Vikrant Kumar

Tragedy

4.8  

Vikrant Kumar

Tragedy

साइकिल विश्वास की।

साइकिल विश्वास की।

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11 वर्ष की राजकीय सेवा और जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव पार करने के बाद दो बातें निष्कर्ष के तौर पर सामने आयीं। एक तो ये कि बदलाव ही जीवन है, इसके लिए सदैव तैयार रहें और दूसरा ये कि हौंसला बनाएं रखें।

एक नया बदलाव एक नई सोच के साथ और नई सीख के साथ जीवन में घटित हुआ। बात बचपन के अनुभव और वर्तमान बदलाव से जुड़ी है।आजकल के बचपन की तो बात ही क्या करें ?

यूँ मानो कि बच्चे भी एंड्राइड पैदा होने लगे है। जन्म लेते ही सुपर एक्टिव गतिविधियों का प्रदर्शन शुरू कर देते है। जन्म के कुछ वर्षों में मोबाइल इतने एक्सपर्ट की तरह ऑपरेट करते है कि हम उनके सामने अनपढ़ लगने लगते है। 

एक हमारा बचपन था कि 10वीं क्लास तक एक ही सपना होता था- साइकिल।

किसी तरह साइकिल मिल जाए बस फिर हवा से बातें करें। दोस्तों में अपना एक अलग रौब हो। साइकिल सवारी जैसे राजा की सवारी हो।

10 पास करते कि साइकिल मिली तो खुशी का ठिकाना ना रहा। दिन तो दिन रात को सपने में भी साइकिल दिखाई देती। अनेक वर्षों तक हवा से बातें होती रही। एक अलग ही अनुभव एक अलग ही आनंद साइकिल चलाने में था। 10 किमी प्रतिदिन कोई मायने नहीं रखता था। सच में जीवन कितना सरल था तब....!

खैर...समय तेज गति से बदलता गया। भागदौड़ भरे जीवन और समय की पाबंदी ने मनुष्य को मोटर का गुलाम बना दिया। जीवन के हर क्षेत्र में आधुनिक मोटर ने कब्जा कर लिया।स्वाभिक था कि साइकिल की जगह भी मोटर साइकिल ले ले। पता ही नहीं चला कि हम भी कब साइकिल से मोटर साइकिल पर आ गए। अनेक वर्ष मोटर की सवारी करने के बाद एक बार फिर मुझे साइकिल की याद आयी। याद भी इतनी प्रबल कि एक दिन में ही साइकिल खरीदने के लिए मन मजबूर हो गया।

एक परिचित की दुकान पर गए और मन के भाव से उन्हें अवगत करवाया।

श्रीमान ने भाँप लिया कि साइकिल तो पक्का ले के ही जायेंगे। बीसों साइकिल में से मेरे लिए एक खास साइकिल की सिफ़ारिश की गई। साइकिल को मेरे समक्ष ऐसे प्रस्तुत किया गया कि खास आपके लिए ही डिजाइन किया गया हो। मुझे भी सवारी करके बचपन के आनंद की अनुभूति हुई। वही... राजा की सी सवारी। 

एक क्षण बिना गवाएं खरीद ली।

पैसे पूरे 8000 रुपये।

साइकिल हरक्यूलिस स्ट्रीट कैट प्रो 26 टी।

मन बहुत खुश था बचपन की सवारी गाड़ी पा कर। सोचा हर दिन उसी आनंद के साथ सवारी करेंगे । पर खुशी में ख़लल भी लाजमी है मेरे लिए।

घर जाते ही पता चला कि आपके परिचित साइकिल विक्रेता ने आपके विश्वास में चूना लगा दिया है।

चूना भी कितना???

पूरे 3000 रू का।

जो साइकिल मुझे 8000 की बेची गयी वो मार्किट में सरलता से  दूसरी दुकानों पर 5000 की मिल रही थी।

सवारी का आनंद और बचपन की यादों का मेला... एक झटके में काफ़ूर हो गया। थोड़ी देर पूर्व जो साइकिल राजा की सवारी सी लग रही थी वो अब धोखे और ठग्गी का प्रतीक हो गयी। थोड़ी देर पूर्व जिसकी सवारी के लिए मन ललायित था अब उस पर सवार होने का मन नहीं था।

 साइकिल तो है पर विश्वास की चैन नहीं है। परिचित भी ठग्गी करने से बाज नहीं आते। यूँ कहे कि ज्यादा ठग्गी परिचित लोग ही करते है तो भी कुछ गलत नहीं होगा।

आप ही बताइए कैसे सवारी करूँ उस सपने के वाहन पर जिसके विचार मात्र से ही विश्वासघात और ठग्गी का अहसास हो जाता है...?


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