत ही न पड़ी
"चलो भाभी, आप मेरे साथ चलो...आज इस घर में वही होगा जो आप चाहती हैं।" सिम्मी उसका हाथ पकड़ कर बोली।
"सिम्मी तुम भीतर जाओ, ये बड़ों की बातें है।"
"कौन से बड़े पापा और कैसे बड़े? बड़ों का काम होता है छोटों का ख्याल रखना न कि उन्हें अपना गुलाम बनाये रखना। ये औरत है तो क्या इसे अपनी मर्जी से जीने का हक़ नहीं...! ये कायर भैया जो उस दिन आपके डर से आपका विरोध भी नहीं कर पाए और शादी कर ली। संसार के रिश्ते नहीं निभा पाए और भाग गए जब भाग ही गए थे तो उसी में सफल होते न जिसके लिए गए थे , फिर वापस क्यूँ आ गए?"
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या सिम्मी? मत भूलो अपने बड़े भाई के बारे में बात कर रही हो तुम !! मासी ने गुस्से से कहा। " उस भाई का सोचूँ माँ जो नाता-रिश्ता कुछ मानता ही नहीं ! सबको छोड़ चला गया और ये पराई होकर भी हमारी बनी रही ... तुम भी बहु को कहाँ अपनी बेटी बना पायी माँ.. औरत होकर भी औरत को एक शरीर ही माना न। जिनके लिए उनके मन में कोई प्रेम ही नहीं है वो उनके साथ उनके कमरे में क्यूँ रहे बोलो? क्या औरत का कोई मन नहीं कोई वजूद नहीं! अरे निःस्वार्थ वो सुबह से रात तक सबकी सेवा करती है... क्या आप सबको दया नहीं आती इनका ये उदास चेहरा देखकर? इसके जगह मैं होती तो आपसब मुझे भी ऐसे ही आजीवन गुलाम बना कर रखते।"सब खामोश खड़े थे। सिम्मी उसका हाथ पकड़े उसे ले जा रही थी इस बार किसी ने कोई विरोध नहीं किया। मैं उनदोनों को अपनी भीगी पलकों से देखता रहा जब तक वो मेरी आँखों से ओझल न हो गए...।