Mrugtrushna Tarang

Abstract Tragedy Thriller

3.4  

Mrugtrushna Tarang

Abstract Tragedy Thriller

क़सक

क़सक

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"बस तुझ पर प्यार करने का नाटक नहीं कर पाई। तुझ पर ममत्व लूटाने का छल नहीं रच पाई। उसमें गलती किसकी थी लबली?" 

तुम्हारी या तुम्हें मेरी ओर आगे बढ़ने से रोकने वाले उन हाथों की!

फिर भी

डबल मैच्योरिटी की डिमांड कर रहे थे देबोशिष अपनी दूसरी पत्नी पारो से।

क्यों?

उसी

देब से पारो कभी नहीं पूछ पाई कि, 'अपने जीवनसाथी का हाथ पकड़ने की चाह रखते थे। तो उसे निभाया क्यों नहीं?

अपनी बिटिया को क्यों नहीं सिखाया नॉन बायलोजिकल माँ की इज़्ज़त करना? उसे माँ का दर्जा देना? वो भी दिल से। बेमन से नहीं।' 

पारो, आजीवन घुटती रही अपने में ही।

उसे कतई समझ न आया कि, अपने पति से इश्क़बाज़ी करना क्यों गुनाह कहलाने लगा था? 

क्यों उससे ही मैच्योरिटी की उम्मीदें थीं? क्यों पारो अपने पति की बांह को अकेले में भी नहीं पकड़ सकती थी?

और जब कभी कुछ कुछ समझ आया तबतक बहोत देर हो चुकी थी।

देब का पारो को अलग थलग रखना,

क्योंकि, लबली, उसकी साढ़े तीन साल की बेटी उनके सामने थीं! 

तो क्या?

वो तो ताउम्र उनके सामने ही तो रहने वाली थी। तो क्या मियां बीबी वाली नोंकझोंक, वो मस्तियाँ, वो रूठना मनाना कुछ भी नहीं होगा!

क्योंकि, लबली के कोमल मानसपटल पर कुछ गहरा, बहोत ही गहरा घाव न कुरेद जाएँ!

पर ऐसा क्यों होता! कैसे होता? क्या देब अपनी पहली पत्नी, लबली की जन्मदात्री से भी वो पति पत्नी वाला खेल, वो प्यारी सी छुअन वाली लुकाछुपी नहीं खेला होगा कभी!?

अगर अपनी पत्नी शीक्षा से खेल सकता था तो पारो से क्यों नहीं!!

दूसरी शादी से क्या फ़र्क आ गया था? और क्यों?

देब की दूसरी शादी थी। जो उसने सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी नन्हीं कली सी लबली को माँ दिलवाने के लिए की थी! तो क्या पारो सिर्फ़ लबली की माँ ही थीं! उसका कोई और अस्तित्व ही नहीं था उस महोपात्र खानदान में!?

अरे हाँ! कैसे भूल गई वो! शेट् ! महोपात्र परिवार की देहलीज़ पर शादी के बाद जब पहली बार क़दम रखा था। तब यही पहचान तो मिली थी उसे - "ये लो लबली। सम्भालो अपनी एकलौती लाडली ज़िम्मेदारी! और अब हमें इज़ाज़त दो। और मुक्ति भी।"


'शादी का वो भारी भड़कम जोड़ा, वो लाल चुनर, वो कान की मोटी मोटी बालियाँ, वो छुन छुन करती पैरों की पैजनियाँ, माथे की घुँघरू वाली बिंदिया, वो कमरपट्टे पर लदी हुई घुँघरू की छनक - क्या क्या संभालती! और उस पर तुरंत ही सिर पर आई हुई वो जिम्मेदारी को!'

हाँ, बिल्कुल। पारो बिल्कुल भी अज्ञान नहीं थी। ये बात से की, देब की साढ़े तीन साल की एक बेटी भी थी। पहली या दूसरी मुलाक़ात में ही तो देब ने अपनी लबली से मिलवाया था।

और वो भी तोतली भाषा में कुछ बुदबुदाई तो थी। पर अपने पापा को संबोधित करती हुई।

पारो, बिन माँ की बेटी लबली को चाहती थी। पर ये न जानती थी कि, बदले में नफ़रत ही मिलेंगी।

और,

ससुराल में क़दम रखते ही ज़िल्लतों का सामना करना पड़ेगा।

पति और उसके खानदान से भी।

और हुआ भी ऐसा ही कुछ।

सुहागरात कहो या सुहागसुबह। प्रातःकाल चार बजे दो अजनबियों के जिस्म एकदूसरे में मिलने ही वाले थे कि, लबली उठ गई। उसे बोतल से दूध पिलाने के चक्कर में सुबह हो गई।

