Mrugtrushna Tarang

Horror Tragedy Thriller

4  

Mrugtrushna Tarang

Horror Tragedy Thriller

बाँस की डलियाँ - १२

बाँस की डलियाँ - १२

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वक्त बेवक्त यहाँ वहाँ भटकने के बाद जोसेफ ने अपने नए हुलिए और नकली आँख को सेट की। इमरजेंसी में ऑपरेशन करने वाले डॉ को भी हलाल कर दिया। ताकि कोई सबूत शेष न रहे। 

छन्दनपुर से भागकर जोसेफ उर्फ फादर पीटर को छिपने के लिए जगह ढूँढ़नी ही थी। और सामने से मिल भी गई। मानों किसीने उसका भविष्य सेट कर दिया हो।

फिर भी खुद से बेज़ार हो चुके जोसेफ को ठहराव की अपेक्षा थी।

दूसरे दिन सुबह उसने एक टैक्सी हायर की। दुगने पैसे देकर टैक्सी ही खरीद ली।

और अपनी अगली मंज़िल की ओर आगे बढ़ने लगा।

लेकिन उस दिन जैसी डरावनी-सी चुप्पी पहली बार ऐसे बैमनस्य हवा में कभी महसूस नहीं की थी उसने। चनार के पेड़ों की सांय-सांय और बारिश की बूंदे भी जैसे तूफान के ओले की तरह उसके तन बदन पर चुभती जा रही थी। 

घनघोर बारिश का मौसम बेवक्त जाग उठा। और एकदम धूंधला सा एटमॉस्फियर छाने लगा।

की,

जोसेफ के दिमाग में घंटियाँ बजने लगी। और अनगिनत घंटियाँ बजाने वाली कॉरल झरे, सुजेन, सॉफिया, मासूमा, हैंडीकैप्ड बच्ची बॉबी और गुल बारी बारी से उसके सामने आकर ओझल होती रही।

क्राइम की दुनिया का बादशाह होने पर कभी डरा नहीं। वो आज कुछ अजीब सा महसूस करने लगा था। डर के आगे जीत नहीं मौत होती होगीं। ये उसे अब महसूस होने लगा था।

अचानक से उसे अपनेआप पर काबू पाना ही मुनासिब लगा।

तब उसे दिल में चुभन सी महसूस हुई कि, आज तक उसकी रूह में और हर वो बिस्तर पर वे सारी खूबसूरत बलाएँ बसी हुई थी। 

आखिर क्यों ? 

आज खेली गई सारी रंगरेलियाँ बकासुर के बड़े से मुँह की भाँति जबड़ा खोले जोसेफ की करतूतों को बाहर फेंक रही थी। और लाचार और बेबस जोसेफ कुछ भी कर नहीं कर पा रहा था।

और अब उसे खुदकी ही काली करतूतें भयावनी लग रही थी।

तब उसके ज़ेहन में अपने बचाव में कुछ सवालात घेरने लगे।

क्यों वे सारी की सारी खूबसूरत परियाँ उसकी ज़िन्दगी में आनन फानन में आयीं और चली भी गई!? आयीं भी तो यूँ सहमी सी ठण्ड में ठिठुरती हुई! मानों बर्फ़ीले मौसम को अपने में समेटे हुए उससे अँगीठी की गरमाहट पाने को बेताब सी हो !

क्यों वे सारी कन्याओं की रूह ने उससे ही मदद मांगी सुनसान और बयाबान राह पर!?

और मुल्जिम बनकर आती और मुजरिम बनके सजा भी वो ही सुना जाती! बेमन से इश्क़बाज़ी करने की!!

बर्बस, आँखों से कुछ और बयां करती। और जुबां से कुछ और ही बुदबुदाती रहती।

फिर क्या था? जोसेफ का दिल पसीज जाता। वैसे भी उसकी दिमाग़ी हालत कुछ खुशगवार तो थी नहीं। उन लड़कियों के बदन की सौंधी सौंधी मिट्टी सी खुशबू से जोसेफ बेकाबू हो जाया करता था। 

फिर, उस खुशबू को करीब से सूँघता। और उसकी भूख बढ़ने लगती। जब तक वो उन नर्म मुलायम बदन को प्यार से छूना चाहता। लेकिन, कोई भी उसे ऐसा करने नहीं देती थी। तब उसके भीतर का जानवर जाग उठता। जो उसे मसलने, खरोंचने या रौंदने के बाद ही शांत हो पाता।

नरम रूई की फाहे जैसे होंठों का रस पीने को बांवरा हो उठता था वो।

और यौवन के वो इमोशन्स उसे संभाले नहीं संभलते थे। उस पर किसीका कोई मार्गदर्शन भी तो नहीं मिलता था उसे।

स्कूल में उम्र के हिसाब से बाकियों के मामले कुछ जल्दी ही उसकी मूँछे और दाढ़ी फूट पड़ी थी।

यौवन में क़दम रख रही लड़कियों के उरोज़ जैसे ही उसके भी उरोज़ उभरने लगे थे।

खेल कूद में जब कभी जोसेफ का बदन खुला रहता, लड़कियाँ कनखियों से उसे निहारा करती। मानों उनकी आँखें लालायित होकर उसे न्यौता दे रही हो, पास आने का।

जोसेफ की एक शायद कई कमज़ोरियाँ थी। 

उसे गुस्सा बहोत ही जल्दी आता था। पर उसकी ख़ासियत थी कि, वो अपने दुश्मन को कभी भी अपने गुस्से का पता नहीं चलने देता था।

बार

उसके गाल गुस्से से और भी लाल हो जाते। सुर्ख़ गुलमहोर से। और नाक के नथुनों और कान के आसपास की चमड़ी और भी रसीली हो जाती। माथे पर सिलवटें समंदर में उठती लहरों सी उमड़ने लगती।

ये सब बदलाव लड़कियों को उसकी ओर आकर्षित करता। और वे उसे कनखियों से घूरे बगैर रह नहीं सकती।

और फिर दोनों ओर से आग बराबर लगी रहती।

पर जोसेफ की हैवानियत उन लड़कियों के आकर्षण को चकनाचूर कर देता और वे सारे उसकी हवस का शिकार हो जाती।


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