और

सासु जी ने प्रातः छह बजे बेडरूम के बाहर लोहे की बाल्टी और झाड़ू पटक दिया। सात कमरें और तीन बाल्कनी वाले बड़े से बंगलो की साफसफाई करनें के लिए।

लेकिन, लोग क्यों भूल गए कि, नई नवेली दुल्हन को पहलेपहल तो उसके पति से मेलजोल बढ़ाने दो। उसे जानने समझने का मौका दो।

और फिर जाके कहीं उसकी गोद में पति के बच्चे को डालो, वो भी जिम्मेदारी का नाम देकर।

पर नहीं। शादी हुई नहीं। बच्चा सौंपकर सब अपने हाथ झटककर चल दिए।

और वो नई नवेली दुल्हन बिन प्रेग्नेंट हुए ही माँ बन गई।

एक रोबॉटिक वे में भावनाशून्य एहसास के साथ वो उस नन्हीं सी बच्ची को संभालने के लिए एक आया बन गई।

रोबॉट, इमोशनलेस भावनाशून्य मशीन की तरह लबली पारो से ब्रश करवाती। स्कूल के लिए तैयार होती, उसको होमवर्क करवाती।

  और लबली यूनिफॉर्म को उतारकर फेंक देती।अच्छे साफ़ सुथरे कपड़े पहनकर अपने पापा के सामने बनठन कर आती। 

पारो सबकुछ करती, पर सबको वो एक ट्रेन्ड रोबॉट सी ही लगती।

शायद इसलिए ही लबली को गले लगाते ही पारो को दिल में चहक नहीं उठती कभी।

शादी करके देख ही तो रही थी वो लबली को। एक टेन टू सिक्स वाला जॉब करने वाली केर टेकर। क्या कहते हैं उसे! नैनी, हाँ, वो नैनी ही तो थी लबली की। लबली की मुफ़्त में देखभाल करने वाली दाई माँ या फिर बिनपगारी आया!!

पारो नहीं थी माँ, लबली को सीने से लगाती तो वो ममतामयी कसक नहीं उठतीं थी। नहीं, पारो पत्थर दिल नहीं थी। साल भर गुज़र गया फिर भी प्यार नहीं उमड़ा था लबली को पारो की ओर।

क़ैद का एहसास तब होता है जब मन से सोचो तो!

एक और गहरी साँस लिये पारो शादी के पहले देब को मिली थी अकेले में। अपनी कसमसाहट बयान करनें। पर, उससे पहले ही एक इम्तिहान टकटकी लगाए पारो की ओर घूरे जा रही थी। 

'मम्मा, मम्मा' कहती लबली गले लगेगी। ऐसा सपना देख रही पारो की गोद छोड़ लबली अपने पापा की ओर दौड़ने लगी। 

और अब, देब के स्वर्गवासी होने की ख़बर सुनकर पारो ने पहलेपहल लबली को ही तो गले से लगाया था। कभी खत्म न होने वाली दिल्लगी सा।

तब भी लबली ने माँ को बेमन से ही छुआ था।

औरों से बतियाने में लबली की ज़ुबाँ से

बताशे की तरह मीठे लब्ज़ तरतराने लगते। पर अपनी नॉन बायलॉजिकल माँ से बतियाने में वह चुप्पी साध लेती।

पारो का उसे नवरात्रि में सजाना उसे भाता नहीं था क्या? तो फिर क्यों पारो के फोटो शूट करने पर्5 वो पारो पर चिढ़ जाती। उसका अपमान करती।

और,

आख़िरकार एक दिन लबली ने पारो को सुना ही दिया, "तुमसे नहीं संभलती अगर, तो सौंप दो किसी और को!"

क्या यही सिला मिलना था पारो को अपने बलिदान का!?

अपनेपन की क़सक कभी नहीं जगी लबली में।

तो, अब क्यों झूठमूठ की मोहब्बत जताने दौड़ी चली आती है वो?

जबकि, अब पारो अल्झाइमर्स की मरीज़ बन दरबदर भटक रही है। किसीको भी न पहचानते हुए। सिर्फ़ अपने देबोशिष को पुकारते हुए...


"देबो, देखो, मैंने लबली को पढ़ा लिखा कर आला दर्जे की अफसर बना दिया है।

पर वो मुझें नहीं पहचानती। मुझसे प्यार नहीं करती।

तुम मुझें अपने पास बुला लो न् देबो।

बुलाओगे न् देबो, अपनी पारो को।

मैं इन्तज़ार कर रही हूँ।

भूलना नहीं पारो को स्वर्ग में जाकर, हं !"


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